विऔपनिवेशीकरण अर्थात् उपनिवेशों का अंत, यानी नए-नए स्वतंत्र राज्यों का विश्वपटल पर उद्भव है। विऔपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता संग्राम एक-दूसरे से गहरे स्तर पर सम्बद्ध हैं। विऔपनिवेशीकरण जहाँ साम्राज्यवादी शक्तियों के पीछे हटने की प्रक्रिया की बात करता है, वहीं दूसरी ओर स्वतंत्रता संग्राम उस प्रक्रिया का बखान करता है कि किस प्रकार औपनिवेशिक शक्तियाँ व्यापक जन राष्ट्रवाद के कारण कमजोर हुई। 1932 में जर्मन विद्वान मोरिट्ज जूलियस बॉन ने सर्वप्रथम विऔपनिवेशीकरण शब्द का इस्तेमाल समाज विज्ञान के विश्वकोष के साम्राज्यवाद पर लिखे अपने खण्ड के लिए किया था।
स्प्रिंगहॉल ने अपने हाल के अध्ययन में विऔपनिवेशीकरण को गैर-यूरोपीय लोगों पर बाह्य राजनीतिक सम्प्रभुता का समर्पण और जहाँ पहले पश्चिम का राज था, वहाँ स्वतंत्र क्षेत्रों का उदय या साम्राज्य द्वारा राष्ट्र-राज्यों की सत्ता के हस्तान्तरण के तौर पर परिभाषित किया है।
साम्राज्यवाद को सैद्धान्तिक आधार पर समझने के लिए तीन दृष्टिकोणों के तहत देखा जा सकता है :-
1. राष्ट्रवादी दृष्टिकोण
2. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ दृष्टिकोण
3. साम्राज्यवाद की मजबूरी का दृष्टिकोण –
1. राष्ट्रवादी दृष्टिकोण :- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का यह दृढ विश्वास है कि औपनिवेशिक सत्ता का अंत उपनिवेश के लोगों के प्रतिरोध की वजह से हुआ। हालाँकि यह प्रतिरोध ऐसा नहीं था कि अंतिम चरण में ही पनपे विरोध की प्रक्रिया शुरू से ही छिट-पुट किसी-न-किसी रूप में विद्यमान थी।
डी.ए. लो ने भी साम्राज्य के अंत तक प्राथमिक कारण साम्राज्य-विरोधी प्रतिरोध को ही माना है। वे यह भी कहते हैं कि औपनिवेशिक ताकतों ने र प्रतिरोध की प्रकृति को प्रभावित किया. परिणाम को नहीं। जैसे उपनिवेशों के लोगों की जागरूकता बढ़ती गई. उनका प्रतिरोध उत्तरोत्तर उर्द्धव होता ग. उन्हें लगा कि उनके सहयोग से ही इनकी व्यवस्था चल रही है, फलतः उन्होंने असहयोग करना आरम्भ कर दिया।
ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने इस अंत को एक सुव्यवस्थित एवं तार्किक रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। लेकिन अंत की यह प्रक्रिया जटिल और पेचीदा थी। इस प्रकार की प्रक्रिया साम्राज्य की योजनाबद्ध व सुविचारित वापसी नहीं थी, उनकी ताकत कमजोर पड़ रही थी। उन लोगों ने स्थिति सुदृढ़ करने की जीतोड़ कोशिश की, पर एक न चली। भारतीय संदर्भ पर अगर दृष्टिपात करें, तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। 1930 के दशक के बाद से साम्राज्यवादियों का रुझान दमन के समझौते की ओर रहा। लेकिन इस स्थिति के कारण दुविधा उत्पन्न हुई। जिन अधिकारियों की मदद को लेकर ब्रितानियों ने 1930 से 34 तक के नागरिक अवज्ञा आंदोलनों का दमन किया, उन अधिकारियों के हौंसले आगे चलकर पस्त होने लगे, कारण था कि 1937 में हुए चुनाव तथा प्रांतीय मंत्रिमंडलों के गठन के उपरान्त उन्हें उन्हीं नेताओं के अधीन कार्य करना पड़ा, जिन्हें वे आंदोलन के समय गिरफ्तार करते थे।
यह स्थिति 1942 के आंदोलन तथा 1946 के सरकारों के गठन के बाद और भी मुखर हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि साम्राज्यवाद के अंत का जो भी कारण रहा हो, लेकिन शक्तिशाली राष्ट्रवाद का उद्भव उन सभी में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था।
अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ:- दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ दृष्टिकोण के अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त बदले हुए वैश्विक समीकरणों ने विऔपनिवेशीकरण की प्रवृत्ति को तीव्र किया। युद्ध पूर्व की फ्रांस और इंग्लैंड जैसी औपनिवेशिक ताकतें अपनी पूर्व स्थिति खो चुकी थीं, युद्ध ने उन्हें जर्जर बना दिया था।
द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त विभिन्न राष्ट्र वैचारिक आधार पर गोलबंद होने लगे थे। अब अमेरिका और सोवियत रूस महाशक्ति के रूप में उभर चके थे। पुरानी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा स्थापित उपनिवेशों का कायम रहना इन नवोदित राष्ट्रों की हित पूर्ति में बाधक था। इन राष्ट्रों की नजरें एशिया और अफ्रीका के नवस्वतंत्र देशों के साथ सम्पर्क करने के लिए सजग थीं उदाहरणार्थ, वियतनाम से फ्रांस के हटते ही अमेरिका ने वहाँ अपनी स्थिति बना ली। सोवियत रूस ने पूर्वी यूरोप, क्यूबा और मोजाम्बिक जैसे प्रदेशों को लगभग उपनिवेश जैसा ही माना।
इन घटनाओं के अतिरिक्त 20वीं सदी के आरम्भ से ही यूरोपीय अजेयता का भ्रम खत्म होने लगा था। 1902 के आंग्ल-जापान संधि, 1905 रूस-जापान युद्ध में रूस की पराजय तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण-पूर्व एशिया में जापानियों की सफलता ने विऔपनिवेशीकरण की प्रवृत्ति को तीव्र करने में मनोवैज्ञानिक भूमिका का निर्वहन किया। अटलांटिक घोषणापत्र, 1960 का संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र भी साम्राज्यवाद के प्रति बदले हुए वैश्विक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। अब औपनिवेशिक शासन की तीखी आलोचना की जाने लगी। इसे संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र में बुनियादी मानवाधिकारों की अस्वीकृति और उल्लघंन के रूप में देखा जाने लगा।
साम्राज्यवाद की मजबूरी का दृष्टिकोण :- विऔपनिवेशीकरण के पीछे साम्राज्यवाद की अपनी दुविधाएँ एवं अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में हुए बदलाव भी कार्य कर रहे थे। हॉलैंड ने कहा है कि एक समय ऐसा उपस्थित हो जाता है, जब उपनिवेश जनक देशों के लिए सिरदर्द बन जाता है।
वैसी स्थिति में उस पर धन और संसाधन व्यय करना भी बद्धिमानी प्रतीत नहीं होती। इस प्रकार जैसे-जैसे यह स्थिति गंभीर होती जाती है, वैसे-वैसे औपनिवेशिक राष्ट्रों की उपनिवेश के प्रति चाहत समाप्त होती जाती है। इतिहासकार जॉन गालाघर ने भारत का हवाला देते हुए कहा है कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य के सामरिक, वाणिज्यिक और वित्तीय हितों का संरक्षण नहीं कर पा रहा था।
आनल सील ने यहाँ तक कहा कि द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की सुरक्षा आवश्यकता के लिए ब्रिटेन को धन जुटाना पड़ा। आदित्य मुखर्जी ने इस बात का विरोध करते हुए कहा है कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत का आर्थिक दोहन और भी बढ़ गया था। बी.आर. टामलिसन ने विऔपनिवेशीकरण को साम्राज्यवादी और विश्व अर्थव्यवस्थाओं में परिवर्तन के अतिरिक्त भारतीय पहलू को भी माना है। लेकिन उनके अनुसार यह पहलू राष्ट्रवादी दबाव नहीं था, बल्कि साम्राज्यवादी सरकारों द्वारा अपने नागरिकों पर लादे जा रहे वित्तीय बोझ से पैदा असंतोष था।
आर.जे. मूर ने अपनी रचना एस्केप फ्रॉम एम्पायर में द्वितीय विश्व युद्ध के अन में ब्रिटेन की अपार आर्थिक हानि की ओर ध्यान खींचा है। एक अन्य कारण युद्धोत्तर काल में कल्याणकारी राज्य का विस्तार तथा वैचारिक बदलाव भी था। यही कारण युद्ध में विजयी होने के बावजूद भी कंजर्वी पार्टी युद्ध में विजयी होने के बाद भी सत्ता से दूर रही और 1945 में लेबर पार्टी की सरकार बनी। उस समय ब्रिटेन में ऐसी स्थिति बन गई थी कि जा भी नेता विऔपनिवेशीकरण की बात करता, वह शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाता था।
1946 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत पर पकड़ बनाए रखने के विरुद्ध कई तर्क दिए, जिसमें संसाधनों की अपर्याप्तता, जनमत का अभाव, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में अलग-थलग पड़ने का भय, सैनिकों पर अविश्वास अथवा सैनिक संगठन का अभाव जैसी प्रमुख बातें शामिल थीं। इतिहासकार डेविड एक भिन्न मत प्रस्तुत करते हैं। उनका मानना है कि विऔपनिवेशीकरण के कारणों की तालाश मेट्रोपोलिस में न करके उपनिवेशों में करनी चाहिए। लेकिन यह सोच पूरी तरह यूरोप-केन्द्रित है। यह विचारधारा विऔपनिवेशीकरण के कारण मेट्रोपोलिस के आंतरिक, राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन को मानता है। वह उपनिवेशों के राजनीतिक दलों की पहल को अहमियत नहीं देता है।
निष्कर्षत: विऔपनिवेशीकरण के सैद्धांतिक आधार को स्पष्टतया समझने के लिए राष्ट्रवादी दृष्टिकोण, अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ दृष्टिकोण तथा साम्राज्य …की मजबूरी का दृष्टिकोण आदि बिन्दुओं का अध्ययन सहायक साबित होगा।
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