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फिजि में भास्तीय डायस्फोरा के स्वरूप की विस्तारपूर्वक चर्चा कीजिए।

 फिजी में भारतीय डायस्पोरा- क्रोकोम्बे के अनुसार 1811 में सर्वप्रथम अकोवला नामक एक भारतीय नाविक ने हंटर जहाज को छोड़कर फिजी की भूमि पर पाँव रखा और वहाँ लगभग 2 वर्ष तक रहा। उसके बाद वह सोलोमन द्वीप पर चला गया, जहाँ उसने अपना शेष जीवन बिताया। यहीं से फिजी और दक्षिण सागर के अन्य द्वीपों में भारतीय डायस्पोरा समुदाय के बसने की प्रक्रिया का आरम्भ होता है।

यद्यपि भारत- फिजी अन्तर्संबंधों का लिखित इतिहास बहुत कम है लेकिन उनके बीच के अमूर्त प्रभाव को फिजी के विभिन्न भागों में महसूस किया जा सकता है। 1879 में फिजी में करारबद्ध मजदूरों के रूप में भारतीयों का आगमन हुआ। ये यहाँ कपास और गन्ने के बगानों में कुली मजदूरों के रूप में काम करने लगे। उन्होने ऑस्ट्रेलिया की एक बड़ी कम्पनी कोलोनियल शुगर रिफाइनिंग कम्पनी में भी काम किया। नारायण के. लक्ष्मी के अनुसार, “कुल मिलाकर 1879 से 1916 तक कुल 60,537 भारतीय फिजी में करारबद्ध मजदूरों के रूप में काम करने के लिए आए।”

क्रोकोम्बे लिखते हैं कि “अनुबंध (करार) की शर्तों में 5 वर्ष की अवधि निश्चित थी और इसके बाद यदि वे फिजी में रहना चाहते थे तो उन्हें फिजी में 10 वर्ष गुजारने के बाद भारत जाने के लिए निःशुल्क यात्राधिकार (Passage Emigration) मिलता था। जो भी मजदूर जिन्दा बचे उनमें से 60% ने वहीं रहना पसंद किया”। स्वतंत्र कर्मकारों के रूप में फिजी पहुँचने वाले भारतीय कारोबारों एवं अन्य कर्मकार को मुक्त प्रवासी कहा जाता था। फिजी सहित अन्य दक्षिणी सागर के तटों पर कुछ नाविक जहाज को छोड़कर व्यापारियों के रूप में बस गए । ऐसे करारबद्ध मजदूर जिन्होंने वहीं बसने का निर्णय लिया, लेकिन वे अब खेती का काम नहीं करना चाहते थे, छोटे कारोबारी बन गए। 

के.एल. गिलियन के अनुसार दोनों प्रकार के करारबद्ध मजदूरों को मिलाकर 1998 तक 140 के पास दुकानदारी के लाइसेंस और 192 के पास फेरी के लाइसेंस थे जो 1916 में बढ़कर क्रमश: 1508 और 974 हो गए तथा 80 गहने बनाने वाले भी थे। क्रोकोम्बे के अनुसार फिजी में व्यापार करने वालों का सबसे बड़ा समुदाय गुजरातियों का था। 1936 में इनकी संख्या 1500 थी। उनके द्वारा नियोजित मुख्य व्यापार में भारत के कपड़े, सूती सामान और अन्य वस्त्र अन्य उत्पाद शामिल थे। पंजाबी समुदाय परिवहन, साहूकारी, सुरक्षा और अन्य सेवाओं में नियोजित था।

इस प्रकार, बड़ी संख्या में भारतीयों ने विभिन्न व्यवसायों को अपनाया और सरकारी कर्मकार तथा कुशल पेशेवर बन गए। 1920 से लेकर 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक की अवधि में फिजी में भारतीय डायस्पोरा समुदाय की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई और वे फिजी की कुल जनसंख्या के आधे (50%) से अधिक हो गए। इस समय तक फिजी में भारतीय समुदाय को अत्यधिक भेदभाव का सामना करना पड़ा, जिससे तंग आकर वे सुरक्षित स्थानों की ओर चले गए।

1970 के बाद फिजी में सामाजिक एकता- 1970 में फिजी स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सभी आप्रवासी भारतीयों ने फिजी की नागरिकता प्राप्त कर ली। लेकिन जिस भूमि पर वे काम करते थे, उस पर उन्हें अधिकार नहीं दिया गया।  उनके पट्टे को अगले 30 सालों के लिए नवीकृत कर दिया गया । इससे भारतीयों की स्थिति में गिरावट आ गई।

उनमें दीर्घकालीन सुरक्षा और अपनेपन की भावना का अभाव व्याप्त हो गया, लेकिन सत्येन्द्र पी. नन्दन के अनुसार, “सभी प्रकार की अड़चनों के बावजूद शिक्षा में इंडो-फिजियन की सफलता फिजी की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।” वर्तमान समय में, फिजी में भूमि पर 87% मलिकाना हक स्थानीय फिजियों के पास है। भारतीयों के पास 2% से भी कम भूमि है। 1970 में प्रदान किए गए पट्टों की अवधि की समाप्ति के बाद अधिकांश पट्टों का नवीनिकरण नहीं किया गया। स्थानीय फिजियों ने भारतीयों से काम करवाने की जगह खेत को खाली छोड़ देना बेहतर समझा। इससे पट्टाधारी भारतीयों की संख्या में काफी कमी आ गई।

1987 में तख्ता पलट के बाद बड़ी संख्या में लोग भारतीय लोग ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की ओर प्रवास कर गए। 1987 से लेकर 1990 के बीच लगभग 77,000 भारतीय फिजी छोड़कर ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की ओर प्रवास कर गए। मई 2000 में एक बार फिर तख्ता पलट की घटना हुई। इन घटनाओं के बावजूद फिजी में इंडो-फिजियन की संख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 42% है।

स्थानीय फिजियन और भारतीय डायस्पोरा समुदाय एक- दूसरे में घुल-मिल नहीं पाए हैं और दोनों अलग सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवेश में जी रहे हैं।  दोनों समुदायों को आपस में जोड़ने वाली कोई कड़ी नहीं है। सत्येन्द्र पी. नन्दन के शब्दों में, “फिजी की त्रासदी यह है रही कि फिजी के लोग और भारतीय लोग अलग-अलग सांस्कृतिक वातावरण में रहते हैं।

इसका आरंभ औपनिवेशीकरण प्रवास, बागान से हुआ और यह साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व एवं संस्थाओं, जैसे–अलग-अलग स्कूलों, पूजा स्थलों, जीवन शैलियों, गाँवों और कोरो, अलग-अलग संस्कारों, अनुष्ठानों एवं समारोहों, अलग-अलग भाषाओं और वास्तविकताओं के ज्ञान तक लगातार चलता रहा।”

फिजी में स्थायी रूप से रहने वाले इंडो- फिजियन ऐसे लोग हैं जो फिजी को ही अपनी मातृभूमि मानते हैं। यद्यपि उनमें से कुछ लोग प्रवास कर गए हैं, लेकिन उनकी आध्यात्मिक मातृभूमि फिजी ही है।

वे भारत को अपना पितृराष्ट्र मानने से इंकार करते हैं, जहाँ से वे प्रवास करके फिजी आए थे। उनकी स्थिति दुविधाग्रस्त है। इसके बावजूद वे एक राष्ट्र के रूप में फिजी के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं।

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