लांजाइनस ने उदात्त की परिभाषा नहीं दी है – उसे एक स्वतः स्पष्ट तथ्य मानकर छोड़ दिया है। उसका मत है कि उदात्तता साहित्य के सब गुणों में महान् है। यह वह गुण है जो अन्य क्षुद्र त्रुटियों के बावजूद साहित्य को सच्चे अर्थों में प्रभावपूर्ण बना देता है। उसकी दृष्टि व्यावहारिक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों प्रकार की थी, अतः उसने जहाँ एक ओर उदात्त के बहिरंग तत्त्वों की चर्चा की, वहाँ उसके अंतरंग तत्त्वों की ओर भी संकेत किया। उदात्त के इस विवेचन में उन्होंने पाँच तत्त्वों को आवश्यक ठहराया –
(1) महान् धारणाओं की क्षमता या विषय की गरिमा,
(2) भावावेश की तीव्रता,
(3) समुचित अलंकार-योजना,
(4) उत्कृष्ट भाषा तथा
(5) गरिमामय रचना-विधान। इनमें से प्रथम दो जन्मजात हैं, अत: उसके अंतरंग पक्ष के अन्तर्गत आते हैं, तो शेष तीन कलागत हैं और बहिरंग पक्ष के अन्तर्गत आते हैं।
(2) बहिरंग तत्त्व और
(3) विरोधी तत्त्व।
अन्तरंगतत्त्वः
1- उदात्त विचारया विषयकीगरिमाः उनके अनुसार उस कवि की कृति महान् नहीं हो सकती, जिसमें महान् धारणाओं की क्षमता नहीं है। कवि को महान् बनने के लिए अपनी आत्मा में उदात्त विचारों का पोषण करना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट लिखा है, ‘यह सम्भव नहीं है कि जीवनभर क्षुद्र उद्देश्यों और विचारों में ग्रस्त व्यक्ति कोई स्तुत्य एवं अमर रचना कर सके। महान् शब्द उन्हीं के मुख से निःसृत होते हैं, जिनके विचार गम्भीर और गहन हो।’
अरस्तू ने विषय को स्वतः साधय माना था। लांजाइनस उसे साधन मानते हैं। उनका मत है कि विषय के महत्त्व से काव्य में आनन्दातिरेक का तत्त्व आता है। उनके मतानुसार यद्यपि यह कार्य प्रतिभा द्वारा ही सिद्ध होता है, तथापि महान् कवियों की कृतियों का अनुशीलन भी सहायक हो सकता है। लांजाइनस प्राचीन कवियों का अन्धानुकरण नहीं चाहते; वे चाहते हैं कि कवि उनसे संस्कार ग्रहण करें, उनकी शक्ति प्राप्त करें।
2- भावोंकीउत्कटता: लांजाइनस प्रेरणा-प्रसूत भव्य आवेग को उदात्त का दूसरा तत्त्व मानते हैं। भव्य आवेग से उनका अभिप्राय ऐसे आवेग से है, जिसके परिणामस्वरूप हमारी आत्मा अपने आप ऊपर उठ कर मानो गर्व से उच्चाकाश में विचरण करने लगती है तथा हर्ष और उल्लास से भर जाती है। उन्होंने आवेग के दो भेद किये हैं-भव्य और निम्न। निम्न आवेग के अन्तर्गत वे उन आवेगों को लेते हैं जिनका सम्बन्ध दया, शोक, भय आदि से है।
भव्य आवेग से आत्मा का उत्कर्ष होता है, तो निम्न से अपकर्ष। उदात्त के लिए भवय आवेग को आवश्यक माना गया है। वह उसी को उदात्त कहते हैं जो अपनी ऊर्जा, उल्लास और संभ्रम आदि के सम्मिलित प्रभाव रूप ऐसी अनुभूति को जन्म दे, जो अन्ततः पाठक की सम्पूर्ण चेतना को अभिभूत कर सके।
बहिरंगतत्व :- लोजाइनस ने कलागत उदात्त के तीन तत्त्व माने हैं – 1. समुचित अलंकार योजना, 2. उत्कृष्ट भाषा, 3. गरिमामय रचना-विधान।
(1) समुचित अलंकारयोजना- अलंकारों का प्रयोग तो लांजाइनस वे५ युग में निर्बाध होता था, पर उसका मनोवैज्ञानिक आधार नहीं था। लांजाइनस ने उनका सम्बन्ध मनोविज्ञान से जोड़ा और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्यक्त करने के निमित्त की अलंकारों को उपयोगी ठहराया। केवल चमत्कार-प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग उन्हें मान्य न था। वह अलंकार को तभी उपयोगी मानते थे जब वह जहाँ प्रयुक्त हुआ है, वहाँ अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करें, लेखक के भावावेग से उत्पन्न हुआ हो, पाठक को आनन्द प्रदान करे, उसे केवल चमत्कृत न करे। अतः उनका अलंकार-संबंधी विवेचन अत्यन्त मार्मिक है। भव्य से भव्य अलंकार भी यदि स्थान, प्रसंग आदि के अनुरूप नहीं हैं, तो कविता-कामिनी का श्रृंगार न करके उसका बोझ बन जाएगा। वह साधन-मात्र है, अत: उसे प्रसंग का सहज अंग बनकर आना चाहिए। इस बात पर किसी का ध्यान न जाए कि वह अलंकार है। उन्होंने केवल उन्हीं अलंकारों का विवेचन किया है, जो शैली को उत्कर्ष प्रदान करते हैं। उन्होंने विस्तारणा, शपथोक्ति, प्रश्नालंकार, विपर्यय, व्यतिक्रम, पुनरावृत्ति, छिन्न-वाक्य, प्रत्यक्षीकरण, संचयन सार, रूप-परिवर्तन, पर्यायोक्ति आदि का विवेचन किया है।
(2) उत्कृष्टभाषा- उत्कृष्ट भाषा के अन्तर्गत लांजाइनस ने शब्द-चयन और भाषा की सज्जा को लिया है। उन्होंने विचार और पद-विन्यास को एक दूसरे के आश्रित माना है, अतः सहज ही निष्कर्ष निकल आता है कि उदात्त विचार क्षुद्र या साधारण शब्दावली द्वारा अभिव्यक्त न होकर गरिमामयी भाषा में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। भाषा की गरिमा का मूल आधार है शब्द-सौन्दर्य अर्थात् उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। सुन्दर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं। शब्द -विन्यास के दो पक्ष होते हैं-धवनि-पक्ष और अर्थ-पक्षा लांजाइनस ने दोनों पक्षों पर समुचित ध्यान दिया है।
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