यात्रवृत्त अथवा यात्रा-वृत्तांत का तात्पर्य है, किसी देश, प्रदेश,भू-भाग अथवा स्थान आदि की यात्रा का वृत्तांत । यो ‘यात्रा’ शब्द का कभी अर्थ था- “जीतने की इच्छा से राजाओं का जाना, धावा बोलना या देवता के उद्देश्य से एक प्रकार का उत्सव।” (पदमचंद्र कोश) इसी तरह के अर्थ नगेन्द्र नाथ बसु ने दिए हैं- “विजय की इच्छा से कहीं जाना, चढ़ाई, पर्याय, प्रस्थान, गमन, गम, प्रस्थिति। दर्शनार्थ देवस्थानों को जाना, तीर्थाटन एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने की क्रिया आदि।
” (हिंदी विश्वकोश) वास्तव में आज “यात्रा” का सामान्य अर्थ है एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ज्ञानार्जन, व्यापार, मनोरंजन, धर्मसाधना एवं युद्ध आदि की भावना से प्रेरित होकर यह क्रिया (यात्रा) की जाती है। संचरणशीलता यात्रा का प्रमुख लक्षण है।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध यात्रा-साहित्य लिखने वालों ने भी यात्रा के संबंध में कुछ न कुछ कहा है। राहुल सांकृत्यायन कहते हैं “जिसने एक बार घुमक्कड़ धर्म अपना लिया, उस पेंशन कहां उसे विश्राम कहां? आखिर में हड्डियां कटते ही बिखर जायेंगी।” देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार, “मेरा पथ मेरे सामने है। मैं जीवित मानव का पक्ष लेता हूं… जीवन आज उसी यात्रा के लिए आह्वान कर रहा भारतेन्दु पूर्व से लेकर भारतेन्दु युग तक की परम्परा, द्विवेदी युग के अंतिम चरण से लेकर आज तक की परंपरा आदि के द्वारा यात्रा वर्णन को दो भागों में बाँटा गया है।
यात्रोपयोगी होने के कारण भारतेन्दु युग के वर्णनों में साहित्यिकता कम होती थी तथा धार्मिकता या भौगोलिकता के कारण यायावरी भी उनमें नहीं मिलती। यात्रा साहित्य का उद्भव और विकास शोध प्रबंध विवरण के आधार पर डॉ. सुरेन्द्रकुमार के प्रमुख ग्रंथ हैं |
“बिट्ठलजी की वन यात्रा, जीमनजी की माँ की वन यात्रा, किसी अज्ञात व्यक्ति सेठ पद्मसिंह की यात्रा किसी अज्ञान व्यक्ति की बात, दूर देश की श्रीमती बख्तावर सिंह की बद्री यात्रा कथा, रामसहाय की यात्रा परिक्रमा, भारतेन्दु बाबू के पाँच यात्रा-विषयक निबंध, प्रतापनारायण मिश्र तथा बालकृष्ण भट्ट के यात्रा संबंधी निबंध, भगवतीचरण वर्मा, दामोदर शास्त्री, तोताराम वर्मा, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक (मेरी जर्मन यात्रा, यूरोप की सुखद स्मृतियाँ ज्ञान के उद्यान में नई दुनिया के मेरे अद्भुत संस्मरण, शिवप्रसाद गुप्त (पृथ्वी प्रदक्षिणा) तथा गोपालराम गहमरी की यात्रा-विषयक रचनाएँ आदि हैं।
सच्चे अर्थों में यात्रा साहित्य के अंतर्गत वर्तमान काल में द्विवेदी युग की रचनाएँ आती हैं। उनमें किसी दृश्य, स्थान अथवा •व्यक्ति के आकर्षण को उभारने की प्रवृत्ति उनमें मिलती है।
यायावरी को उभारने का भी किसी लेखक ने प्रयत्न किया है। रामनारायण मिश्र (यूरोप छः मास), कन्हैयालाल मिश्र (हमारी जापान यात्रा), प्रो. मनोरंजन (उत्तराखण्ड के पथ पर), जवाहरलाल नेहरू (आँखों देखा रूस), सेठ गोविन्ददास (सुदूर दक्षिण पूर्व, पृथ्वी परिक्रमा), सूर्यनारायण व्यास (सागर प्रवास), रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (देश- विदेश मेरी यात्राएँ), यशपाल जैन (जय अमरनाथ उत्तराखण्ड के पथ पर), भुवनेश्वर प्रसाद ‘भुवन’
(आँखों देखा यूरोप), विष्णु प्रभाकर (हँसते निर्झर), राहुल सांकृत्यायन (घुमक्कड़ शास्त्र, मेरी लद्दाख यात्रा, लंका-तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी यूरोप यात्रा, जापान, ईरान, रूस में पच्चीस वर्ष, यात्रा के पन्ने, यात्रावली तथा एशिया के दुर्गम खण्डों में) भगवतशरण उपाध्याय
( वो दुनियाँ, लाल चीन, कलकत्ते से पीकिंग, सागर की लहरों पर तथा गंगा गोदावरी), अमृतराय (सुबह के रंग), रांगेय राघव (तूफानों के बीच), अज्ञेय (अरे यायावर रहेगा याद तथा एक बूंद सहसा उछली), यशपाल (लोहे की दीवार के दोनों ओर तथा राह बीती), रामवृक्ष बेनीपुरी (पैरों में पंख बाँधकर, हवा पर तथा पेरिस नहीं भूलती), मोहन राकेश (आखिरी चट्टान तक), देवेश दास (यूरोप तथा रजवाड़े) आदि प्रमुख लेखक और उनकी रचनाएँ हैं।
सत्यनारायण (आवारे की यूरोप यात्रा, युद्ध यात्रा) शिवनन्दन । सहाय, गोपाल नेवटिया, जगदीशचंद्र जैन, काका कालेकर तथा हंस कुमार के वरिष्ठ साहित्यकार तंत्र लोक से यंत्र लोक तक और अप्रवासी की यात्राएँ, दो यात्रा संग्रह आदि प्रकाशित हुए। उपर्युक्त प्रमुख यात्रा-वृत्तों के अतिरिक्त राहुल सांकृत्यायन का वृत्त जीवंत, हृदयाकर्षक एवं रोचक है। इनकी यात्राएं अधिकांशतः चीन-तिब्बत आदि से संबद्ध हैं।
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