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भारतीय इतिहास पर औपनिवेशिक इतिटास-लेखन पर एक टिप्पणी लिखिए।

 औपनिवेशिक भारत के विषय में लिखे गए इतिहासकारों की सभी कृतियाँ इतिहास-लेखन की उपनिवेशवादी स्कूल को प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, क्योंकि 19वीं शताब्दी तथा 20वीं शताब्दी के आरम्भ में उपनिवेशवादी स्कूल के भीतर विभिन्न दृष्टिकोण और व्याख्यात्मक ढाँचे का विकास हुआ था। इन विशिष्टताओं के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है। आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठ मानना भारत का प्राच्यवादी प्रतिनिधित्व आम बात थी। एडवर्ड सईद तथा अन्य लोगों के द्वारा हाल ही में इस विषय को उजागर किया गया है। लेकिन भारतीय राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी वर्ग के द्वारा इसे बहुत पहले समझ लिया गया था तथा जेम्स मिल के समय से बाट में होने वाले ब्रिटिश लेखन में उभरी इस प्रवृत्ति की आलोचना की गई थी। आमतौर पर यह बात ऐतिहासिक आख्यानों में बलपूर्वक कहा जाता रहा है कि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत बहुत सारे खण्डों में विभाजित था,  जिसके साथ यह अभिधारणा भी विकसित हुई कि अंग्रेजों के आने से पूर्व भारत अव्यवस्था तथा बर्बरता के अंधेरे में डूबा हुआ था तथा अठारहवीं शताब्दी भारत में एक अंधेरी शताब्दी थी।

कई ब्रिटिश इतिहासकारों के द्वारा 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के विषय में सामाजिक डार्विनवादी अवधारणा का विकास किया गया था। इसके अनुसार इतिहास विभिन्न लोगों और संस्कृतियों के बीच होने वाले संघर्ष की गाथा है, जिसमें विभिन्न प्रजातियाँ आपस में लड़ती हैं तथा जीत शक्तिशाली की होती है, जिसमें शासन करने की अच्छी क्षमता होती है वही शासन करता है तथा ब्रिटेन शिखर पर है तथा वह औरों से उच्चतर है, इसी कारण शासन में सर्वाधिक सक्षम है। अनेक अंग्रेजों विद्वानों की यह मान्यता थी कि भारत एक ठहरा हुआ समाज था। इसका विकास अवरुद्ध हो गया था। इसी कारण अंग्रेजी शासन द्वारा दिखाए गए प्रगति के पथ पर चलकर ही उन्नति कर सकता है। भारत को पैक्स ब्रिटानिका की राह अपनानी होगी अर्थात पूर्ण रूप से इंग्लैंड की नकल करनी होगी। ऐतिहासिक आख्यानों में भारत के अंग्रेजी शासकों और साम्राज्य निर्माताओं की वीरता, नायकत्व और महानता को किंवदंती के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसका साम्राज्यवाद के साथ मेल बैठता था।

एरिक स्टोक्स के अनुसार भारत के विषय में अंग्रेजों ने जो कुछ लिखा उसमें नायक के रूप में अंग्रेज हैं जबकि पूरा देश और उसकी जनता की उपेक्षा की गई है। स्वाभाविक रूप में उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आलोचना हुई है, क्योंकि यह मान किया गया था कि भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए यह अच्छे कार्य को भी समाप्त कर देगी। यह आन्दोलन जैसे-जैसे तेज होता गया दृष्टिकोण भी वैसे-वैसे जटिल होता चला गया। कु. इतिहासकार सीधी टक्कर की मुद्रा में थे, जबकि कुछ के द्वारा नरमी से काम किया गया था तथा भारतीय राष्ट्रवाद में खामियों को निकाला गया। उपनिवेशवादी इतिहासकारों के विमर्श में सामान्य रूप में यह कुछ सामान्य विशेषताएँ और दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। लेकिन इस बात की अनदेखी करनी मुश्किल है कि 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इतिहास-लेखन की परम्परा ने इन लक्षणों पर कुछ हद तक विजय प्राप्त कर ली थी या फिर कम से कम ज्यादा परिष्कृत हो गई थी।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन भारत पर ब्रिटिश शासन को वैध ठहराने तथा सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए इतिहास को इस साधन के रूप में इस्तेमाल करने के सैद्धान्तिक प्रयास का एक हिस्सा था। उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन की परम्परा में एक आधारभूत विचार यह भी समादूत था कि भारत जैसा पिछड़ा साम्राज्यी छत्रछाया में आधुनिक यूरोपीय और नागरिक समाज की तर्ज पर प्रगति कर सकता है। अंग्रेज प्रशासकों के निर्देशन में ही यह संभव है। शिक्षा धीरे-धीरे समाज के निचले तबकों में भी रिसेगी। भारतीयों को अंग्रेजों द्वारा बनाई संस्था और कानून का पालन करना चाहिए तथा राष्ट्रवाद द्वारा फैलाई जा रही गड़बड़ियों का विरोध करते हुए ब्रिटेन के प्रति पूरी तरह निष्ठावान होना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर भारत की प्रगति धीमी हो जाएगी। कई बार इसे ब्रिटेन के सिविलाइजेशन के मिशन रूप में पेश किया गया।

प्रश्न यह उठता है कि इस इतिहास-लेखन में उपनिवेशवादी स्कूल के बौद्धिक तत्त्व क्या थे। बेंथमवादी या उपयोगितावादी राजनीतिक दर्शन के अनुसार ब्रिटेन की भूमिका एक ऐसे अभिभावक की होनी चाहिए, जिसके संरक्षण में एक पिछड़े हुए शिष्य की परवरिश संभव हो। यह भी कहा जाता है कि यूरोपीय या गैर यूरोपीय सभी लोगों को जेरेमी बेंथम की दृष्टि से देखा करता था। यह बात आंशिक रूप में सही भी है। लेकिन भारत जैसे देश में इस दृष्टिकोण को स्पष्ट अभिव्यक्ति प्राप्त हुई थी तथा इसकी कार्यवाही भी साफ नजर आ रही थी। सामाजिक डार्विनवाद उपनिवेशवादी इतिहासकारों की प्रेरणा का एक अन्य स्रोत था। इससे इस धारणा को वैज्ञानिक आधार प्राप्त करने का एहसास कराया गया कि भारत के लोग उनसे बहुत नीचे हैं। उनका यह भी कहना था कि वह एक ठहरी हुई सभ्यता के शिकार हैं और डार्विन के नियतिवाद का यह अवश्यंभावी परिणाम है तथा इसका कुछ भी नहीं किया जा सकर इन लेखकों पर हरबर्ट स्पेन्सर का भी प्रभाव पड़ा। उनके द्वारा यूरोपीय उत्कर्ष की एक विकासात्मक योजना प्रस्तुत की गई तथा अपनी तुलनात्मक के माध्यम से उसने उच्च यूरोपीय स्तर का मानदण्ड स्थापित करते हुए विभिन्न देशों और संस्कृतियों के विकास में अन्तर स्पष्ट किया।

यूरोपियों के बीच में यह एक आम धारणा थी कि गैर-यूरोपीय समाज इसी विकासपथ को अपनाएँ तथा इसमें यूरोपीय साम्राज्य शक्तियों की मदद की भी आवश्यकता होगी। इस प्रकार की सोच मात्र ब्रिटिश भारतीय इतिहासकारों की नहीं थी। जब मध्य विक्टोरियन साम्राज्यवाद अपने उत्कर्ष पर था तो उस समय अंग्रेजों ने खुलकर यह विचार व्यक्त किया था। बाद में यह विचार छिपे रूप में व्यक्त होने लगे। 1870 के दशक में फिटजेम्स स्टीफेन ने जंगलीपन और बर्बरता बनाम ब्रिटिश युद्धकारी सभ्यता की चर्चा की।  1920 के दशक में डेविड डॉडवेल की आवाज थोड़ी कम हो गई थी तथा उनका स्वर निराशा भरा था जब उन्होंने कहा कि भारत में अंग्रेज एक अविराम प्रयास में लगे थे, जिसमें मानवता के विशाल जन समूह को ऊँचे स्तर पर उठाना था तथा यह जन समूह बार-बार अपने पुराने रूप में लौट जाता था। वैसे ही जैसे एक पत्थर को सरियों की मदद से आप हटाना चाहते हों फिर वह अपने स्थान पर वापस लुढ़ककर आ जाता हो।

ब्रिटिश भारत सरकार के कुछ अंग्रेज अधिकारी जैसे थॉमस मुनरो और चार्ल्स ट्रवेलियन को भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति थी जबकि वह भी विदेशी और शासक सत्ता के अंग थे, इससे प्रतीत होता है कि सभी इतिहासकारों तथा लेखकों को भारत विरोधी नहीं माना जा सकता है। कुछ ब्रिटिश अधिकारी और मिशनरी जैसे रेनेसां इन इंडिया, (1925) के लेखक सी.एफ. एन्ड्रज तथा भारतीय सिविल सेवा तथा बाद में इंगलैंड में लेबर पार्टी के सदस्य गैरेट तथा भारतीय पुलिस सेवा के जॉर्ज आरवेल साम्राज्य के प्रखर आलोचक थे। कई इतिहासकारों के द्वारा भी साम्राज्य की आलोचना की गई, लेकिन ब्रिटिश राज्य के पदाधिकारयों की सामान्य सोच में कुछ व्यक्तियों की सोच फीकी पड़ गई।  साम्राज्यी शक्ति को मजबूत बनाने वाले विचारों को सरकार का समर्थन और सहायता मिलती थी तथा औपचारिक या अनौपचारिक रूप में इसके विपरीत खड़े व्यक्ति को अपने साथी और समूह की आलोचना सहनी पड़ती थी।

हमने उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन की चर्चा तो की है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि यह सभी इतिहासकारों पर समान रूप से लागू हो। इस प्रकार की योग्यता इतिहास-लेखन के संदर्भ में आवश्यक होती है, क्योंकि यहाँ पर इतिहास के विद्यार्थी को सामान्यीकरण की सीमा का निर्धारण करते हुए खुद फैसला लेना होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रिटिश भारत में इतिहास-लेखन में उपनिवेशवादी स्कूल के वर्चस्व के बावजूद भारत के आरम्भिक ब्रिटिश इतिहासकारों के कुछ सरकारात्मक योगदान भी रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपनिवेशवादी इतिहासकारों के द्वारा आधुनिक यूरोप में इतिहास-लेखन की प्रवृत्ति के आधार पर भारत में इतिहास-लेखन की परम्परा की शुरुआत हुई। इसके अतिरिक्त एशियाटिक सोसाइटी एड आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जैसी संस्थाओं का निर्माण कर भारतीय इतिहासकारों को एक नया रास्ता दिखाया तथा शैक्षिक अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त किया।

जातीय और राज्यवादी पूर्वाग्रह के बावजूद ब्रिटिश उपनिवेशवादी इतिहासकारों द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़े और दस्तावेजों को संगृहीत करने का प्रचलन एक प्रमुख स्रोत के रूप में एकत्रित होता चला गया। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कलकत्ता, बम्बई, मद्रास (1857 1858) में तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना के परिणामस्वरूप इतिहास के अध्ययन की शुरुआत हुई, इसका प्रभाव दूरगामी हुआ। जो इतिहास औपनिवेशिक युग में पढ़ाया गया उसमें साम्राज्यी पूर्वाग्रह स्पष्ट था। जो पाठ्य पुस्तकें लिखी गईं वह औपनिवेशिक इतिहास-लेखन से जुड़े स्कूल के अनुसार थीं। लेकिन इसके बाद भी इसके कुछ सकारात्मक प्रभाव देखने को मिले। पहला यह कि जेम्स मिल या एलफिन्सटन के भारत के इतिहास के साथ-साथ भारतीय विद्यार्थियों ने यूरोप और इंग्लैंड का इतिहास भी पढ़ा तथा इस प्रकार शिक्षित भारतीयों के दिमाग में स्वतंत्रता, आजादी, प्रजातंत्र तथा सफलता जैसे विचारों का बीजारोपण हुआ, जिसका जिक्र यूरोपीय इतिहास में देखने को मिलता है।

मैगनाकार्टा, ग्लोरियस रिवॉल्यूशन, अमेरिकी आजादी की लड़ाई, मेजनी और गैरिबाल्डी के संघर्ष आदि प्रमाण के रूप में उपस्थित थे। भारत में राष्ट्रवाद के विकास के आरम्भिक उदारवाद के चरण से परिचित विद्यार्थी को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जाएगी कि इतिहास के इन पथों से गुजरते हुए किस प्रकार के विचार ग्रहण किए गए होंगे। इसका दूसरा परिणाम यह था कि पूरी तरह से प्रवीण और प्रशिक्षित भारतीय इतिहासकारों के द्वारा इतिहास-लेखन की शुरुआत हुई। आधुनिक तर्ज पर दस्तावेजी अनुसंधान के आधार पर इतिहास-लेखन और विद्वतापूर्ण कर्म पर पेशेवर ब्रिटिश इतिहासकारों का ही एकाधिकार नहीं रहा। पेशेवर रूप में प्रशिक्षित भारतीयों के द्वारा अनुसंधान की शुरुआत की गई। इसकी शुरुआत एशियाटिक सोसाएटी जैसे विद्वत संगठनों से और बाद में कालेज और विश्वविद्यालयों तथा सरकारी शिक्षा सेवाओं तथा विशेष रूप में भारतीय शिक्षा में उनके प्रवेश से होने लगी।

भारतीय विद्यार्थियों को 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश पदाधिकारी इतिहासकारों की लिखी पुस्तकें पढ़नी पड़ी, जिससे उनमें इस तरह के इतिहास-लेखन के प्रति एक आलोचनात्मक भावना उत्पन्न होना, तीसरी महत्त्वपूर्ण बात थी। बंकिम चन्द्र चटर्जी जो भारतीय विश्वविद्यालय के पहले स्नातक थे, ने लगातार ब्रिटिश व्याख्या का विरोध करते हुए यह प्रश्न खड़ा किया कि कब हमारे द्वारा अपना इतिहास लिखा जाएगा। यह बात रविन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा और भी स्पष्टता के साथ कही गई।  उनके द्वारा लिखा गया कि दूसरे देशों में इतिहास अपने देश की जनता को अपने देश के विषय में बताता है जबकि भारत का इतिहास अंग्रेज लिख रहे हैं तथा उनकी दृष्टि से हम भारत को देख रहे हैं। अपने इतिहास में हम भारत माता का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं। भारत में बुद्धिजीवियों की यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी तथा परिणामस्वरूप कुछ महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादियों द्वारा भारत का नया इतिहास लिखा गया।

इस तरह भारतीय इतिहास की राष्ट्रवादी व्याख्या उभरकर सामने आई और ब्रिटिश इतिहास-लेखन का वर्चस्व समाप्त हुआ। इतिहास-लेखन राष्ट्रीय अस्मिता की चेतना के निर्णय का एक प्रमुख साधन बन गया। बीसवीं शताब्दी के पहले दो या तीन दशकों में इतिहास-लेखन की दिशा में नई प्रवृत्ति का विकास हुआ तथा आर्थिक विकास की दिशा में नई खोजों की शुरुआत हुई। इसके पहले भी कई ब्रिटिश पदाधिकारियों के द्वारा आर्थिक दस्तावेजों की जाँच की गई थी और कृषि सम्बन्धों और कृषि इतिहास के सम्बन्ध में कुछ सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे।

जिलाधिकारी या समाहर्ता के रूप में लगान के बन्दोबस्त अर्थात कृषि आय पर कर का निर्धारण करते समय, जिससे कि सरकार द्वारा लगान वसूल किया जा सके, उनके द्वारा ये दस्तावेज जुटाए गए। बाद के आर्थिक इतिहासकारों के द्वारा इन्हीं दस्तावेजों तथा आंकड़ों को आकलन का आधार बनाया गया। इन पदाधिकारियों में कुछ इतिहासकार के रूप में भी उभरकर सामने आए। इनके द्वारा जो भी इतिहास लिखा गया उसमें भारतीय आर्थिक और सामाजिक दशा की कोई चर्चा नहीं की गई है तथा न ही भारत के लोग इसमें कहीं नजर आते हैं। यह इतिहास भारत में अंग्रेज सैनिकों और प्रशासनिक अधिकारियों के योगदान का लेखा-जोखा है।।

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