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'तिरिछ' कहानी का उद्देश्य ।

 ‘तिरिछ’ कहानी का आधार है एक लोक-प्रचलित विश्वास । इस विश्वास के अनुसार तिरिछ एक ऐसा विषैला जन्तु है, जिसके काटने से मनुष्य की मृत्यु अवश्यंभावी है । लोकमानस में तिरिछ को लेकर कई विश्वास प्रचलित हैं एक तो यह कि जैसे ही वह आदमी को काटता है, वैसे ही वह वहाँ से भागकर किसी जगह पेशाब करता है और उस पेशाब में लोट जाता है । अगर तिरिछ ने ऐसा कर लिया, तो आदमी बच नहीं सकता । अगर उसे बचना है, तो तिरिछ के पेशाब में लोटने के पहले ही खुद किसी नदी, कुएँ या तालाब में डुबकी लगा लेनी चाहिए या एक तिरिछ के ऐसा करने से पहले ही उसे मार देना चाहिए ।’ 

‘दूसरी बात यह है कि तिरिछ काटने के लिए तभी दौड़ता है, जब उससे नजर टकरा जाए । अगर तिरिछ को देखो, तो उससे कभी आँख मत मिलाओ । आँखें मिलते ही वह आदमी की गंध पहचान लेता है और फिर पीछे लग जाता है । फिर तो आदमी चाहे पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा ले, तिरिछ पीछे-पीछे आता है ।’

तिरिछ के विषय में एक और विश्वास का जिक्र कहानी में आता है- ‘बहुत-से कीड़े-मकोड़े और जीव-जंतु चंद्रमा की रोशनी में दुबारा जी उठते हैं, चाँदनी में जो ओस और शीत होती है, उसमें अमृत होता है और कई बार ऐसा देखा गया है कि जिस साँप को मरा हुआ समझकर रात में यों ही फेंक दिया जाता है, उसका शरीर चाँद की शीत में भीगकर दुबारा जी उठता है और वह भाग जाता है, फिर वह हमेशा बदला लेने की ताक में रहता है। तिरिछ’ कहानी में लेखक का उद्देश्य शहरी समाज की संवेदनहीनता और अमानवीयता का उद्घाटन करना है । आज जब हमारे मानवीय संबंधों की परिधि लगातार सीमित होती जा रही है, तब ऐसे में लोगों की सोच में भी एक तरह का संकोच विकसित होना स्वाभाविक है।

शहरी जीवन की आपाधापी में तो दूसरों के दुःख-दर्द, हैरानी-परेशानी की तरफ नजर उठाकर देखने से लगता है कि किसी को फुर्सत ही नहीं है । मनुष्य आत्मकेंद्रित हो गया है । ऐसी स्थिति में अपने परिवेश से वह अलग-थलग सा पड़ गया है । उसके आस-पास के जीवन में क्या कुछ घटित हो रहा है या तो वह उससे अनभिज्ञ रहता है अथवा तटस्थ । उस घटना में वह किसी तरह के हस्तक्षेप या संलग्नता से – को बचाता है । वह केवल यह बताना चाहता है कि शहर में संवेदनशीलता का हास बहुत तेजी से हो रहा है । कहानी में लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि तिरिछ का काटा मनुष्य बच भी जाए, किन्तु शहर की संवेदनहीनता से वह नहीं बच सकता । वह तिरिछ के जहर से ज्यादा खतरनाक या कहें जानलेवा होता है |

गाँव के सीधे-सादे व्यक्ति के लिए शहर एक अबूझ पहेली जैसा है या कि भूलभुलैया, जिससे निकलना ऐसे व्यक्ति के लिए बहुत कठिन होता है ।  ‘तिरिछ’ में ‘पिता’ को शहर इतना आतंकित करता है कि वे शहर जाने से बार-बार कतराते हैं, न जाने के बहाने ढूँढते हैं । जैसे तिरिछ के जहर की व्याप्ति पूरे शरीर में होती है और व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसी तरह शहर आधुनिकता के विभिन्न उपकरणों के माध्यम से अपने आप तक सीमित न रहकर सम्पूर्ण व्यक्ति की ओर बढ़ रहा है । इस कहानी के माध्यम से लेखक परम्परा और आधुनिकता, पुराने और नए मूल्य-बोध को चित्रित करना चाहता है। लोक-प्रचलित विश्वास से लिया गया तिरिछ का प्रतीक कितना प्रासंगिक है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि आधुनिकीकरण और नगरीकरण ने पुराने जीवन-मूल्यों को ग्रस लिया है,

वे मूल्य जो नितांत मानीवय प्रकृति थे, हमारे जीवन के लिए मूल्यवान, सारगर्भित और अनिवार्य थे । इनके स्थान पर अनेक विकृतियाँ व्याप्त हो गई हैं, जिनसे समूचा मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ गया है । यह तिरिछ के जहर की भांति समाज में फैल रहा है, जिसका परिणाम निश्चित रूप से भयंकर होगा। ‘तिरिछ’ कहानी में इसे प्रतीकात्मक ढंग से दिखाने की कोशिश की गई है । तिरिछ कहानी का पिता दूषित शहरी वातावरण में अदाल. विभिन्न कार्यालयों, बैंकों आदि के अनेक चक्कर लगाते हुए अत्यन्त सांकेतिक ढंग से सामाजिक विकृतियों और विडम्बनाओं का उद्घाटन करता है।

कहानी शहरों में रहने वालों की इस दूषित, अमानवीय संवेदनाशून्य मानसिकता का चित्रण छोटे-छोटे प्रसंगों द्वारा करती है-बैंक, अदालत, पुलिस, मुहल्ले के पढ़े-लिखे लोग, शरारती बच्चों द्वारा पिता को पागल समझ कर उसको ईंट-पत्थरों से मारना, उसका शरीर जख्मी होने पर भी उसको अस्पताल न ले जाना, पत्रकार तथा कवि कहे जाने वाले व्यक्ति का अमरीकी दूतावास में संगीत कार्यक्रम में भाग लेने के उतावलेपन में बूढ़े, दीन, क्षत-विक्षत व्यक्ति के प्रति उदासीनता ऐसे ही प्रसंग हैं । 

अग्निहोत्री का यह कथन सरासर झूठ है क्योंकि बूढ़ा, दुर्बल शरीर, थका-माँदा, बेबस, शक्ल से दीन-हीन लगने वाला आतंकवादी नहीं दिख सकता । कैशियर उसकी बेचारगी, बेबसी पर तरस खाने की बजाय, उसकी उपेक्षा या तिरस्कार कर रहा है ।  इतवारी कॉलोनी के लड़के उस पर पत्थर मारते हैं | चोट इतनी गहरी है कि खून रिस-रिस कर आंखों पर आने लगता है | यह शहर की युवा पीढ़ी की अराजकता, उदंडता, उच्छृखंलता, हिंसक वृत्ति तथा बड़े-बूढ़ों के प्रति घृणा, तिरस्कार, अपमान की भावना का द्योतक है ।

उसी कॉलोनी में रहने वाले रिटायर्ड तहसीलदार सोनी साहब और शहर के विख्यात पत्रकार एवं कवि सत्येन्द्र का व्यवहार भी पढ़े-लिखे, स्वयं को सभ्य, सम्भ्रांत, शालीन,बुद्धिजीवी मानने वाले की अमानवीयता का उदाहरण है | कवि महोदय को दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास में संगीत-सभा में जाकर संगीत का आनन्द लेना ज्यादा ज़रूरी है, किसी असहाय, बूढ़े, दीन-हीन के प्राणों को बचाना उनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता। उनमें न कवि-हृदय की संवेदनशीलता है और न वह पत्रकार होने का दायित्व या कर्त्तव्यनिष्ठा ही दिखाते हैं । लगता है कि उनके शरीर में हृदय जैसी वस्तु है ही नहीं । “सिर चढ़ी रही पाया न हृदय’ वाली पंक्ति उन पर चरितार्थ होती है ।

शहर के लोग इतने व्यस्त, आत्मकेन्द्रित तथा भाग-दौड़ की जिन्दगी में लिप्त हैं कि कोई भी राहगीर बूढ़े पिता द्वारा अदालत का पता पूछने पर या तो चुप रहकर तेजी से आगे निकल जाते थे या हड़बड़ी में कुछ बताते भी, तो इस प्रकार कि उनकी बात को समझना पिता के लिए दुष्कर था। होटल में काम करने वाला नौकर उनके पानी मांगने पर उन्हें गालियां देता है, दुत्कार कर अपना रास्ता देखने की झिड़की देता है।  ये सब तो खैर अपरिचित थे । स्चयं पुत्र का पिता के प्रति व्यवहार भी पुराने मूल्यों से ध्वस्त होने तथा इन्सान के हैवान बनने का संकेत देता है ।

कहानी का वाचक अपने पिता के त्रासद अंत का जिस तटस्थता, निरपेक्षता से वर्णन करता है, पिता की मौत पर राहत की सांस लेता है, जो बचपन में पिता के वात्सल्य और पालन-पोषण की स्मृति भी दिमाग के कोने में बसाये हुए है, उससे पता चलता है कि मानवता सर्वत्र नष्ट हो गयी है, केवल स्वार्थ पूर्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय रह गयी है । बचपन में पिता की उपस्थिति एक कवच की तरह थी, जिसके रहते संतान निद्वंद्व होकर खेलती-कूदती और गहरी नींद सोती है। बचपन की अनुभूति है, जिसमें आत्मीयता व मानवीय संवेदना का बहुत कुछ अंश विद्यमान दिखायी देता है । वह पूरी तरह अविश्वसनीय लगते हुए भी हमारे सामाजिक यथार्थ से ही जुड़ा हुआ है। अराजक पीढ़ी की विद्रूप मानसिकता के संदर्भ में इसे रखकर विचार करें, तो बात साफ हो जाती है |

आत्मीयता एवं सहानुभूति नितांत मानवीय मूल्य हैं और हमारे संबंधों को स्वस्थ एवं सजीव बनाते हैं पिता की ऐसी दर्दनाक मृत्यु पर पुत्र को राहत महसूस होना स्वस्थ आत्म्य संबंध को रेखांकित नहीं करता । इस आत्मीयता का यदि लोप हुआ है या उसमें कमी दिखाई देती है, तो उसके कारण हमारे सामाजिक-राजनैतिक ढाँचे में ही मिल जाएंगे। 

‘तिरिछ’ की लाश चट्टान से जरा हटकर जमीन पर, घास के ऊपर चित पड़ी हुई थी। बिल्कुल, यह वही तिरिछ था । मेरे भीतर हिंसा, उत्तेजना और खुशी की एक सनसनी दौड़ रही थी। कहानी में तिरिछ आतंक का पर्याय बनकर उभरा है । यह आतंक शहरी आधुनिकता एवं जीवन-दृष्टि का हो सकता है और सत्ता की निरंकुशता का भी । इस कहानी के कई पाट किए जा सकते हैं और ये भिन्न-भिन्न पाट अपना अलग-अलग अर्थ-संकेत छोड़ते हैं। कहानी को अच्छी तरह समझने के लिए इसकी पाठ-प्रक्रिया के स्तरों की पहचान आवश्यक है | इसी अन्वेषण में इसके यथार्थ की प्रासंगिकता निहित है | 

कहानी में एक तरफ आतंक और यंत्रणा से उपजी बेचैनी, तनाव और असहायता का भाव निहित है, तो दूसरी ओर शहरी या कहें आधुनिक मनुष्य की संवेदनहीनता और अमानवीयता छिपी हुई है । आधुनिकता का सबसे ज्यादा प्रभाव शहरों पर पड़ा है और मूल्यों का संक्रमण यहीं सर्वाधिक दृष्टिगोचर होता है । परम्परा और आधुनिकता अथवा पुराने और नए द्वंद्व से जहाँ नवीन भावबोध का सृजन हुआ, वहीं कुछ विकृतियों ने भी जन्म लिया। ये विकृतियाँ मूलतः और सापेक्षिक रूप से मानव-विरोधी थीं। समाज की आधारभूत इकाई परिवार को ही देखें, तो संयुक्त परिवार में टूटने आधुनिक जीवन स्थितियों का परिणाम या अनिवार्यता तो है, किन्तु इससे मानवीय संबंधों को जो आघात लगा, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए कोई विकल्प हमारे समाने मौजूद नहीं है ।

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