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'सबाल्टर्न' शब्द से आप कया समझते हैं? भारत में स़ब्ाल्टर्न अध्ययन के दो चरणों की बिवेचना कीजिए।

 निम्नवर्गीय प्रसंग के प्रणेताओं के द्वारा इसे भारतीय इतिहास-लेखन के क्षेत्र में एक नई विचारधारा के रूप में स्थापित किया गया। इससे सम्बन्धित कुछ इतिहासकारों ने इसे भारतीय इतिहास-लेखन की परम्परा में एक नई शुरुआत की संज्ञा प्रदान की। भारतीय इतिहास-लेखन की परम्परा से असंतुष्ट लेखकों ने सामूहिक रूप से कुछ खंडों का प्रकाशन किया। हालांकि इसमें कुछ निम्नवर्गीय प्रसंग से सामूहिक रूप में और औपचारिक रूप से नहीं जुड़े रहने के बाद भी कुछ इतिहासकारों और अन्य सामाजिक विज्ञानियों ने भी अपना योगदान दिया। निम्नवर्गीय प्रसंग की पुस्तकों में लेखों के प्रकाशन के साथ-साथ इन लेखकों ने कई अन्य पत्रिकाओं और संपादित पुस्तकों में भी अपने आलेख लिखे और पुस्तिकाएँ प्रकाशित की, जिसे आज निम्नवर्गीय प्रसंग के विषयों और प्रविधियों से जोड़कर देखा जाता है। रंजीत गुहा का कहना है कि इसे हाशिए के शिक्षाविदों की मदद से शुरू किए गए निम्नवर्गीय प्रसंग ने जल्द ही भारत के भीतर और बाहर ख्याति अर्जित की और निम्नवर्गीय प्रसंग के विषयों पर गहन अनुसंधान शरू किया।

आरंभ में तीन खंड निकालने की योजना थी, अब इसके तहत बतौर परियोजना ग्यारह खंड प्रकाशित हो चुके हैं। इन खंडों के अतिरिक्त रंजीत गुहा ने अन्तर्राष्ट्रीय पाठकों के लिए पूर्व-प्रकाशित खंडों से छांटकर एक पुस्तक का भी संघटन किया है। निम्नवर्गीय प्रसंग के हाल में प्रकाशित खंडों में गैर-भारतीय तीसरी दुनिया के देशों को भी शामिल किया गया है। निम्नवर्गीय प्रसंग की अवधारणा का परिवेश ग्राशी के विचारों से निर्मित हुआ था। एरिक हॉब्समैन रेमन्ड, विलियम्स और स्टुअर्ट हॉल अपने लेखन में ग्राशी के विचारों को सम्मिलित कर रहे थे।

दूसरी तरफ पेरी एन्डर्सन और टॉम नैनं ग्रामशी को समालोचना प्रस्तुत कर रहे थे। जॉर्ज लेफेबव्र, क्रिस्टोफर हिल, ई.पी. थॉम्पसन, यूजीन जेनोवेज तथा अन्य पश्चिमी मार्क्सवादी इतिहासकार जिन्होंने नया सामाजिक इतिहास लिखा था और जिन्होंने जनता के नजरिए पर विचार करने की आवश्यकता पर बल दिया था का भी प्रभाव सबाल्टर्न इतिहास पर देखने को मिलता है। इस प्रकार निम्नवर्गीय प्रसंग का उद्देश्य दक्षिण एशिया के अध्ययन क्षेत्रों में निम्नवर्गीय विषयों पर व्यवस्थित और सूचना से परिपूर्ण युक्त विचार विमर्श को आगे बढ़ाया और इस प्रकार विशेष क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान और शैक्षिक कार्यों के संभ्रांतीय पूर्वाग्रहों को दूर करने में मदद पहुँचाना था। गुहा के द्वारा तीसरे खंड की प्रस्तावना में यह लिखा गया है कि सबाल्टर्न इतिहाकारों ने आलोचना के लिए साझा प्रतीकों का इस्तेमाल किया, जिसमें दक्षिण एशियाई अध्ययन क्षेत्र में व्याप्त संभ्रांतता की सचेतन और व्यवस्थित रूप से आलोचना की गई। 

उनके द्वारा पुन: इस बात पर बल दिया गया है कि संभ्रांतीय मानसिकता का विरोध निम्नवर्गीय परियोजना की एकता का आधार है। इतिहास-लेखन और समाज विज्ञान में मौजूदा व्यवस्था का हम विरोध करते हैं, जिसमें इस बात पर विचार नहीं किया गया और इस बात को स्वीकार भी नहीं किया गया कि सबाल्टर्न अपनी नियति खुद निर्धारित कर सकते हैं। यह आलोचना हमारी परियोजना का छठा स्थान है। दक्षिण एशिया के अध्ययन क्षेत्रों में संभ्रांतवाद की जड़ें इतनी गहरी थीं कि इसका दूसरा रूप हो ही नहीं सकता था। इस प्रकार निषेधात्मकता हमारी परियोजना का आधारभूत आधार है। राजनीतिक दृष्टि से 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक के आरंभ में अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर अनेक तरह के परिवर्तन हुए और स्थापि तथा परम्परागत विचारों पर प्रश्न खड़े किए गए। वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी परम्परागत राजनीतिक पार्टियों के द्वारा इसकी आलोचना की गई: गैर-परम्परावाद राजनीतिक संघटनों और कार्यकलापों पर बल दिया गया।

कांग्रेस राष्ट्रवाद और भारतीय राज्य में इसके कार्यान्वयन से क्षुब्ध सबाल्टर्न इतिहासकारों ने इस अभिधारणा को खारिज कर दिया कि जनता की लामबंदी या तो आर्थिक परिस्थितियों अथवा ऊपर से किए गए प्रयासों का प्रतिफलन होती है। उन्होंने एक लोकक्षेत्र खोज निकालने की बात की, जिसका अस्तित्व स्वायत्तापूर्ण होता है। यह स्वायत्ता शोषण की परिस्थितियों में निहित होती है। सबाल्टर्न इतिहासकारों ने कबीलों, किसानों, सर्वहारा जैसे समूहों और कभी-कभी मध्यवर्ग पर भी काम किया। उनकी यह मान्यता थी कि क्षेत्र संभ्रांत राजनीति से अप्रभावित थे और इनका स्वतंत्र अस्तित्व था तथा इनकी शक्ति स्वतः स्फूर्त थी। अब किसी भी आन्दोलन के पीछे किसी करिश्माई नेतृत्व का हाथ होने की बात से इन्कार किया जाने लगा। अब किसी भी आन्दोलन का विद्रोह के विश्लेषण में इस प्रकार के करिश्मे के प्रति लोगों द्वारा की गई व्याख्या को महत्त्व प्रदान किया गया। शाहीद अमीन द्वारा महात्मा गांधी के विषय में जनता के दृष्टिकोण का अध्ययन किया गया है, जो इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है। उन्होंने अपने एक लेख महात्मा के रूप में गांधी में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले से प्रमाण एकत्रित करके यह स्पष्ट किया है कि कांग्रेस जिस दृष्टि से महात्मा को देखती थी उसमें बहुत अन्तर था।

हालांकि महात्मा का संदेश अफवाह के रूप में चारों तरफ फैल जाता था लेकिन इसके पीछे आर्थिक दर्शन और राजनीति काम करती थी। अच्छा आदमी बनाने की आवश्यकता, शराब, जुआ और हिंसा का त्याग, कताई करना और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखना। जनता के बीच में महात्मा की जादुई शक्ति के किस्से प्रचलित थे। जनता के बीच यह बात फैली हुई थी कि अपनी इस शक्ति से वे आज्ञापालकों को ईनाम और आज्ञा नहीं मानने वालों को दंड भी दे सकते हैं दूसरी ओर महात्मा के नाम और उनकी तथाकथित जादुई शक्ति का उपयोग जाति कार्यक्रम को मजबूत बनाने और स्थापित करने, कर्जदार को कर्ज का भुगतान करने और गो रक्षा आंदोलन तेज करने के लिए भी किया गया। महात्मा जनता के बीच आकर किंवदंती के रूप में फैल जाते थे। 1922 में चौरी-चौरा कांड के दौरान यह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया जब पुलिस चौवि. जलाने, पुलिसकर्मियों को मारने और बाजार लूटने के लिए उनके नाम का इस्तेमाल किया गया।

इस बात के लिए इतिहासकारों की आलोचना की गई कि उन्होंने न केवल लोकचेतना और मानस की अवहेलना की, बल्कि बगावत और विद्रोह के विषय में जारी की गई घोषणाओं को बड़ी गंभीरता से स्वीकार कर लिया। रंजीत गुहा ने अपने एक लेख ‘द प्रोग ऑफ काउन्टर इनसरजेंसी’ में भारत के किसानों और कबीलों के मौजूदा इतिहासकारों की आलोचना की है, जिसमें किसान आंदोलनों को आकस्मिक और अनियोजित बताया गया है और विद्रोह की चेतनाओं को नकारा गया है। उनके मतानुसार “इस इतिहास-लेखन में कृषक विद्रोहों की चर्चा सिर्फ एक ठोस व्यक्ति या वर्ग के सदस्य के रूप में की गई। एक अस्मिता के रूप में नहीं।  जिसकी इच्छा शक्ति और तर्कशक्ति विद्रोह का माहौल बनाती है। कृषक आंदोलन के विषय में जो भी किंवदंती और आख्यान मौजूद हैं उनका एक स्वाभाविक प्राकृतिक घटना के रूप में चित्रण किया गया है। वैसे ही जैसे बवंडर या भूचाल आ जाता है, दावाग्नि या महामारी फैल जाती है। उन्होंने सरकारी रिपोर्ट से लेकर वामपंथी इतिहास लेखकों द्वारा लिखे गए बगावत के ब्यौरों की आलोचना की है। गुहा के अनुसार उन्होंने प्रति-विद्रोह का पाठ लिखा है और विद्रोही को अपने इतिहास का नायक मानने से इन्कार किया है।

अपने लेख ‘पीजेंट रिवोल्ट एंड इंडियन नेशनलिज्म, 1919-1922’ में ज्ञान पांडे ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि असहयोग आंदोलन से पहले अवध में उठा किसान आंदोलन अपने आप में स्वायत्त था और किसान शहरी नेताओं और यहाँ तक कि कांग्रेस नेताओं की अपेक्षा भी स्थानीय सत्ता संरचना के औपनिवेशिक शासन के साथ गठजोड को बेहतर ढंग से समझते थे। इसके अतिरिक्त जब-जब कांग्रेस का संगठन मजबूत हुआ. तब-तब किसान की उग्रता में कमी आई। स्टीफेन हेन्नींघम ने ‘क्वीट इंडिया इन बिहार एंड ईस्टर्न यूनाइटेड प्रोविन्सेज’ में यह लिखा है कि निम्नवर्गीय और संभ्रांत क्षेत्र स्पष्ट परिभाषित और एक-दसरे से अलग थे। अत: 1942 की महान क्रान्ति संभ्रांतीय राष्टवादी आन्दोलन के साथ-साथ एक निम्नवर्गीय विद्रोह भी था। उनके उद्देश्य और माँग अलग-अलग थीं। 

संभ्रांतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में शामिल आंदोलनकारियों ने सरकार द्वारा कांग्रेस के दमन का विरोध किया और भारत को आजादी देने की माँग की दूसरी ओर निम्नवर्गीय विद्रोह में शामिल लोगों ने दासता और उत्पीड़न से मुक्ति की बात की जिसमें वे जकड़े हुए थे। अपनी बात को आगे बढाते हए वे कहते हैं कि, क्रान्ति के इस दोहरे चरित्र के कारण ही इसे दबाया जा सका है। डेविड हार्डीमैन ने अपने बहुत सारे लेखों में निम्नवर्गीय विषय पर प्रकाश डाला है और यह कहा है कि चाहे वह दक्षिण गुजरात का कबीलाई आंदार.. हो या पूर्वी गुजरात का भील आंदोलन हो या फिर नागरिक अवज्ञा आन्दोलन में कृषि मजदूरों की विद्रोही भावना हो, यह संभ्रांतों के विरुद्ध निम्नवर्ग की एक स्वतंत्र राजनीति थी। इसी प्रकार सुमित सरकार ने अपने लेख ‘कंडिशन एंड नेचर ऑफ सबाल्टर्न मिलिटैन्सी’ में यह कहा है कि बंगाल में असहयोग के समय जनता ने नेताओं की अवहेलना की।

उन्होंने बताया कि सबाल्टर्न पर ये मूल रूप में तीन सामाजिक समूह शामिल हैं-कबीलाई और निम्नजाति के कृषीय मजदूर और बटाईदार, जमीन वाले किसान, आम रूप में बंगाल में मध्यवर्ती जाति के लोग जिसमें मुसलमान भी शामिल थे और बागानों, खानों और उद्योगों में काम करने वाले मजदूर, शहरी मजदूरों के साथ-साथ इन समूहों के बीच में आपसी विभाजन था और इसमें शोषक और शोषित दोनों शामिल थे। इसके बाद भी उनका मानना था कि “परिभाषित निम्नवर्गीय समूह का अपेक्षाकृत स्वायत्त राजनीतिक क्षेत्र था, जिसकी खास विशेषताएँ और साझा मानसिकता थी जिनका पता लगाया जाना जरूरी है और यह संभ्रांत राजनीतिज्ञों के क्षेत्र से बिल्कुल पृथक् दुनिया थी। बीसवीं शताब्दी के दौरान बंगाल के संभ्रांत राजनीतिज्ञ उच्च जाति, व शिक्षित पेशेवर समूह से आए थे, जिनका संबंध जमींदारी या बिचौलिए काश्तकारी से था।

इस प्रकार हम पाते हैं कि अलग-अलग खंडों में लिखे गए अलग-अलग लेखों में संभ्रांत और निम्नवर्गीय क्षेत्रों को अलग-अलग करने और निम्नवर्गीय चेतना और कार्रवाई को स्वायत्तता मानने का प्रयास किया गया। हालांकि इसमें पार्थ चटर्जी जैसे लेखक अपवाद रूप में दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इस चरम में आमतौर पर निम्नवर्गीय विषय और स्वायत्त निम्नवर्गीय चेतना पर बल दिया गया। भारतीय इतिहास के प्रसंग में हुए निम्नवर्गीय संदर्भ ने इतिहास-लेखन को एक नया आयाम प्रदान किया। शुरू में इसके तीन खंड तैयार करने की योजना थी, जिसका संपादन के रंजीत गुहा के द्वारा होना था, जो इसके प्रणेता माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि यह विचार ग्रामशी के चिंतन से प्रभावित था। इसमें विशेष रूप से मार्क्सवाद के आर्थिक पक्ष पर बल दिए जाने वाले सिद्धान्त के साथ-साथ बुर्जुआ राष्ट्रवादी संभ्रांत व्याख्या और उपनिवेशवादी विवेचन से अलग हटकर एक नई व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया।

भारतीय इतिहास-लेखन की परम्परा से असंतुष्ट एक लेखक समूह ने सामूहिक रूप से इन पुस्तकों के लिए लेख लिखे। इतना ही नहीं इसमें ऐसे भी इतिहासकार तथा समाजविज्ञानी सम्मिलित हुए जो औपचारिक रूप में सबाल्टर्न समूह में सम्मिलित नहीं थे। निम्नवर्गीय प्रसंग का संबंध वैसे तो मूल रूप में भारत से था, लेकिन यह विचार इंग्लैंड में कुछ भारतीय इतिहासकारों के द्वारा भी अपनाया गया, जिनप. अगुआ और प्रणेता शक्ति रंजीत गुहा थे। शुरू से ही भारतीय इतिहास-लेखन की सभी मौजूदा परम्पराओं से इसने अलग रास्ता बनाया। इस परियोजना के घोषणापत्र में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की शुरुआती पंक्तियों की झलक मिलती है ‘अभी तक सभी समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है’। रंजीत गुहा ने निम्नवर्गीय प्रसंग के पहले खंड में यह घोषणा की कि भारतीय राष्ट्रवाद का इतिहास-लेखन अभी संभ्रांतवाद-उपनिवेशवादी संभ्रांतवाद और बुर्जुआ राष्ट्रवाद संभ्रांतवाद से ग्रसित रहा।

यह कहा गया कि दोनों ही प्रकार के इतिहास-लेखन भारत में ब्रिटिश शासन के वैचारिक विमर्श से प्रभावित थे। अनेक मतभेदों के बाद भी कई मामलों में दोनों एकाही तरह से सोचते थे और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके इतिहास में जनता की राजनीति पूर्ण रूप से गायब थी। उनके विचार से अब समझ आ चुका था कि निम्नवर्गों की दृष्टि से इतिहास देखा जाए और लिखा जाए। यह दृष्टि तथा जनता की राजनीति बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इसका अपना एक स्वायत्त क्षेत्र था. जिसका संबंध न तो संभ्रांत राजनीति से था और न उसका अस्तित्व उस पर आधारित था। जनता संभ्रांतों की राजनीति से कई निर्माणात्मक विषयों में अलग होती है। सर्वप्रथम यह कि इसकी जड़ जाति और संबंधों के फैलाव, जनजातीय बंधुत्व, क्षेत्रीयता आदि जैसे परम्परागत जनसंगठनों में होती है। दूसरे, संभ्रांत लामबंदी की प्रकृति ऊर्ध्व होती है अर्थात ऊपर से नीचे की ओर जाती है

जबकि जनता की लामबंदी क्षैतिज होती है। तीसरे जहाँ संभ्रांत लामबंदी काननी दायरे में बंधी और शांत होती है. वहीं निम्नवर्गीय लाभबंदी अपेक्षाकत उग्र होती है। चौथा संभ्रांत लामबंदी अधिक सतर्क तथा नियंत्रित होती है जबकि निम्नवर्गीय लामबंदी अचानक उभर आती है अर्थात स्वतः स्फूर्त होती है। निम्नवर्गीय प्रसंग जल्द ही जनता के नए इतिहास के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसमें सरकारी राष्ट्रवाद के साथ जनता के इतिहास का तालमेल नहीं किया गया। इस प्रकार इसने उन विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया जिनका उत्तर औपनिवेशिक राष्ट्र-राज्य द्वारा किए गए राष्ट्रवादी दावों से मोहभंग हो चुका था। शुरू में ग्रामशी के सिद्धान्त से प्रभावित होकर इसमें प्रताड़ित समूहों की परिवर्तनगामी चेतना को खोजने का प्रयास किया गया। 

इसे भारतीय इतिहास-लेखन की तीन प्रमुख प्रवृत्तियों के विरोध में खड़ा किया गया उपनिवेशवादी, जिन्होंने देश की अज्ञानी जनता को ज्ञान-प्रदान करने के लिए औपनिवेशिक शासन को जरूरी माना, राष्ट्रवादी, जिन्होंने जन आन्दोलनों को राष्ट्र-राज्य के निर्माण की प्रक्रिया का अंग माना और मार्क्सवादी जो जनता के संघर्ष को क्रांति और समाजवादी राज्य की स्थापना के इतिहास में समाहित कर देते थे।

इस परियोजना के निम्नलिखित उद्देश्य थे :

(i) कांग्रेस राष्ट्रवाद का बुर्जुआ और संभ्रांत चरित्र दिखाना जिसने लोकहितवादी और परिवर्तनगामी आंदोलनों पर अंकुश लगाया।

(ii) भारतीय कांग्रेस राष्ट्रवाद के महा आख्यान में जनता के संघर्ष को शामिल किए जाने के कई इतिहासकारों के दावों को चुनौती दी गई और

(iii) निम्नवर्गीय चेतना का निर्माण और इसकी स्वायत्ता पर बल दिया गया। निम्नवर्गीय स्रोतों से प्रमाणों की अनुपलब्धता को देखते हुए यह काम बहुत मुश्किल था। इस अभाव को दूर करने के लिए सबाल्टर्न इतिहासकारों ने सरकारी स्रोतों से ही अपने लिए सामग्री निकाली और इसके लिए उन्हें भूसे से अनाज को अलग करना पड़ा।

कुछ समय के पश्चात निम्नवर्गीय प्रसंग के दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगा। इस पर उत्तर आधुनिकता और उत्तर उपनिवेशवादी विचारधाराओं का प्रभाव स्पष्ट रूप में देखने में आया। हालांकि गुहा, पांडे, अमीन, हार्डीमैन, हेन्नींघम, सरकार और कुछ विद्वानों ने आम जनता की दृष्टि से अध्ययन करने पर बल दिया। पर पार्थ चटर्जी के लेखन में शुरू से ही उत्तर उपनिवेशवादी प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। अपनी प्रख्यात पुस्तक ‘नेशनलिस्ट थॉट एंड, कोलोनियल वर्ल्ड’ (1986) में उन्होंने एडवर्ड सईद की उत्तर औपनिवेशिक संरचना का इस्तेमाल किया है, जिसके अनुसार औपनिवशिक शक्ति ज्ञान का संसार असीम और दुर्गम है।

पहले भी निम्नवर्गीय प्रसंग की संकल्पना में शामिल चटर्जी के लेखों में इस प्रकार का विश्लेषण स्पष्ट रूप में पाया जाता है। इसके बाद की उनकी पुस्तक ‘द नेशन एंड इट्स फ्रैगमेंटस’ (1995) में उन्होंने इसी विश्लेषण को आगे बढ़ाया है। निम्नवर्गीय प्रसंग के कई अन्य लेखकों ने भी धीरे-धीरे मार्क्सवाद का दामन छोड़ दिया। इस प्रकार इस विचारधारा में बौद्धिक मत विभाजन जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। एक तरफ कुछ ऐसे सबाल्टर्न इतिहाकार हैं, जो आज भी निम्नवर्गीय विषयों से जुड़े हुए हैं जबकि अधिकांश लेखक उत्तर उपनिवेशवादी ढंग से लेखन करते हैं।

अब स्पष्ट रूप से आर्थिक और सामाजिक मुद्दों की बजाए सांस्कृतिक मसलों विशेष रूप में उपनिवेशवादी विमर्श विश्लेषण और अनुसंधान पर बल दिया जाने लगा। एक अवधारणा के रूप में सबाल्टर्नेटी यानी निम्नवर्गीयता को पुनः परिभाषित किया गया। शुरू में यह भीतर और बाहर दोनों ही स्थितियों में प्रभुत्वशा॥ वर्गों के खिलाफ और शोषित वर्ग के समर्थन में खड़ा दिखाई देता है। बाद में इसको उपनिवेशवाद, आधुनिकता और प्रबोधन की अवधारणा के खिलाफ खडा किया गया। बाद के खंडों में सबाल्टर्न समूह से जुड़े विषयों पर अनुसंधानात्मक लेखों की संख्या में कमी आई।

इसी कारण जहाँ पहले चार खंडों में किसानों और मजदूरों जैसे निम्नवर्गों पर 20 लेख थे वहीं बाद के छ: खंडों में इस प्रकार के सिर्फ पाँच ही लेख मिलते हैं।  औपनिवेशिक विमर्श के पाठगत विश्लेषण पर अब अधिक बल दिया जाने लगा। इस प्रकार निम्नवर्गीय विषयों पर अनुसंधान करने के बदले विमर्श विश्लेषण हावी होने लगा। सबाल्टर्न पर बल कम हो गया तथा समुदाय पर बल दिया जाने लगा। पहले कहा जाता था कि संभ्रांत राष्ट्रवाद ने जनता को पंगु बना दिया अब राष्ट्रवाद की पूरी परियोजना को उपनिवेशवादी विमर्श का एक संस्करण घोषित किया गया, जिसमें आन्दोलन का केन्द्रीकरण और बाद में राज्य पर बल दिया गया। धर्मनिरपेक्षतावाद और बौद्धिक तर्कवाद की आलोचना की गई और अब टुकड़ों तथा घटनाओं पर बल दिया जाने लगा।

शुरू के परियोजना से हुए इस बदलाव को सही ठहराने की कोशिश की गई और यह भी प्रयास किया गया कि इन्हें आपस में जोड़कर देखा जाए। इसीलिए निम्नवर्गीय प्रसंग के खंड 10 के संपादकों (गौतम भद्र, ज्ञान प्रकाश और सूजी भारन) द्वारा यह दावा किया गया कि निम्नवर्गीयता के प्रभाव से कुछ भी बाकी नहीं है न तो संभ्रांत व्यवहार, न ही राजनीतियाँ, शैक्षिक अनुशासन, साहित्यिक पाठ, संचित स्रोत या भाषा। इसी कारण निम्नवर्गीय प्रसंग के वैध विषय के रूप में सभी संभ्रांतीय क्षेत्रों की छानबीन आवश्यक है। ज्ञान प्रकाश का यह तर्क था कि भारतीय निम्नवर्गीय समूह अपने दस्तावेज और आंकड़े छोड़कर नहीं जाते। इसी कारण जनोन्मुखी इतिहास दृष्टि का पश्चिमी प्रारूप की नकल करना संभव नहीं था।

इसी कारण निम्नवर्गीय प्रसंग को निम्नवर्ग की अवधारणा को अलग ढंग से ग्रहण और विकसित कर अलग इतिहास लिखने की कोशिश थी। उनके अनुसार निम्नवर्गीयता को एक विमर्श प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप निम्नवर्गीय अवधारणा का पुनर्निधारण हो सके। अत: दक्षिण एशियाई इतिहास के इस प्रकार के पुनपरीक्षण से इस विमर्श के पहले वास्तविक सबाल्टर्न पैदा नहीं हुए थे और उनकी एक आलोचनात्मक दृष्टि विकसित नहीं हुई थी। सबाल्टर्न को विमर्श की भूलभुलैया में डालने से वास्तविकता इसमें कहीं गुम हो जाएगी। वास्तविक निम्नवर्गीय प्रसंग और निम्नवर्गीयता विमर्शों के बीच जन्म लेती है। इस प्रकार सबाल्टर्न को कर्त्ता के रूप में देखना मुश्किल है, क्योंकि वे सत्ता के दाँव-पेंच से निर्मित और निरूपित हुए हैं। दीपेश चक्रवर्ती एक कदम और आगे बढ़कर न सिर्फ इतिहास के पृथक् क्षेत्र से इन्कार करते हैं बल्कि तीसरी दुनिया के इतिहास की अलग अस्मिता पर भी सवाल खड़ा करते हैं।

जहाँ तक इतिहास के शैक्षिक विमर्श का प्रश्न है और जहाँ तक किसी विश्वविद्यालय के अंतर्गत इतिहास को एक विमर्श के रूप में प्रस्तुत करने का प्रश्न है, यूरोप इन सभी इतिहासों का मुख्य विषय है और उसने इंडियन, चाइनीज, केनियाई तथा सभी प्रकार के इतिहासों को सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया है। इन सभी इतिहासों को एक महाआख्यान का ही रूप माना जा सकता है जिसे यूरोप का इतिहास कहा गया है। भारतीय इतिहास अपने आप में इस प्रकार निम्नवर्गीयता या सबाल्टर्नेटी की स्थिति में है। इस इतिहास के नाम पर कोई मात्र निम्नवर्गीय विषयों और स्थितियों को पेश कर सकता है। इस प्रकार निम्नवर्गीय प्रसंग के दूसरे चरण में न सिर्फ निम्नवर्गीय चेतना की खोजबीन पर बल दिया जाने लगा, बल्कि इस प्रकार की ऐतिहासिक कृतियों पर प्रश्न भी उठाया गया और इसमें पश्चिम की उत्तर आधुनिक सोच का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

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