लोक प्रशासन व विकास की और जो संवेदनशीलता है, उसमें जेन्डर के मुद्दे को सम्मिलित किया गया है तथा 1980 में लोक प्रशासन में महिलाओं के मुद्दे को एक प्रमुख सैद्धांतिक मुद्दे के रूप में मान्यता प्रदान की गई। इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण की प्रक्रिया चल रही थी। ब्यूविनिक और ग्रीवे के अनुसार महिलाओं के प्रति नीतियों में बदलाव आते रहें, ‘कल्याण’ से ‘समानता’ और ‘समानता’ से ‘निर्भरता विरोधी’ ।
निर्धन देशों की विकास नीतियों ने दो अन्य विचारधाराओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया-‘कार्यकुशलता’ और सशक्तीकरण । ओस्टरगार्ड के शब्दों में, “सामाजिक समता की विचारधारा के अनुरूप विकास प्रक्रिया में महिलाएँ सक्रिय सहभागी हैं। बस विचारधारा ने रणनीतिक दृष्टि से जेन्डर की आवश्यकताओं को पहचाना तथा विकास को न्याय एवं समता के साथ जोड़ा।”
वस्तुतः सशक्तीकरण की विचारधारा ने ‘नीचे से ऊपर’ की विचारधारा के उपयोग पर बल दिया, ताकि महिलाओं को ज्यादा-से-ज्यादा जागरूक बनाया जा सके। इस बात का भी प्रयास किया गया कि केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा क्रियान्वित किए जाने वाले कार्यक्रमों में महिलाओं की अधिकाधिक सहभागिता को प्रोत्साहित किया जाए।
73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 द्वारा पंचायती राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को सुनिश्चित किया गया।
1. आर्थिक सशक्तीकरण – विश्व की कुल महिला जनसंख्या का लगभग 70 प्रतिशत निर्धनता रेखा से नीचे है। इनमें से अधिकांश अत्यंत गरीबी की स्थिति में रह रही हैं। इन्हें गरीबी की स्थिति से उबारने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए :–
(1) संपत्ति पर महिलाओं के स्वामित्व एवं नियंत्रण को बढ़ाया जाए।
(2) सामुदायिक प्रबंध में महिलाओं की सहभागिता में वृद्धि की जाए।
(3) निर्धनों एवं निराश्रितों की क्षमता में विस्तार किया जाए।
(4) पूँजी संचय की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए।
(5) नए कौशल, नई तकनीक एवं दक्षता के स्थानीय स्तर पर सही प्रयोग किया जाए।
(6) आर्थिक अवसरों एवं आधारभूत सामाजिक सेवाओं का निर्माण किया जाए।
(7) स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना एवं स्वयंसिद्ध जैसे सरकारी कार्यक्रमों को इस प्रकार लागू किया जाए कि अधिक-से-अधिक महिलाओं को इसका अधिकतम लाभ मिल सके।
महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए यह जरूरी है कि उन्हें विभिन्न निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के अंतर्गत स्व-सहायता समूहों में प्रबंधित किया जाए। इन कार्यक्रमों में स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना’, ‘राष्ट्रीय महिला कोष’, ‘प्रशिक्षण एवं रोजगार के लिए समर्थन’, महिलाओं के लिए प्रशिक्षण उत्पादन केन्द्र’ आदि प्रमुख हैं। महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी क्षमताओं एवं आय संबंधी समर्थता को प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है।
अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएँ पूरे कार्य के 90 प्रतिशत से भी अधिक भाग में अपना योगदान देती हैं। इन महिलाओं को अच्छी कार्य दशाएँ, न्यनूतम मजदूरी, अवकाश आदि के संबंध में विशेष संरक्षण दिए जाने की जरूरत है।
राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके कर्मचारी महिलाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को निभाएँगे, बल्कि सुरक्षा सुविधाओं का विस्तार करेंगे, व्यावसायिक खतरों से उनकी सुरक्षा करेंगे तथा मातृत्व लाभ एवं वित्तीय सहायता उपलब्ध कराएँगे। राज्य द्वारा महिलाओं को खादी एवं ग्रामोद्योग, हथकरघा, रेशम कीट का पालन एवं लघु-उद्योग के क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
2. स्वास्थ्य एवं पोषण स्थिति :-– महिलाओं, विशेष रूप से निर्धन महिलाओं और बच्चों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। प्रसवकाल के दौरान अच्छी तरह से देखभाल की जरूरत होती है।
इसके लिए गर्भावस्था के पहले पंजीकरण करा लेना चाहिए। समय-समय पर गर्भवती महिलाओं की जाँच होनी चाहिए। अभिक्रिया और उच्च रक्तचाप की स्थिति से बचने के लिए समुचित जाँच कराना जरूरी है। सुरक्षित मातृत्व के लिए आवश्यक देखभाल संयुक्त राष्ट्रसंघ के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों का एक अंग है, जिसे भारत में भी लागू किया गया है।
स्त्री और पुरुष के बीच पोषण के संदर्भ में भेदभावपूर्ण व्यवहार अपनाने के कारण महिलाओं और किशोरियों के पोषण तत्त्व की कमी देखी गई है। यही कारण है कि ये विभिन्न स्तरों पर नवजात, पूर्व-बाल्यकाल, किशोरावस्था और मातृत्त्व के काल में अनेक प्रकार की बीमारियों का शिकार होती हैं। अतः महिलाओं में विशेष तौर पर गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली महिलाओं में कुपोषण को दूर करने के लिए विशेष प्रचार की जरूरत है
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