डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘भारतेंदु युग’ नामक पुस्तक में ‘बालकृष्ट भट्ट और हिंदी आलोचना का जन्म’ नामक अध्याय में भट्टजी के ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’ नामक निबंधा का उल्लेख करते हुए लिखा है, ‘लेख के नाम से ही भट्टजी का आधानिक दृष्टिकोण प्रकट हो जाता है। साहित्य रसात्मक वाक्य या कवि के अंत:पुर का लीला-विनोद न होकर जन-समूह के हृदय का विकास है।’ यह ‘रस’ निर्जीव रस के प्रति जनसमूह के हृदय का विद्रोह था जिसकी अभिव्यक्ति भारतेंदु युग कर रहा था।
साहित्य को देखने-समझने की दृष्टि बदली तो उसके मूल्यांकन की कसौटी भी बदली और हिंदी आलोचना में युगांतर उपस्थित हुआ। ‘जनसमूह के हृदय की भावनाओं’ का आग्रह करके ही हिंदी की आलोचना रीतिकालीन केंचुल उतार कर आधुनिक बनी। पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक युग को गद्य युग कहा। भारतेंदु काल में गद्य की विधा सहसा इतनी लोकप्रिय हो उठती है। उसका कारण है कि आधुनिकता, वैचारिकता के कारण और उसके सहारे आई है। वैचारिकता गद्य में तो है ही, कविता में भी है।
वैचारिकता का आग्रह होने पर साहित्य में आलोचना का विकास होना अवश्यम्भावी था। इस काल में आलोचना पत्र-पत्रिकाओं के लेखों, टिप्पणियों और निबंधों से विकसित हुई है। ‘आलोचना’ उन विधाओं में से है जो पश्चिमी साहित्य की नकल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण जन्मी और विकसित हुई है। वहाँ होता है इसलिए यहाँ भी होना चाहिए’ इस विचार की भावना से वशीभूत होकर भारतेंदु ने ‘नाटक’ पर अपने विचार नहीं प्रकट किए हैं।
‘हिंदी के नाटकों पर स्वरूप कैसा होना चाहिए’ इसका ध्यान रखकर उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं। विचारों के इस प्रकटीकरण को ही हम हिंदी आलोचना का प्रारंभ मान सकते हैं। भारतेंदु ने नाटक संबंधी विचार नाटककार की हैसियत से व्यक्त किए हैं, समीक्षक या आलोचक की हैसियत से नहीं। वे लेख में आद्यन्त रचना पर बल देते हैं और नाटककार को किन बातों पर ध्यान देना चाहिए यह बताते रहते हैं। इस लेख में उनके सर्जक का चिंतक रूप प्रकट हुआ है।
भारतेंदु ने नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति समसामयिक जनरूचि एवं प्राचीन नाटडशास्त्र की उपयोगिता पर विचार किया है। उन्होंने बदली हुई जनरूचि के अनुसार नाटड-रचना में परिवर्तन करने पर विशेष बल दिया है। भारतेंदु के नाटक विषयक लेख में आलोचना के गुण मिल जाते हैं। ऐसी दशा में उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रथम आलोचक कहना अनुचित न होगा।
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