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डक बहस में प्रमुख मुद्दों पर विकासशील देशों की स्थिति का वर्णन और मूल्यांकन |

 आज पर्यावरण का अध्ययन उन महत्त्वपूर्ण विषयों के बारे में हैं जो राष्ट्रों को जीवमंडल, उनके संसाधन, लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य व्यवस्था की रक्षा के लिए होगा। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ने जिस प्रकार कार्य किया तथा राष्ट्रीय संसाधन नीति और दूसरे देशों को राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित किया, इसका अब रूपांतरण हो रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उपनिवेशवाद के हटने से लेकर अमेरिका के द्वितीय विकास शताब्दी के आरंभ में प्रकाशित ‘द लिमिट्स टू ग्रोथ’ रिपोर्ट तक राष्ट्रीय नीतियों ने दो धारणाएँ संस्थापित की जो औद्योगिक क्रांति के साथ ही वितरण में हैं।

पहला, यह कि प्रकृति का अस्तित्व मानव के लिए है और दूसरा कि पर्यावरण संरक्षण विकास-विरोधी, प्रगति-विरोधी तथा प्रौद्योगिकी-विरोधी है। 1972 के स्टॉकहोम के अधिवेशन, जिसके बाद ‘दि लिमिट्स ट ग्रोथ’ के प्रकाशन ने तेजी से बढ़ते हुए प्रौद्योगिकीकरण को आश्चर्यचकित कर दिया। साथ ही, राचैल कार्सान की पुस्तक ‘द साइलेन्ट स्प्रिंग’ के प्रकाशन ने उन लोगों की उदासीनता और चुपी को हिला कर रख दिया, जिन्होंने खड़े होकर जंगल और वन्य जीवों के विनाश को प्रकृति और खाद्य-शृखंला का गैर जिम्मेदार रसायन विस्तार तथा समुदायिक संसाधन व्यवस्थाओं के धीरे-धीरे विलोप होते हुए विनाश को देखा।

बैरी कौमनर लिखते हैं: “मानव-जाति जीवन-चक्र से टूट कर निकल गया है, यह जैविक आवश्यकता के कारण नहीं है, बल्कि यह वैसे सामाजिक संस्थानों द्वारा हुआ है, जिसे उन्होंने प्रकृति को जीतने के लिए बनाया है : ये सम्पत्ति प्राप्त करने के साधन हैं, जिनका विरोध उनसे है जो प्रकृति पर शासन करते हैं।”अविकसित तथा विकासशील देशों द्वारा पश्चिम को पकड़ बराबरी पर आकर आर्थिक चमत्कार की आवृत्ति करने के प्रयास ने उन्हें गरीबी, कर्जदार और आवश्यक सामानों की आपूर्ति में धीमी गिरावट की ओर अग्रसर किया।

कर्ज के संचय ने विकासशील देशों को विकासहीनता के जाल में जकड़ दिया। ऐसे देश अपने परिसमापन की संभावना को खत्म करने के लिए पर्यावरण का अतिमात्रा में प्रयोग करने को विवश हो गए। प्रकृति की कोई दीवार नहीं होती है इसलिए नदी, जंगल, खनिज सम्पदा, वन्य जीव, समृद्ध कच्छ वनस्पति तथा आदिवासी समुदाय एक देश से दूसरे तक फैले हुए हैं और उनका पारिस्थितिकी अनुबंध उनकी राजनीतिक दीवार से बढ़कर हो गया है। 

अतः एक राज्य के किसी भी कार्यकलाप से दूसरे पड़ोसियों के यहाँ अशांति की लहर चली जाती है। उदाहरणत: भारत और पाकिस्तान के बीच सिन्धु नदी क्षेत्र कुछ दुर्लभ प्रजातियों की मछली और कच्छ स्थिति का घर बना हुआ है और यह समुद्री लहरों के लिए प्राकृतिक दीवार का कार्य भी करता है। प्रदूषण अत्यधिक बहाव अथवा कच्छ वनस्पति के विनाश का कोई भी कार्य दूसरे देश के संसाधन-प्रवाह और उनके समुद्री तट के क्षेत्र की प्राकृतिक सुरक्षा को प्रभावित करता है। सम्पूर्ण हिन्द महासागर तटीय क्षेत्र पर 1985-86 में विश्वस्तर पर मूंगा के विरंजल फ्रांस और चीन के समुद्री अणु परीक्षण के कारण हुआ।

अंतर्राष्ट्रीय नदियाँ, जैसे यूरोप में राइन अथवा भारत और पाकिस्तान के बीच रावी हमेशा विकास की उन नीतियों जिन्हें इन राष्ट्रों ने इनके जलग्रहण-क्षेत्र में आरंभ किया है, के कारण विवाद का मुद्दा रही हैं। साइबेरिया या कुवैत के तेल क्षेत्र जो भूमिगत रूप में दूसरो राज्यों में फैल गए हैं, वे अब इन राज्यों को इनके अत्याधिक उपयोग के विरोध में कार्रवाई करने तथा नदीतटीय राज्यों पर संरक्षण कार्य की सहायता करने पर जोर दे रहे हैं। ओजोन छिद्र इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं कि विकसित राज्य औद्योगिक क्रिया-कलाप द्वारा विश्व मानवजाति के स्वास्थ्य को क्षति पहुँचाने के लिए क्या कर सकते हैं। 

एक राज्य के विकास के कुछ कार्य दूसरे राज्यों में भूकंप, समुद्री आंधी, तूफान यहाँ तक कि सूखा भी भेज सकते हैं। पृथ्वी के भूगर्भ से जुड़े समताप मंडल, क्षोभ मंडल, जलमंडल तथा दूरवर्ती संवेदी तकनीक से खुलासा के साथ स्थान के अध्ययन ने यह प्रमाणित कर दिया है कि किसी भी राज्य को बेरोकटोक और अनियंत्रित औद्योगिक कार्य का अधिकार नहीं दिया जा सकता। लोग पर्यावरण संकट से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि यह उन्हें घरबार छोड़कर पर्यावरण शरणार्थी बनने जैसे असैनिक युद्ध की ओर जाने को मजबूर करता है। शरणार्थियों के यू. एन. हाई कमिश्नर तथा अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसाइटी विश्वभर में पारिस्थितिक शरणार्थी की बढ़ती संख्या देखकर भयभीत हैं। राज्य की सार्वभौमिकता पृथ्वी के इन निवासियों के प्राकृतिक अधिकार जो अलंघ्य और अटल हैं, से बाधित होती है।

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