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पूँजीवाद की आलोचना करने वाले प्रमुख दृष्टिकोणों का विश्लेषण कीजिए।

 1917 से पहले 1917 से पहले के चिंतकों ने सामाजिक संगठनों और कार्यों के द्वारा पूँजीवादी संरचना में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। शुरुआती समाजवादी आलोचकों ने पूँजीवाद के अन्यायपूर्ण चरित्र को उजागर किया और सामाजिक कार्यों द्वारा इसमें परिवर्तन लाने का प्रयास किया। शुरुआती समाजवादी आलोचकों में प्रमुख वस्त्रोत्पादक रॉबर्ट ओवेन ने गरीबों में होने वाली वृद्धि के लिए पूंजीपतियों के बीच होने वाली होड़ को उत्तरदायी माना उनका मानना है कि इसी होड़ के कारण नयी तकनीकी की खोज होती है और मजदूरों की मांग घटती जाती है। इससे उपभोग में कमी आती है और उत्पादन भी घट जाता है। अत: ओवेन वस्तु की कीमत तय करते वक्त उसके उत्पादन में लगे श्रम की मात्रा का ध्यान रखने पर बल देता है।

वह ऐसे समुदाय विकसित करने का पक्ष लेता था, जिसमें संतोषी जीवन लोग जीयें और सामाजिक संगठन के लिए आदर्श साबित हो। फ्रांसीसी विद्वान चाल फूरिये ने भी बढ़ते हुए पूँजीवादी शोषण का मुकाबला करने हेतु मजदूरों के सहकारी संगठन का पक्षधर था। लुई ब्लांक संगठन बनाने के पक्ष में :इन शुरुआती चिंतकों का मानना था कि मजदूरों की परेशानियों का मुख्य कारण पूँजीपतियों द्वारा अधिकाधिक मुनाफा कमाने की इच्छा है। इस समस्या का समाधान शुरुआती चिंतकों के अनुसार राज्य के हस्तक्षेप में निहित छोटे उत्पादकों को भी लाभ प्राप्त होता है, न कि साम्यवाद में, जहाँ निजी हितों का दमन कर दिया जाता है।

क्रिश्चियन समाजवादी : 

फ्रांस के क्रिश्चियन समाजवादी भी मजदूरों की परेशानियों को दूर करने के लिए ऐसे ही विचार देते हैं। ये विद्वान ट्रेड यूनियन को सक्रिय करने तथा संपत्ति आंदोलन की शुरुआत पियरे गुइलामे फ्रेडरिक लप्ले ने 1863 में सोसाइटी फॉर सोशल इकोनॉमी की स्थापना करके की इसके सिद्धान्त ईसाई मानवतावादी सेंट साइमन के विचारों के अनुरूप थे। सेंट साइमन के विचार मध्यम वर्ग में और सामाजिक सेवा-भाव रखने वाले पूँजीपतियों एवं सामाजिक सुधारकों में दिखते हैं।

जर्मन आलोचक : मार्क्स और एंगेल्स:-

जर्मनी में जो शुरुआती आलोचक हुए, वे सेंट साइमन के विचारों को मानने वाले और हीगल के समर्थक थे। जॉन कार्ल रॉबर्ट्स ऐसा ही आलोचक था, जो मजदूरों के हित में राज्य द्वारा प्रावधान करने तथा निजी सम्पत्ति के विनाश का समर्थक था। फर्डिनेड लासाल मुनाफे में मजदूरों को भागीदारी मिले इसके लिए उसने कई मजदूर सहकारी संस्थाओं की भी स्थापना की। जर्मनी के समाजवादी आलोचकों में सबसे अधिक प्रभावी कार्ल मार्क्स और एंगेल्स सिद्ध हुए। इनके चिंतन ने समाजवादी चिंतन को नयी दिशा दी।

मार्क्स और एंगेल्स निजी सम्पत्ति के घोर विरोधी थे। इनका मानना था कि पूँजीवाद को शोषण का तो हथियार है ही, यह अलगाव का भी यंत्र है। मार्क्स का मानना है कि पूँजीवादी व्यवस्था में, जिन्हें सर्वाधिक लाभ होता है, उनको भी अलगाव महसूस होता है। इस कारण मार्क्स पूँजीवादी व्यवस्था का विनाश अवश्यंभावी मानता है और भविष्य का मालिक सर्वहारा वर्ग को मानता है, जो पूँजीवादी व्यवस्था में होने वाले शोषण को बंद कर देगा।

मार्क्स इतिहास को आधार बनाते हुए कहता है कि प्रत्येक प्रकार के आर्थिक व्यवस्था के केन्द्र में सामाजिक सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसलिए किसी खास सामाजिक सम्बन्ध के लिए बनाई गई आर्थिक व्यवस्था एक निश्चित समय के बाद समाप्त हो जाती है। मार्क्स मजदूरों के शोषण की बात करते अपना ध्यान कीमत में शामिल अतिरिक्त धन पर केन्द्रित करता है, जो मजदूरी और लागत चुकाने के बाद बचता है, जिसे पूँजीपति हड़प लेते हैं अ. यही पूँजीवादी शोषण है।

बदलती मान्यताएँ:-

मार्क्स के बाद के समाजवादी चिंतन पूँजीवादी शोषण में काफी बदलाव पाया। 19वीं शताब्दी का अंत आते-आते औद्योगिक पूँजीवाद पर वित्तीय पूँजीवाद का प्रभुत्व स्थापित हो गया। पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के सहारे साम्राज्यवाद का विस्तार किया जाने लगा। लेनिन जैसे चिंतकों के लेखन में पूँजीवाद एवं साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना की गई। दूसरी ओर बर्नश्टाइन जैसे विद्वान तथा फेबियन समाजवादियों का मानना है कि पूँजीवाद के विकास के साथ-साथ शोषण कम होगा और पूँजीपति एवं सर्वहारा के बीच सहयोग का विकास होगा।

इससे व्यवस्था में एक संतुलन पैदा हो जाएगा। इस प्रकार के विचार से पूँजीवाद को लचीला बनाने की ओर ध्यान दिया गया। अब सामाजिक कल्याण की ओर ध्यान दिया जाने लगा। आर्थिक विनिमय की प्रक्रिया तथा बाजार तंत्र की ओर ध्यान दिया गया।

1917 के बाद :

1917 की रूसी क्रांति के फलस्वरूप सोवियत संघ द्वारा औद्योगीकरण की वैकल्पिक व्यवस्था प्रस्तुत की गई। सम्पूर्ण पूँजीवादी विश्व को आर्थिक मंदी ने घेर लिया। इससे पूँजीवादी व्यवस्था से लोगों का मोहभंग होने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् तो अनेक देशों में बोल्शेविक व्यवस्था के प्रति आकर्षण बढ़ा। बोल्शेविक समाजवाद पूँजीवाद में किसी भी प्रकार के संशोधन, सहकारिताबाद या फिर राज्य द्वारा नियमन को खारिज कर दिया।

लेनिन जैसे अनेक समाजवादी राज्य को एक ऐसे साधन के रूप में देखते थे, जो समस्त समाज के लिए लाभकारी आर्थिक तंत्र विकसित करता है। इससे शोषण को पूर्णतः एवं हमेशा के लिए समाप्त करने में मदद मिलती है। इसमें निजी सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण और उन्मूलन को आवश्यक माना गया। आर्थिक विकास के लिए योजनाबद्ध आर्थिक व्यवस्था को अपनाया गया। इससे औद्योगीकरण उत्पादन में वद्धि के साथ-साथ जनकल्याण के कार्य भी सम्भव हुए। विश्वव्यापी आर्थिक मंदी और समाजवाद की ओर बढ़ते आकर्षण ने पूँजीवाद में अनेक उदारवादी धारणाओं का विकास हुआ। सीमांत उपयोगिता के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए बाजार की कमियों की और ध्यान दिया गया।

इस प्रकार के सुधारात्मक सिद्धान्तों के आने से पूँजीवाद पर होने वाले समाजवादी हमले का सामना किया जा सका। इस बीच शिकागो स्कूल के मुद्रावादियों का प्रभाव भी बढ़ने लगा तथा कई अर्थशास्त्रियों द्वारा योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था में बाजार की कीमतों में पैदा की जाने वाली विकृतियों पर भी हमला किया जाने लगा। फलत: 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक यूरोप में समाजवादी सिद्धान्त की ओर लोगों की रुचि कम होने लगी। 1970 और 1980 के दशक में समाजवादी देशों में आए आर्थिक संकट ने समाजवादी व्यवस्था के प्रति संदेह को और भी बढ़ाया।

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