समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन ने 1980 के दशक में विकास के क्षेत्र में ध्यान केन्द्रित किया। हालांकि समुदाय-आधारित आपदा प्रबंधन विगत अनेक वर्षों से लोक प्रचलित शब्द रहा है, लेकिन बहुत कम विषयों में यह वास्तविक रूप से सरकारी नीति में शामिल हुआ है। आमतौर पर यह माना जाता है कि समुदाय आधारित प्रबंधन आधारिक संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों का उत्तरदायित्व है। इस संबंध में दो प्रमुख मुद्दे हैं
1) समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन प्रयास कार्यों की बेहतर प्रणालियां स्थानीय प्रयास बने रहते हैं और उचित तरीके से उनका प्रचार नहीं किया जाता।
2) राष्ट्रीय स्तर पर समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन पहल कार्यों की स्वीकृति की कमी के कारण इन कार्यों को प्रायः सीमित संसाधन दिए जाते हैं।
इस प्रकार ज्यादातर क्षेत्रों में समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कार्यों से अलग जाना जाता है। इसे राष्ट्रीय विकास नीतियों में भी सम्मिलित नहीं किया जाता है। इसलिए समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन का आधार समझने की अत्यधिक जरूरत है और स्थायित्व पर विशेष ध्यान देने वाले राष्ट्रीय नीति विषयों में समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन को सम्मिलित करने के लिए रूपरेखा तैयार करने का प्रयास किया जाना चाहिए। वर्ष 1995 में जापान के कोबे शहर तथा योगी प्रान्त के अन्य भागों में आए ग्रेट हशिन ऐवाजी भूकम्प से जान और माल का भारी नुकसान हुआ।
भूकम्प के तुरंत बाद पड़ोसियों और नाते रिश्तेदारों ने मलबे से बहुत-से लोगों को निकालकर बचाया। सर्वेक्षणों के अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 85 प्रतिशत लोगों ने बचाव कार्य किया। ऐसी घटना आपदा के समय समुदाय और पड़ोस के महत्त्व को प्रदर्शित करती है। सिद्धान्त, कार्यनीतियाँ और चुनौतियाँ क्षेत्र के अनेक उदाहरण महत्त्वपूर्ण संकल्पनाओं की ओर इशारा करते हैं, जिन्हें समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन के कुछ मूलभूत सिद्धान्त प्राप्त करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है जिन मूलभूत सिद्धांतों पर समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन स्थित है वे निम्नलिखित हैं
1) समुदाय विकल्पों पर विचार करके निर्णय लेता है।
2) आपदा तैयारी विकास के परिप्रेक्ष्य से की जाती है ।
3) विशेष संवेदनशील समूहों पर ध्यान केन्द्रित करता है।
4) स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों, क्षमताओं और सहभागिता से हस्तक्षेप शुरू होते हैं।
5) स्थानीय श्रेष्ठ लोगों के प्रतिनिधित्व से समुदाय द्वारा नियोजन, कार्यान्वयन और प्रबंधन।
बुनियादी स्तर पर अपेक्षित क्षमता विकसित करने के लिए इन सिद्धान्तों को कार्यान्वयन कार्यनीतियों में बदला जाता है। प्रत्येक स्थिति योगदान के संयोजन से विशेष समाधान देने योग्य बनाती है। विशेष तौर पर प्रयोग होने वाली कार्यनीतियां और कार्यवाहियां निम्नलिखित हैं
1) जन जागरूकता – जन जागरूकता समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन की संकल्पना का प्रचार-प्रसार करने और स्थानीय रूप से आपदा रोकथाम उपायों के लिए मांग पैदा करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इसे अपने लक्ष्य को व्यक्त करने और समुदायों को अपने पहलुओं को सामने लाने के लिए सशक्तिकरण रूप में समझा जा सकता है। सार्वजनिक जागरूकता गैर-सरकारी संगठनों द्वारा आयोजित सामुदायिक बैठकें, आयोजन, जनसंचार कार्यक्रमों को आयोजित करके तथा सरकार की ओर से जागरूकता हस्तक्षेप पर आधारित गतिविधि द्वारा पैदा की जाती है। आलमंड और वर्बा (1963) ने राजनीतिक संचार कार्य के लिए राजनीतिक विशेष समूह को जिम्मेदार ठहराया है।
इसका तात्पर्य व्यक्तियों को उनके लाभ के लिए निर्मित सरकारी नीतियों और सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों के संदर्भ में जानकारी देना, उनको उपलब्ध कराने के लिए समर्थ बनाना है, क्योंकि ज्यादातर कार्यक्रम इसलिए असफल हो जाते हैं क्योंकि इनके संबंध में व्यक्तियों को जानकारी और सही संसाधन केन्द्रों तक उनकी पहुंच नहीं होती। सूचना का अधिकार सार्वजनिक जागरूकता का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। हालांकि केन्द्र तथा राज्यों में सूचना आयोग स्थापित किए गए हैं, लेकिन इसका सफल कार्यान्वयन इस संबंध में नागरिक समाज की सक्रियता और जनसंचार माध्यमों द्वारा बरती गई सावधानी पर निर्भर करेगा।
2) अनुसंधान और प्रलेखन – समुदाय-आधारित आपदा प्रबंधन के अनुकूल आकार के लिए अधिगम प्रक्रियाएं निर्णायक हैं। प्रत्येक स्थिति के लिए संवेदनशीलता के अनुसार विशिष्ट दखल की जरूरत होती है, जिनका समयानुसार अध्ययन किया जाना चाहिए, इसलिए निरंतर सामाजिक गतिविधियाँ जाति आधारित समूह संबद्धता और संजातीय पहचान के अन्य रूपों जैसा दस्तावेज तैयार और उन्हें आपदा अनुक्रिया में विगत अनुभवों के आधार पर इच्छानुसार सामाजिक संयोजन के लिए हस्तक्षेप की उचित कार्यनीति बनाना प्रभावी है। जैसे हाल ही की सूनामी की घटना में पाया गया कि वंचित समूहों तक सहायता नहीं पहुंची, क्योंकि समूह संबद्धता के कारण जाति विचारों पर आधारित नकारात्मक सामाजिक पूँजी दिखाई पड़ी।
आमतौर पर सामाजिक पूर्वाग्रहों व पक्षपातों के कारण महिलाएं और बच्चे सहायता से वंचित रहे। निहित बुनियादी संरचना की भौतिक संवेदनशीलता में समयानुसार सुधार और व्यवस्था की जानी चाहिए। बीच-बीच में समुदाय आधारित देखरेख और विश्लेषण प्रक्रियाएं और मानचित्रण सर्वेक्षण करते रहना चाहिए। भागीदारी आकलन सबसे ज्यादा उपयोगी होते हैं और इस उद्देश्य के लिए वे आवश्यक भी हैं।
3) क्षमता निर्माण – क्षमता निर्माण का तात्पर्य समुदायों की संरक्षण क्षमता को बढ़ाना है, जो उन्हें आपदाओं से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है। स्थानीय क्षमता निर्माण यह निर्धारित करने का माध्यम है कि बाह्य मदद पर आश्रितता स्थायी नहीं होगी और समुदाय को धीरे-धीरे अपनी दैनिक आवश्यकताओं का ध्यान स्वयं ही रखना होगा। क्षमता निर्माण न केवल सर्वश्रेष्ठ आपातकालीन अनुक्रिया है, बल्कि वह विकास कार्यवाहियां करने के लिए भी बेहतर है, जिससे भावी आपदाओं का प्रभाव कम होता है।
विश्व आपदा रिपोर्ट (2004), के अनुसार लोग आपदाओं में कैसे जीवित रहते हैं. इससे संबंधित मूल्यांकन कम किया गया है और ऐसे कार्यक्रम भी कम हैं, जो मुकाबला करने की उनकी कार्यनीतियों पर आधारित हैं, आपदाओं के क्षेत्र में सबसे ज्यादा बल समुदायों में उपलब्ध शक्ति, योग्यताओं और संसाधनों के मूल्यांकन की कीमत पर जरूरतों, जोखिमों और संवेदनशीलताओं के आकलन पर रहा है। केवल राहत की वस्तुएं वितरित करने की अपेक्षा आपदा के बाद राहत में वैकल्पिक कार्यनीति के रूप में सूक्ष्म वित्त अथवा लघु वित्त, नकद सहायता और आय विकसित करने वाली परियोजनाओं का पता लगाया जा रहा है।
4) नेटवर्किंग – सामाजिक पूँजी का प्रमुख आधार सामाजिक नेटवर्कों का निर्धारण मूल्य होता है, जिसे लागत लाभ मूल्यांकन अथवा नीति कार्यान्वयन और मूल्यांकन में शून्य माना जा सकता है। नेटवर्किंग साझेदारी स्थापित करने की दिशा में प्रथम प्रयास है। यह भागीदारियों को नए मार्ग प्रदान करती है, लागत घटाती है और लाभों में वृद्धि करती है। सामाजिक पूँजी में समस्त गठबंधन अलग-अलग रूपों में, सम्मिलित होते हैं, जैसे कि लोगों के मध्य, संस्थाओं, सरकार और नागरिक समाज के मध्य प्रांत और देशों के बीच आदि।
सामाजिक पूँजी का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग किए जाने वाला स्तर चुने गए अध्ययन से विस्तृत रूप से अलग-अलग होता है। अनुसंधान बताता है कि सामाजिक पूँजी में ज्यादा मात्रा वाले दो समुदाय अपने आपको ज्यादा दक्षता से व्यवस्थित करने में तीसरे की बजाय सफल रहे, जिसके पास सामाजिक पूँजी का भंडार कम था, विश्व बैंक के तत्वावधान में किए गए सर्वेक्षण में सामाजिक पूँजी निम्नलिखित तीन सूचकों को प्रदर्शित करता है
1) विश्वास -इस सूचक के दो अवयव हैं-दूसरों में विश्वास और संस्थाओं में विश्वास।
2) नागरिक विनियोजन -नागरिक विनियोजन सामाजिक और राजनीतिक विषयों में लोगों की साझेदारी का मापदंड है। इसमें लोगों की ओर से भार ग्रहण करना और सामाजिक तथा राजनीतिक विजयों में उसके लिए व्यवस्थाएं करना है।
3) सततता (स्थायित्व) -कार्यक्रम की सफलता का अंतिम निर्धारक उसका स्थायित्व है, जो निवेश और मदद की समय सीमा के पश्चात भी कार्यक्रम जारी रखता है। निरंतरता लोक नीति द्वारा जोखिम न्यूनीकरण को प्रमुख धारा में लाने और निवारक वातावरण पैदा करने के संबंध में देखा जाता है।
स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों को तैयार करना – आपदाओं के तुरंत बाद स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों की भूमिका न्यूनीकरण और तैयारी दोनों में उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती है, जितनी कि आम समय के दौरान रोकथाम में होती है। प्राथमिक स्वास्थ्य निगरानी केन्द्र में समुचित सुविधाएं नहीं होती और जो होती भी हैं, वे बहुत कम तथा आपात स्थितियों से निपटने में अक्षम होती हैं। इस संदर्भ में गैर-सरकारी संगठनों का योगदान स्थानीय स्तर पर आपदा तैयारी के इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे में प्रदर्शित किया जा सकता है। प्रशिक्षित स्वयंसेवकों को इस कार्य में लगाया जा सकता है।
खाद्य सुरक्षा और पोषण की व्यवस्था – भारत में हरित क्रान्ति के बावजूद भी अनेक भागों से कुपोषण के कारण हुई मौतों की सूचनाएं प्राप्त होती हैं। गरीबों को समुचित कीमतों पर खाद्यान्न और अन्य जरूरी वस्तुएं उपलब्ध करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली प्रारंभ की गई, थी।
लेकिन भ्रष्टाचार के कारण यह कार्यप्रणाली विकृत हो गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कम दरों पर खाद्य सामग्री, मिट्टी का तेल एवं अन्य दैनिक प्रयोग में काम आने वाली वस्तुएं खरीदकर खुले बाजार में कुँचे दामों पर बेचने जैसी सूचनाएँ मिली हैं। इसलिए दसवीं पंचवर्षीय योजना में आधुनिक चुनौतियों
1) शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष भर उपयुक्त मूल्य पर सब्जियों की उपलब्धता में सुधार लाना।
2) बढ़ती हुई आवादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में सुधार जारी रखना।
3) दालों का उत्पादन बढ़ाना और खपत बढ़ाने के लिए उन्हें उचित मूल्य पर उपलब्ध करना।
4) कम लागत पर गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए मोटे खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाना।
इस प्रकार दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) निम्नलिखित से प्रतिमान में बदलाव की घोषणा की :-
1) राज्य स्तर पर खाद्य सुरक्षा से व्यक्तिगत स्तर पर पोषण सुरक्षा।
2) समस्त पोषण संबंधी जरूरतों की पूर्ति करने के लिए जरूरी खाद्य पदार्थ प्रदान करने के लिए ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने हेतु खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता।
3) केवल उत्पादन से ही फसल के बाद की हानियां कम करना और उचित प्रक्रियाओं से मूल्य संवर्धन।
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