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संप्रदायवाद

 साम्प्रदायिकता की परिभाषा-भारत में साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल तीन अवस्थाओं में हुआ है। प्रत्येक अवस्था की साम्प्रदायिकता की अपनी परिभाषा रही है जो अगली अवस्था में मिल गयी है। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों में साम्प्रदायिकता का विकास हुआ, जब यहाँ इस बात पर बल दिया गया कि इस देश का हित इसी बात में निहित है कि सभी धर्मों के बीच समान सहभागिता का भाव रखा जाए और सभी आपस में मिलकर एक-दूसरे का सम्मान करें। 

इस बात से यह तथ्य निकलकर सामने आया कि भारत में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्खों व ईसाइयों के अलग-अलग समुदाय हैं और भारतीय राष्ट्र की रचना इन समस्त समुदायों के आपसी सहयोग की भावना से निर्मित हुई है। इससे आपसी एकता बढ़ने की बजाय आपसी रंजिश बढ़ गई। लोग अपने राजनेताओं का नवीन रूप देखने लगे। हिन्दू व मुस्लिम अस्मिता के समर्थक अपनी धर्म की भावना को राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उठाने लगे।

इसका सीधा लाभ अंग्रजों को मिलने लगा। उनकी ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति कारगर होने लगी। जो 1857 की लड़ाई जो हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रसिद्ध थी, 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक से डगमगाने लगी। धर्म के अनुयायियों का एकाएक समाज में सम्मान अत्यधिक बढ़ गया। वे अब अपनी संवेदनाओं को ज्यादा सशक्त तरीके से लोगों के सामने पेश कर पाते थे।

जनता भी उनकी बातों को ज्यादा आसानी से समझ पाती थी, क्योंकि मुद्दा धर्म का हो चुका था। परिणाम यह हुआ कि तरह-तरह के संगठनों का निर्माण होने लगा।  एक तरफ देश ब्रिटेन की दमनकारी शक्तियों से संघर्ष कर रहा था, तो दूसरी तरफ संप्रदायवाद उसके आंदोलन को कमजोर कर रहा था। परिणामतः देश को अन्ततः आजादी तो मिली, लेकिन विभाजन एक बड़ी त्रासदी थी।

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