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संविधानवाद

 ‘संविधान’ का शाब्दिक अर्थ होता है कि किसी निकाय का गठन और संरचना कैसे होती है। राजनीति शास्त्र में इसका अर्थ होता है कि एक राज्य और उसके अधिकरण का किस प्रकार गठन होता है। जब अरस्तू ने यूनानी जगत के लगभग 150 नगर राज्यों का अध्ययन करने के बाद ‘पॉलिटिक्स’ की रचना की, और संविधानों का वर्गीकरण किया, तो वह ‘संविधान’ के इसी शाब्दिक अर्थ का प्रयोग कर रहा था।

बाद में, इसमें एक महत्व जुड़ गया। एक संविधान में विश्वस्त तौर पर इस सीमा तक स्थिरता और । सम्माननीयता का गुण होता है कि लोग यह अपेक्षा करते हैं कि सरकार के सदस्य और अंग इसका पालन करेंगे। जब सरकार संविधान का पालन करती है तो इस स्थिति को ही ‘संविधानवाद’ कहा जाता है। इसका यह अर्थ होता है कि सरकार को किसी व्यक्ति की सनक से नहीं चलाया जा सकता। बहरहाल, जैसा कि ‘संवैधानिक राजतंत्र’ के नाम से आभास होता है, संविधानवाद तो गणराज्यवाद नहीं है। आज भी यूरोप में ऐसे चंशगत सम्राट हैं जिन्होंने अपने पूर्ण अधिकार निर्वाचित विधायिका को दे दिए हैं।

दूसरी ओर, एक निर्वाचित राष्ट्रपति के नेतृत्व वाली व्यवस्था अर्थात् गणराज्यवाद का संवैधानिक शासन होना आवश्यक नहीं है। अनेक देशों में सैनिक शासकों ने अपने आपको राष्ट्रपति ही घोषित नहीं किया बल्कि जनमत संग्रह जैसे छलपूर्ण तरीकों से जनता का ‘समर्थन’ भी हासिल कर लिया है। उन्होंने अपने देश के संविधान से छेड़छाड़ की है और, अक्सर, तो उसे उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दिया है। सिद्धान्त के स्तर पर, संविधानवाद और लोकतंत्र में भी अंतर है, जिसका सटीक उदाहरण फ्रांसीसी क्रान्ति के दार्शनिक रूसो के सामाजिक अनुबंध के सिद्धान्त में मिलता है। रूसों ने प्रत्यक्ष लोकतंत्र की हिमायत की थी और सरकार को कोई विशेष प्रस्थिति देने और जनता की इच्छा को किसी भी प्रकार की सीमा में बांधने को अस्वीकार कर दिया था जिसे वह संप्रभु मानता था।

वैसे आज के जन राज्यों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र असंभव ही है। इसलिए, हर जगह प्रतिनिधि सरकार के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया है। प्रतिनिधियों ने क्योंकि भविष्य में राज्य करने का अधिकार दूसरों के हाथ में दे दिया है, इसलिए उनके अधिकारों की सीमा तय करने हेतु एक संविधान जरूरी हो जाता हैं – इन्हें ‘खेल के नियम’ कहा जा सकता है। यह माना जाता है कि संविधान के निर्माता कोरे कागज से शुरु करते हैं और उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। वे पूर्वाग्रह से भी मुक्त होते हैं। बाद में आने वाले राजनेताओं को इन नियमों का पालन करना होता है।

यही कारण है कि विश्व के अधिकांश संविधान निर्माता संविधान को ‘कठोर’ बनाते। हैं, अर्थात् उन्हें साधारण विधायी प्रक्रिया से बदला नहीं जा सकता।  जहाँ ऐसे लिखित और कठोर संविधान वजूद में नहीं होते, वहाँ कुछ परम्पराओं और प्रथाओं को राष्ट्रीय आम सहमति से अनुल्लंघनीय मान लिया जाता है। इनमें से पहली तरह के संविधान का उदाहरण संयुक्त राज्य संविधान है, जबकि दूसरी तरह के संविधान का उदाहरण ब्रिटिश संविधान है।

इसलिए मानवीय क्षमता की अवधारणा उनपर बहुत व्यापक रूप से लागू होती है। विकसित, विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों में देश को वर्गीकृत करते हुए राष्ट्रीय आय को ध्यान में रखा जाता है। राष्ट्रीय आय के अंतर्गत कई कारण होते हैं और उसके माप के लिए जी.एन.पी/जी.टी.पी अवधारणाओं का प्रयोग होता है। जी एन पी का अर्थ है, देश में निजी एवं लोक खर्च के लिए प्राप्त पूर्ण आय, जबकि जी डी पी अर्थव्यवस्था के आकार को मापता है। फिर भी, दोनों की परिभाषा, तकनीकी रूप में उत्पादन के संदर्भ में होती है। जी.डी.पी, स्पष्टत:और सामान्यतः एक उत्पाद मात्र है, जिसकी परिभाषा है, अर्थव्यवस्था द्वारा प्रस्तुत सामग्री एवं सेवाओं का पूर्ण रूप से अंतिम उत्पादन।

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