जयशंकर प्रसाद हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं।
उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कम माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और ‘कामायन।
तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नई कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी।
इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा खड़ी बोली बन गयी।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे, जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं।
कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं।
जयशंकर प्रसाद ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।
वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी बने। काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार ‘कामायनी’ है।
खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकाव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है, जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है।
उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।
जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के पारसी रंगमंच की परंपरा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरनीय नाटकों की रचना की।
उनके नाटक स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी।
उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यंत दर्शनीय है और इन नाटकों में कई अत्यंत सुंदर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं। ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से’, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ जैसे उनके नाटकों के गीत सुप्रसिद्ध रहे हैं।
‘कामायनी’ का कथानक पौराणिक, वैदिक आख्यान पर आधारित है, परन्तु उसमें कवि के निजी भावबोध ने, नारी के प्रति दृार ने, मानवजाति की कल्याण-कामना ने, विश्व का मंगल किस पथ पर चल कर हो सकता है व नए प्रकार की सौन्दर्य चेतना ने उसे आधुनिक जीवन बोध का महाकाव्य बना दिया है।
आइये, अब उन तत्त्वों की पहचान करें जिनके कारण ‘कामायनी’ आधुनिक बोध और नई संवेदना की कालजयी कृति बन गई है।
सर्वप्रथम हमारी दृष्टि ‘कामायनी’ के कथानक पर जाती है, तो स्पष्ट हो जाता है कि वह परम्परागत संस्कृत तथा हिन्दी के महाकाव्यों से भिन्न रचना है।
उसका कथानक लम्बा-चौड़ा नहीं है, नायक धीरोदात्त न होकर अनेक दुर्बलताओं का पुंज सामान्य पुरुष है, उसमें कोई कथा नहीं कही गई है, वह मानवता के विकास का रूपक है, मानव मन की विभिन्न वृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण करने वाली कृति है।
दूसरी नवीनता यह है कि ‘कामायनी’ में पात्र मनु, श्रद्धा, लज्जा, मानव, आकृति-मिलान आदि मनुष्य न होकर मानव मन की वृत्तियां हैं।
सर्गों के नाम तथा उनका क्रम मानव की जीवन-यात्रा का मनोवैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करता है। देवसृष्टि के अतियोगवाद का परिणाम प्रलय, इस बात का संकेत है कि सामंती सभ्यता का अंत होने के बाद पूंजीवादी युग आरंभ होगा और विश्व का इतिहास इसी तथ्य को रेखांकित कर रहा है।
‘कामायनी’ के पात्रों और चरित्र-चित्रण में भी कवि की दृष्टि नए भावबोध की परिचायक है। उसके पात्र मनुष्य नहीं, मानव-मन की वृत्तियां हैं।
मनु और श्रद्धा को छोड़कर सभी पात्र मानव मनोवृत्तियों के प्रतीक हैं। मनु वैवस्वत मनु नहीं है, वह आज के पुरुष-प्रधान समाज के पुरुष हैं और उनमें वे सभी दुर्गुण एवं दुर्बलताएं पाई जाती हैं जो सामंती-पूंजीवादी समाज के पुरुषों में प्रायः होती हैं।
वह वैः भोगने के बाद विपन्न होने वाले पुरुष की तरह चिन्तामग्न, शोकाकुल, अकर्मण्य, निराश तथा किंकर्तव्यविमूढ़ है।
उनमें अहंकार है, वह ईर्ष्यालु है, पत्नी के साथ विश्वासघात करने वाले हैं, सत्ता के भूखे, एकाधिपत्य स्थापित करने वाले हैं, लक्ष्य प्राप्त करने के लिए पशुबलि तक करने को उद्यत हो जाते हैं; राक्षसी वृत्तियां उन पर हावी हो जाती हैं।
हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में समाज तथा काव्य जगत् दोनों में नारी को भोग्या, दासी, पुरुष की अनुगामिनी माना जाता था।
आधुनिक काल का आरंभ होते ही ब्रह्मसमाज, आर्य समाज के समाज-सुधार सम्बन्धी आन्दोलनों के परिणामस्वरूप नारी के प्रति दृष्टिकोण बदला।प्रसाद श्रद्धा के विषय में कहते हैं,
आधुनिक युग मनोविज्ञान का युग है। मनोविज्ञान ज्ञानवृक्ष की सबसे लहलहाती शाखा है, जिसकी सहायता से जीवन की समझ बढ़ी है, मानव की समस्याओं का समाधान खोजा गया है।
मानव मनोभावों के विश्लेषण का जो कार्य आचार्य शुक्ल ने अपने मनोविकार संबंधी निबन्धों द्वारा किया था, वही प्रसादजी ने अपनी काव्यमयी भाषा में ‘कामायनी’ में किया है।
चिन्ता तथा लज्जा जैसे मनोभावों का विश्लेषण तथा उनके कारण मानव की मानसिक दशा एवं शारीरिक मुद्राओं में होने वाले परिवर्तन के चित्र पाठक को विस्मय-विमुग्ध कर देते हैं।
उनको प्रस्तुत और अंकित करने वाली भाषा-शैली भी लक्षणा-व्यंजना के कारण अत्यन्त मोहक बन गई है,
छायावाद के प्रवर्तक तथा प्रथम कवि प्रसादजी ने रीतिकालीन कवियों की सौन्दर्य चेतना के विपरीत नारी के सौन्दर्य वर्णन में भिन्न प्रणालियों का उपयोग किया है।
वह नारी के अंग-प्रत्यंग का वर्णन नख-शिख प्रणाली के सहारे नहीं करते, उसके सामूहिक सौन्दर्य का चित्रण करते है; नए उपमानों का आश्रय लेते हैं, मन पर पड़ने वाले प्रभाव का चित्रण करने पर उनका आग्रह है। ‘श्रद्धा’ सर्ग में श्रद्धा का सौन्दर्य-चित्रण इसका प्रमाण है।
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