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यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ, प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है, पतझड कहें या सूखना, कायापलट या काल है?

 संदर्भ प्रस्तुत काव्यांश ‘भारत भारती’ नामक कविता से अवतरित है। इस कविता के रचयिता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तियों में कवि ने भारत के उत्थानमय अतीत एवं पतनमय वर्तमान का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि प्रकृति का यह नियम है कि उद्यान में जहां पुराने पत्ते झड़ कर गिर पड़ते हैं उनके स्थान पर नए-नए कोमल पत्ते लहलहाने लगते हैं अर्थात पुराने पत्तों का स्थान नए पत्ते ले लेते हैं परंतु अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि इस भारतवर्ष रूपी उद्यान की दशा इससे भिन्न है।

इसकी वर्तमान दशा को पतझड़ कहें या फिर इसका सूख जाना? काया पलट जाना कहें या फिर इसकी मृत्यु होना कहें? अब इस भारतवर्ष रूपी उद्यान के शोभा और सुगंधित फूल कुम्हला गये हैं|

अर्थात भारतवर्ष को शोभा प्रदान करने वाले तत्व अब नहीं रहे। इस उद्यान में रस से युक्त फल उत्पन्न नहीं होते अर्थात अब भारतवर्ष रूपी उद्यान में आनंददायक संकल्पनाओं, भावों या विचारों का जन्म नहीं होता।

अब इस उद्यान में केवल झाड़ और झंखाड़ है अर्थात भारतवर्ष में अब केवल बुरे विचार, बुरी संकल्पनायें और बुरे रीति-रिवाज ही पनप रहे हैं। 

ऐसा लगता है कि जैसे अब इस भारतवर्ष रूपी उद्यान का शरीर पूरी तरह से सूख चुका है और हार्ड मात्र ही शेष रह गया है।

विशेष 1. निरंतर पतन की ओर अग्रसर भारतवर्ष की दशा पर चिंता व्यक्त की गई।

  1. तत्सम शब्दावली की प्रधानता है।
  2. अनुप्रास, अन्त्यानुप्रास, रूपक और संदेह अलंकार है।
  3. भाषा सरल, सहज एवं प्रवाहमयी है।

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