1920 और 30 के दशक में बेल्जियन इतिहासकार हेनरी पिरेन ने अपनी पुस्तकों मेडिवल स्टिोज : देयर ऑरिजिन एण्ड द रिवाइवल ऑफ ट्रेड’, ‘इकोनोमिक एण्ड सोशल हिस्ट्री ऑफ मेडिवल यूरोप’ तथा ‘ मोमहम्मद एण्ड शार्लमान्य’ में सामंतवाद के उत्थान और पतन में व्यापार की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी पिरेन के अनुसार लम्बी दूरी का व्यापार, जिसे वे ‘ग्रैंड ट्रेड’ कहते थे, सभ्यताओं के फलने-फूलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है और किसी कारण से यदि इसमें बाधा पहुँचती है, तो सभ्यता की प्रगति रुक जाती है।
भूमध्यसागरीय क्षेत्र में होने वाले व्यापार ने यूरोपीय सभ्यता को शिखर पर पहुंचा दिया, क्योंकि यह न केवल समाज की आर्थिक स्थिति में सुधार लाया, बल्कि सभ्यता और संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ। अरबों द्वारा भूमध्यसागरीय क्षेत्र में आक्रमण के कारण व्यापार-वाणिज्य बाधित हुआ। पूर्व (एलेक्जेंड्रिया), पश्चिम (जिब्राल्टर) और मध्य स्थित सारडीनिया पर मुसलमानों ने कब्जा जमा लिया। यूरोपीय अर्थव्यवस्था अंतर्मुखी हो गयी। व्यापार-वाणिज्य सीमित रूपों में होता था।
लम्बे व्यापार के समाप्त होने से विचारों का आदान-प्रदान भी समाप्त हो गया। 11वीं शताब्दी में धर्मयुद्धों के द्वारा अरबों को उनके घर मध्यपूर्व तक धकेल दिया गया। पूनः लम्बी दूरी के व्यापार शुरू हुये। शहरी केन्द्र पुनः जी उठे। यह सामंतवाद के अंत का आरम्भ था। उन्होंने इस रूपांतरण का महत्त्व दिखाने के लिये ‘शहरी जीवन व्यक्ति को स्वतंत्र बनाता है’ जैसी कहावत को उद्धृत किया। इस प्रकार, पिरेन ने सामंतवाद और व्यापार के बीच आधारभूत विभाजन सम्बन्ध स्थापित किया है, जिसका चोली-दामन का साथ है।
यूरोपीय सामंतवाद को समझाने और उसे एक अवधारणा के रूप में ढालने में इसका एक महत्त्वपूर्ण योगदान है और काफी लम्बे समय तक यह इतिहासकारों के बीच बहस और विचार-विमर्श का केन्द्र बना रहा। प्रख्यात इतिहासकार जॉर्जेस ड्यूबी ने हेनरी पिरेन और अन्य इतिहासकारों द्वारा दी गयी दलीलों से अलग हटकर अपनी बात कही। ड्यूबी ने अपनी पुस्तकों ‘रूरल इकोनॉमी एण्ड कन्ट्री लाइफ इन द मेडिवल वेस्ट’ और ‘अर्ली ग्रोथ ऑफ यूरोपियन इकोनॉमी से बहस की धारा ही बदल दी।
ड्यूबी ने पश्चिमी यूरोप में मध्यकाल के दौरान श्रम और भूमि के क्षेत्र में आंतरिक विकास की ओर ध्यान दिलाया और इस युग में हो रहे परिवर्तनों पर प्रकाश डाला। श्रम की प्रक्रिया में धीरे-धीरे होने वाले बदलावों ने ग्रामीण परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया। परिवर्तन के कारण कृषक वर्ग के भीतर आपसी अन्तर बढ़ता जा रहा था। दूसरी ओर अधिपतियों के वर्ग में भी विभेद पैदा हो रहा था।
अधिपति अपनी भू-सम्पदाओं की खेती, अनाज के भण्डारण और बिक्री के लिये पूरी तरह से कारिन्दों (bailiffs) और छोटे अधिकारियों (provosts) पर निर्भर थे, जो थोड़ी ऊँची हैसियत वाले किसान थे। सामाजिक नैतिकताओं के कारण अधिपति वर्ग यह कार्य नहीं कर रहे थे। किसानों से वसूल वि गया सारा अनाज बेचकर प्राप्त हुआ सारा धन अधिपतियों को नहीं देते थे और बीच में ही हड़प जाते थे।
ये किसान धीरे-धीरे धनी होते चले गये। धीरे-धार ये कारिन्दे एक लम्बे समय के लिये भू-सम्पदाओं का हिस्सा अधिपति से ठेके पर लेने लगे। वे खुद खेती करवाते थे और तय की उपज या धन अधिपति को दे दिया करते थे। ठेके का मुनाफा-नुकसान कारिन्दों को सहना पड़ता था। धीरे-धीरे ये कारिन्दे ठेकेदार बन गये। अधिपति का कर और भू-राजस्व वसूल करने का अधिपति अधिकार भी ठेक पर लिया जाने लगा कारिन्दे खेतों में मजदूरों की नियुक्ति करते थे।
इसके लिये उन्हें मजदूरी दी जाती थी, क्योंकि उन्हें अधिपतियों के समान उनसे बेगार लेने की अनुमति नहीं थी। वे खेती सिर्फ मुनाफे के लिये करते थे। सामंती अर्थव्यवस्था में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रवेश होने लगा। अब गाँव पूँजीवादी कृषक या नव धनाढ्य वर्ग पैदा होने लगा, जो ठेठ सामती संस्कृति से मेल नहीं खाता था। वह अपनी पूँजी लगाकर लाभ कमाना चाहता था और पूरी अर्थव्यवस्था पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था।
सामंती व्यवस्था में एलौड बिल्कुल अलग थे। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्र के बाजारों का प्रभाव एलौड के कृषि कार्य पर पड़ा। उनकी फसलों के प्रकार का निर्धारण अब बाजार करने लगे। अब वे उन फसलों को उपजाने लगे, जिनसे ज्यादा मुनाफा होता था। इस तरह कुछ एलौड पूर्व पूँजीपति उत्पादक के रूप में उभरकर सामने आये। उच्च स्तर के अधिपति को किसानों से मुफ्त सामान व सेवा लेने का अधिकार था, वहीं छोटे अधिपतियों को ये विशेषाधिकार प्राप्त नहीं थे। उनकी जमीनों पर उनका अधिकार था, परन्तु उनसे तरह-तरह की सेवाएं लेने का उन्हें अधिकार प्राप्त नहीं था। मजदूर बाहर जाने लगे। मजदूरी बढ़ने से छोटे अधिपति आर्थिक तंगी के शिकार हो गये। ऐसी स्थिति में नये विकासों के दबाव में वे मजदूर रखकर बाजार के लिये खेती करने लगे।
अब श्रम को भुगतान में बदलने की छूट मिल गयी अर्थात् अब कोई श्रमिक अपने अधिपति को एकमुश्त राशि अदा कर मुक्त हो सकता था। अब कई किसान बेहतर स्थिति में थे और मेहनत के बल पर अपनी स्थिति में सुधार कर सकते थे। छोटे किसान अपना श्रम कहीं भी बेच सकते थे। श्रम बाजार का विस्तार हो रहा था। सतत और प्रबल परिवर्तन ने सामान्य परिदृश्य को बदल दिया। धीमे विकास ने लगभग सभी लोगों को प्रभावित किया। कुछ दूसरों की अपेक्षा तेजी से उठ गये।
परिणामस्वरूप समाज में एक तीखा विभाजन हुआ और समाज के सभी वर्ग इससे प्रभावित हुये। इस पूर्व परिदृश्य में एक नई अर्थव्यवस्था और एक नये वर्ग का उदय हुआ। सबसे ज्यादा नुकसान सामंतवाद को हुआ, क्योंकि सामंतवादी व्यवस्था की जड़ पर प्रहार किया गया था। सामंतवाद का पतन सामंती व्यवस्था की आंतरिक प्रक्रिया के कारण हुआ। आंतरिक विकासक्रम और बदलाव के एक अंग के रूप में शहरी केन्द्रों और व्यापार का उदय हुआ। जॉर्ज ड्यूबी और अन्य इतिहासकारों के इतिहास लेखन का एक नया रूप सामने आया। सामाजिक भेद एक ऐसी प्रक्रिया है, जो एक दिन या एक साल या एक दशक में नहीं पैदा होती है, बल्कि इसमें सदियाँ लग जाती हैं। परन्तु इसने निश्चित रूप से मध्ययुगीन पश्चिमी यूरोप के जीवन को भी पूरी तरह बदल दिया।
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