मध्ययुग में भारत का सूती कपड़ा उद्योग सबसे प्राचीन शिल्प रहा था। यहाँ विभिन्न किस्म के कपड़ों का उत्पादन होता था, जिसका निर्यात एशिया और यूरोप के विभिन्न हिस्सों में होता था। कपड़ों को रंगीन बनाने के लिए दो विधियाँ इंडोनेशियाई बाटिक विधि और पटोला विधि का प्रयोग किया जाता था।
बाटिक विधि में कपड़ों को रंग में डुबोने से पहले डिजाइन को मोम से ढक दिया जाता था और पटोला विधि में कपड़ा बुनने से पहले धागों को रंग दिया जाता था। अरबों द्वारा धनुषाकार धुनकी से रुई धुनी जाती थी और उसे बुना जाता था और बुनाई के लिए करघे का इस्तेमाल किया जाता था। मध्य एशिया और इस्लामी देशों में कालीन निर्माण एक प्रमुख उद्योग था। इसमें करघे को खड़ा करके रखा जाता था।
मिस्र और न्यूबिया में भी लंबे समय से बुनाई उद्योग मौजूद था। सेनेगल के बाढ़ वाले मैदान में कपड़े का उपयोग के पुरातात्त्विक प्रमाण मिले हैं। कपड़ों को बुनने के लिए पतले सींकचों का इस्तेमाल होता था। इथोपिया में बड़े पैमाने पर कपड़ा बनाया जाता था। चीन में महिलाएँ घरों में कताई और बुनाई का काम करती थीं। रेशम उत्पादन का काम शिल्पी किया करते थे। ईरान के सम्पर्क में आने के पश्चात् बुनाई के तरीकों में परिवर्तन आया।
सासनिद पद्धति के मोतियों के काम में चित्र भी बनाये जाने लगे। रेशम पर सोने से जरी का काम किया जाता था। चीनी लाख के रोगन की पुरानी तकनीक अपनाते थे। मध्यकाल में यूरोप में ऊन, फ्लक्स एक प्रकार के पौध के रेशे, सन, रेशम और सूत से कपड़े बनाये जाते थे। इटली, झलैंड और बेल्जिका में ऊनी वस्तुओं का निर्माण किया जाता था।
दक्षिणी इटली के ऊनी उद्योग में कुशल और अकुशल मजदूर काम पर लगाये जाते थे। इन इलाकों में भेड़ पालन किया जाता था तथा तटवर्ती क्षेत्र का प्रयोग कच्ची ऊन को धुनने सुखाने और कपड़े बनाने के लिए किया जाता था। । उत्तरी इटली में ऊन का विकास हुआ। पैटवियम में गैन्सेपे नाम से विख्यात मजबूत चित्रवल्ली बनायी जाती थी। वेरोना अच्छे किस्म के कम्बलों उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था।
8वीं शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड की विभिन्न राजशाहियों और कैरोलिंजी साम्राज के उत्तर-पूर्वी हिस्से में ऊनी उद्योग विकसित हुआ। उत्तम कोटि की पोशाकें ऊन के प्रकारों और रंगों की वजह से काफी मूल्यवान थीं। दक्षिणी फ्रांस में आरटोइस (Artois) में सेंट ओमीर (Saint-Omer), दोउई लिल्ली (Douai Lillie) और तौरनाई (Tournai) प्रमुख कपड़ा उत्पादक क्षेत्र थे। शिल्पी कपड़ों का उत्पादन विशेषज्ञता और कौशल से युक्त लोग करते थे। कपड़ों की रंगाई किसी चरण में भी की जा सकती थी।
ऊन निकालने से लेकर तैयार माल बनाने के लिए ऊन बुनने की प्रकिया को कई चरणों से गुजरना पड़ता था। महिलाएँ ऊन में तेल लगाकर कताई करती थीं। 13वीं शताब्दी में चरखे के आविष्कार ने कताई की प्रकिया में काफी सुधार किया। बाद में धागा बनाकर बुनकरों के पास भेजा जाता था। अब दो बुनकर एक साथ बैठकर काम करने लगे और चौड़े-चौड़े कपड़ों का उत्पादन करने लगे। कपड़ों को धोने का काम बड़े-बड़े कड़ाहों में किया जाता था। 13वीं शताब्दी के दौरान कपड़ा निर्माण की लघु एवं कुटीर इकाइयाँ खोली गयी। इतालवी व्यापारी दूसरे क्षेत्रों से ऊन और तैयार कपड़ों का आयात करके उनको रंगकर दूसरे क्षेत्रों में निर्यात कर देते थे।
जेनोआ में स्पीयरमैन द्वारा कपड़ों को अंतिम रूप दिया जाता था। पाइरस में कपड़ों की रंगाई कर उन्हें अंतिम रूप दिया जाता था। अब कई धुलाई मिलों की स्थापना की गयी, जहाँ पर जल का इस्तेमाल किया जाता था। 13वीं शताब्दी के दौरान नॉरफोल्क उच्च कोटि के हल्के कपड़े बनाने के लिए प्रसिद्ध था। इसमें लम्बी ऊन का इस्तेमाल किया जाता था। ऊन की केवल कंघी की जाती थी और घिसाई की जरूरत कम पड़ती थी।
कपड़ों को लाल रंग से रंगने के लिए कर्स का उपयोग किया जाता था, जो एशिया माइनर, स्पेन और पुर्तगाल से तथा नीले रंग के लिए नील भारत से यूरोप में आयात किया जाता था। सर्वप्रथम चीन ने पोर्सेलिन और सेरामिक के बर्तनों का उत्पादन शुरू किया। पोर्सेलिन एक प्रकार की एक मिट्टी होती थी, जो एक निश्चित तापमा पर गर्म करने पर वह अर्धपारदर्शी और चमकीला रूप ले लेती है। जो पेट्यून्टस (Petuntse) नाम के खनिज से प्राप्त किया जाता है। इन दोनों के सम्मिः से बर्तन कठोर और मजबूत बनता है। _एशिया में मिट्टी के बर्तनों का काफी उपयोग होता था। कुम्हार चाक को घुमाकर मिट्टी के बर्तनों को विभिन्न रूप देते थे। कच्चे बर्तनों को आग पर पकाया जाता था।
रंगीन शीशा अल्यूमिना मिले लौहमय रेत से बनाया जाता था। इन्हें रंगीन बनाने के लिए धात्विक ऑक्साइड का उपयोग होता था। धौकनी की प्रक्रिया से असमतल प्लेटों का निर्माण होता था। शीशे के टुकड़ों को जरूरत के मुताबिक जोड़ा जाता था। ग्रिसाइल नामक भूरे पेस्ट से रंग दिया जाता था।
13वीं शताब्दी में खिड़की के लिए बड़े आकार के शीशों की माँग बढ़ी। चार्टर्स और पेरिस में बड़े पैमाने पर इन शीशों का उत्पादन होने लगा। खिड़की के शीशे बनाने तथा रंगने की प्रक्रिया आसान हो गयी। वेनिस तथा यूरोप के अन्य हिस्सों में शीशे के बर्तन बनाये जाने लगे। बेल्जियम और बोहेमिया में बने शीशे के बर्तन काफी प्रसिद्ध थे।
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