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मध्यकालीन यूरोप में जनसांख्यिकी में परिवर्तन के उत्तरदायी विभिन्‍न कारकों को स्पष्ट कीजिए

 एशिया और यूरोप की जनसंख्या के सीमित मात्रा में आँकड़े उपलब्ध होने के कारण जनसंख्या में ठीक-ठीक उतार-चढ़ाव का पता लगाना मुश्किल है। फिर भी जो उपलब्ध आँकड़े हैं, उनके आधार पर एक मोटी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। दरअसल इसके आकलन के लिए भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग विधियों का प्रयोग किया गया है।

चूंकि विद्वानों ने यूरोप की जनसंख्या के आकलन में अधिक कार्य किया है. इसलिए यूरोप की जनसंख्या के उतार-चढ़ाव को अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है। एशिया के विषय में काम कम होने के कारण इसकी सही तस्वीर नहीं प्राप्त की जा सकती, किन्तु एक सामान्य जानकारी प्राप्त की जा सकती है।।

मध्य यूरोप की तुलना चीन में प्रौद्योगिकी; जैसे मुद्रण कला, नौकायन, कम्पास और बारूद का विकास पहले हुआ था। इसलिए चीन की जनसंख 600 ई. के आसपास 50-60 मिलियन थी, जो 1500 ई. में बढ़कर 110-120 मिलियन हो गई। टी के दक्षिण में कृषि क्षेत्र के प्रसार के कारण जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई, जबकि उत्तरी क्षेत्र बारहवीं शताब्दी में घुमंतू लोगों के आक्रमण और फिर तेरहवीं शताब्दी में मंगोल आक्रमण के कारण जनसंख्या में तीव्रता से कमी आई।

भारत में 600 ई. में जनसंख्या लगभग 50-55 मिलियन थी, जो 1500 ई. में बढ़कर 100-110 मिलियन हो गई। यहाँ भी हम जनसंख्या में प्रादेशिक भिन्नता देखते हैं। चूँकि गंगा नदी क्षेत्र में उपजाऊ कृषि भूमि अधिक मात्रा में उपलब्ध होने के कारण मुख्य आबादी गंगा नदी के आसपास ही बसी हुई थी। मोरलैण्ड जिन्होंने भारत की जनसंख्या का पहली बार अनुमान लगाया था।

इनके अनुसार 1600 ई. में भारत की जनसंख्या 100 मिलियन थी। बाद में शीरिम मूसवी ने कृषि भूमि के क्षेत्रफल और भू-राजस्व के आँकड़ों के आधार पर इसमें सुधार किया और बताया कि 1600 ई. में भारत की जनसंख्या लगभग 145 मिलियन के बराबर थी। विद्वानों द्वारा यूरोप की जनसंख्या पर अधिक कार्य करने के कारण यहाँ की जनसंख्या के उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाना आसान है। निम्न तालिका की मदद से छठी शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक जनसंख्या में होने वाले विकास को समझा जा सकता है। 

ऊपर दिए गए आँकड़ों से पता चलता है कि 500 ई. से पश्चिमी यूरोप की जनसंख्या में धीरे-धीरे वृद्धि शुरू होती है, किन्तु छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महामारी फैलने से जनसंख्या में कमी आने लगती है। खासतौर पर इटली की जनसंख्या में तीव्रता से वृद्धि होती है। यहाँ तक कि 650 और 1000 के बीच यह दुगनी हुई और पुनः फिर 1000 से 1340 के बीच भी दोगुनी हो जाती है।

तैरहवीं शताब्दी के अंतिम 25 वर्षों में इस वृद्धि दर में कमी आने लगती है। चूँकि चौदहवीं शताब्दी के मध्य में प्लेग के प्रकोप के कारण जनसंख्या में तीव्र गति से कमी आने लगती है और आगे 1450 आते-आते यूरोप की जनसंख्या घटकर लगभग 50 मिलियन रह जाती है, जो 1000 ई. में 73.5 मिलियन थी।

पुनः एक बार फिर 1500 ई. के लगभग वृद्धि शुरू होती है। आगे 1700 ई. के आसपास जनसंख्या 115 मिलियन तक हो जाती है। विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या अनुमान का आधार अलग-अलग है। जैसे डूम्सडे बुक के आधार पर 1085 ई. के लगभग इंग्लैण्ड की जनसंख्या 1.3 मिलि. मानी गई, जबकि फ्रांस और इटली में राजकोषीय सर्वेक्षणों के आधार पर फ्रांस में 12 से 16 मिलियन और इटली में 8 से 10 मिलियन मानी गई है।

ऐसा अनुमान व्यक्त किया जाता है कि 1050 से 1250 ई. के बीच कृषि भूमि का विस्तार, उत्पादकता में वृद्धि, प्रौद्योगिकी के प्रसार और शहरों के उदय से अच्छी जीवन-शैली और अच्छे भोजन और जन्म दर में वृद्धि के कारण जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि होती है,  जो पहले अकाल के कारण कम हो गई थी। पुनः बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में अकाल की बर्बरता एवं तीव्रता में वृद्धि होने लगती है,

किन्तु इसका प्रभाव सीमित क्षेत्रों में रहने के कारण औसत जनसंख्या पर प्रभाव नहीं पड़ता है। इसी तरह, तेरहवीं शताब्दी में शिशु मृत्यु, गर्भपात और युद्धों में कमी आने से जनसंख्या पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। यूरोप की जनसंख्या वृद्धि चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उच्चतम बिन्दु पर थी। जैसे मध्य इटली में औसतन प्रति वर्ग कि.मी. 13 से 14 घर-परिवार और कहीं-कहीं प्रति वर्ग कि.मी. में 30 परिवार तक बसे हुए थे।

आँकड़ों से पता चलता है कि जनसंख्या वृद्धि और ह्रास में कोई समानता नहीं है। जहाँ कुछ क्षेत्रों में जनसंख्या में वृद्धि होती है, तो दूसरे क्षेत्र में कमी होती है। साथ ही साथ जहाँ महामारी के प्रकोप के कारण जनसंख्या में कमी आती है, वहीं अकाल और महामारी खत्म होने पर एवं यूरोप में तीव्र गति से विकास के कारण जनसंख्या में वृद्धि होती है। इस तरह हम उपर्युक्त विश्लेषणों से यूरोप की जनसंख्या में उतार-चढ़ाव और इसके उत्तरदायी कारकों को समझ सकते हैं।  जैसा कि हम जानते हैं कि मध्ययगीन यरोप की जनसंख्या लगभग 440 मिलियन हो गई थी। यह वृद्धि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न थी।

800 ई. से मध्य काल तक कृषि, प्रौद्योगिकी और अर्थव्यवस्था में शहरी विकास और व्यापार के प्रसार ने जनसंख्या वृद्धि मुख्य रूप से योगदान दिया किन्तु प्लेग और अन्य बीमारियों से जनसंख्या को बहुत क्षति पहुँची। यहाँ तक कि जनसंख्या में एक ठहराव-सा आ गया। प्लेग जैसी बीमारियों के निम्न कारण थे। अर्थव्यवस्था के विकास के कारण शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ। इन शहरी केन्द्रों में जनसंख्या के अधिक दबाव के कारण लोग गंदे माहौल या गंदी बस्तियों में रहने के लिए अभिशप्त थे, साथ ही वहाँ पर्याप्त चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी।

इसलिए जब भी प्लेग जैसी बीमारियों का आगमन हुआ, तो इसका फैलाव वृहत् क्षेत्रों में हो गया। इसके साथ ही व्यापारिक मार्गों से इसका प्रसार अन्य क्षेत्रों में हो गया।  धीरे-धीरे इन बीमारियों ने पूरे यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया। चौदहवीं शताब्दी में प्लेग नामक महामारी का आगमन हुआ, जिसने लगभग सम्पूर्ण विश्व को हिला कर रख दिया।

यह बीमारी चूहों के द्वारा फैलती है। यह एक अति संक्रामक रोग था, जिससे मनुष्य की ग्रंथियाँ बेकार हो जाती थीं। प्लेग के होने से शरीर पर गहरे नीले और काले चकते निकल आते थे, इसलिए इसे काली मौत भी कहा जाता था। इस रोग से ग्रसित व्यक्ति की मौत तीन दिन में हो जाती थी।

जैसा कि माना जाता है कि इस रोग का आगमन सबसे पहले 1331-32 में मंगोलिया में हुआ था। वहाँ से व्यापारिक मार्गों से होते हुए 1339 ई. में क्रीमिया, 1347 में इटली, 13 में पेरिस और दिसम्बर तक चैनल, निचले देशों और दक्षिण इंग्लैण्ड तक पहुँच गया। इस बीमारी से लगभग सभी यूरोपीय देश प्रभावित हुए, यहाँ तक कि इन देशों को तबाह कर दिया। दूसरी बार प्लेग का आगमन 1360 ई. में हुआ किन्तु अब प्लेग के साथ-साथ एक और बीमारी एन्फ्लूएंजा होने के कारण स्थिति पहले से भी खराब हो गई।

प्लेग 1510 ई. तक कुछ वर्षों के अन्तराल पर आता रहा और इसके प्रकोप से लोग मरते रहे, किन्तु 1410 ई. में ही इसके आतंक एवं तीव्रता में कमी आने लगी थी।  प्लेग से मरने वालों की संख्या को लेकर इतिहासकारों में एकमत नहीं रहा है। फिर भी इतना तो जरूर है कि इससे यूरोप की पाँचवें हिस्से से लेकर

आधी जनसंख्या समाप्त हो गई थी। इंग्लैण्ड के टैक्स रिकॉर्ड के अनुसार 1388 ई. और 1415 ई. में वहाँ की जनसंख्या महामारी के पूर्व 3,125,000 थी, जबकि 1358 ई. में यह 2,750,000 हो गई। एक आकलन के अनुसार यूरोप में तेरहवीं शताब्दी की तुलना में वयस्क पुरुषों की संख्या आधी रह गई थी। चूँकि प्लेग के प्रकोप की सही-सही संख्या का पता नहीं लगाया जा सकता, परन्तु बदलती जलवायु और बढ़ती शहरी भीड़ के कारण निश्चित रूप से अधिक लोगों की मृत्यु हुई होगी।

कामकाजी पुरुष जनसंख्या में कमी आने से मूल्य, मजदूरी कृषि, मजदूर और मालिक सम्बन्ध प्रभावित हुए। कारखानों के मालिकों ने अपनी स्थिति सुरक्षित रखने के लिए कई मजदूर अधिनियम बनाए, जिससे मजदूरी स्थिर रहे। दरअसल वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि हो गई थी, इसलिए मजदूरों ने अधिक वेतन की माँग की, जिसके न मिलने के कारण धीरे-धीरे विद्रोह का रूप धारण कर लिया। 

चौदहवीं शताब्दी में यूरोप के कई देशों में वर्षा अधिक होने और शीत ऋतु में ठंड ज्यादा पड़ने से खाद्यान्न का उत्पादन अच्छा नहीं हो सका। ऐसा माना जाता है कि जलवायु में इस परिवर्तन के कारण लोगों की संक्रामक रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो गई। साथ ही साथ मध्ययुगीन जीवन-शैली, खान-पान इत्यादि ने भी रोगों को अपनी ओर आकर्षित किया।

इन्हीं कारणों से शहरों और गाँवों में टायफाइड, मधुमेह, टी.बी., मलेरिया, चेचक, इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारियों से मनुष्य ग्रसित होने लगे। अत: ऊपर के अध्ययन से पता चलता है कि इन मध्यकालीन बीमारियों ने यूरोप को विविध प्रकार से प्रभावित किया। जैसा कि हम जानते हैं कि बीमा ने जहाँ एक ओर जनसंख्या को कम किया, वहीं दूसरी ओर सामाजिक-आर्थिक असमानता को भी बढ़ाया। जनसंख्या कम होने के कारण उत्पादन में कमी आयी। फिर भी इन रुकावटों के बावजूद यूरोप अपने वाणिज्य और व्यापार के बल पर आगे बढ़ता रहा। 

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