एक प्राचीन शहर की खोज-सबसे पहले एक अंग्रेज चार्ल्स मोसन ने हड़प्पा गांव को देखा। उसने यहां की बहुत पुरानी बस्तियों तथा दीवारों को देखा। 1972 में कनिंघम इस स्वान पर आए तथा जिन्होंने कुछ पुरातात्त्विका वस्तुएं जकट्ठी की। उन्होंने यह माना कि ये वस्तुएं भारत के बाहर की है।
1924 ई. में मार्शल ने पहली बार हड़प्पा के विषय में रिपोर्ट दी तथा बताया कि यह विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। मार्शल की इस घोषणा से इतिहासविदों में हलचल मच गई कि पश्चिमोत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में एक नई सभ्यता खोज ली गई है।
हड़प्या सभ्यता का युग
जॉन मार्शल के अनुसार इस सभ्यता का काल पांच हजार वर्ष पुराना है। कनिंघम के अनुसार यह सभ्यता एक हजार वर्ष पुरानी है। मार्शल ने यह पता लगाया कि हड़प्पा से प्राप्त साक्ष्य मुहरें, ठप्पे आदि उनसे बिल्कुल भिन्न थे, जिनसे विद्वान परिचित थे तथा जो बहुत बाव के समय की थी।
इसी प्रकार गोहनजोदड़ो में प्राचीन बस्तियां बौद्ध बिहार के नीचे दबी हुई मिलीं। हड़प्पा सभ्यता के निवासी गकान के नष्ट हो जाने पर उसके ऊपर मकान बना लेते थे।
इस कारण पुरातत्त्वविदों को उत्खनन से पता चलता है कि नीचे का मकान ऊपर के मकान से पुराना है।
मार्शल को इस बात का प्रमाण मिल गया था कि इन बस्तियों के लोगों को लोहे की जानकारी नहीं थी। लोहे का प्रयोग लगभग 2000 ई.पू. में शुरू हुआ। मार्शल द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी से पता चला कि हड़प्पा से मिलती-जुलती वस्तुएं मेसोपोटामिया में भी प्राप्त हुई हैं।
यह भी पता चला कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया के निवासी समकालीन थे।
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हड़प्या पूर्व और हड़प्पाकालीन संस्कृति का कालानुक्रम
मेहरगढ़ और मिली गुलमुहम्मद जैसी बस्तियों का कालानुक्रम 5500-3500 ई. पूर्व है। यहां के लोग पशुचारण के साथ थोड़ी बहुत खेती कर लेते थे। लोग गेहू, जौ, खजूर तथा कमास की खेती करते थे।
इनके मकान मिट्टी के थे तथा वे भेड़-बकरियों को पालते थे। 3500-2600 ई. पूर्व में अनेक बस्तियां स्थापित हुई। ताबा, चाक और हल का प्रयोग हुआ तथा मिट्टी के बर्तन बनने लगे। अन का भण्डारण किया जाता था
पीपल, कुबड़ा बैल, सींगवाले देवता की आकृतियां प्राप्त हुई हैं। 2600-1800 ई. पू. के मध्य नगरों का अभ्युदय हुआ। नगर सुनियोजित तरीके से बनाए जाते थे।
समान आकार की ईटें, मिट्टी के वर्तन, सुदूर व्यापार, समकोण पर काटती सड़कें आदि इस नगरीकरण के विशिष्ट लक्षण थे।1800 ई.पू. के बाद नगर का पतन होने लगा। यहां की तकनीक और परम्परा को दूसरे क्षेत्रों में अपनाया जाने लगा।
इसे हड़प्पा की सभ्यता ही क्यों कहा जाता है?
अभी तक एक हजार से भी अधिक बस्तियों की खोज हो चुकी है। जहां से हड़प्पा की विशिष्टाएं प्राप्त होती हैं। आरंभ में यहां सभ्यता की खोज सिंधु नदी के आसपास ही हुई, इसलिए इसे सिंधु घाटी की सभ्यता का नाम दिया गया।
पुरातत्त्ववेत्ता इसे ‘हड़प्पा की सभ्यता’ कहते हैं, क्योंकि पुरातत्त्व-विज्ञान में यह परम्परा है कि जब किसी प्राचीन संस्कृति का वर्णन करना होता है, तो उस स्थान के आधुनिक नाम पर उस संस्कृति का नाम रखा जाता है, जहां उसके अस्तित्व का पहली बार पता चला था।
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पूर्ववर्ती इतिहास
हड़प्पा सभ्यता से तात्पर्य हजारों गांवों तथा उन कस्बा से है, जो लगभग 3000 ई. पू. पूर्ण रूप से विकसित हो चुके थे। इन कस्बों | और गांवों के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध थे। इन भौगोलिक स्थलों में आमतौर पर पंजाब, गुजरात, राजस्थान और पाकिस्तान के कुछ भाग आते थे।
हड़प्पा के स्थली से प्राप्त अवशेषों से शहर के अभ्युदय की जानकारी मिलती है। कुछ प्रमाण से यह साबित होता है कि हड़प्पा | के पूर्वज गांवों और छोटे-छोटे कस्बों में रहते थे। पशुचारण और व्यापार उनका पेशा था।”
कृषि की शुरुआत और बसे हुए गांव.
कृषि के अभ्युदय का सबसे प्राचीन प्रमाण मेहरगन से प्राप्त होता है। यह 5वीं सहसाब्दी में आबाब गांव था। यहां के लोग गेहू, जौ और खजूर की खेती करते थे। यहां के लोग कच्चे मकानों में रहते थे। तीसरी सहसाब्दी में अफगानिस्तान और ब्लूचिस्तान के क्षेत्र में बहुत सारे छोटे-बड़े गांव बस गए थे।
किली गुलमुहम्मद और मुंडीगाक दो महत्त्वपूर्ण गांव हैं। यहां के किसानों ने उपजाऊ मैदानों का प्रयोग किया। इसी प्रकार किसानों ने सिंधु की बात पर भी नियन्त्रण करना सीख लिया।
इस कारण बस्तियों का विस्तार होता चला गया और ये बस्तियां, सिंधु, राजस्थान और ब्लूचिस्तान में फैल गई। इस काल में अस्थायी बस्तियों और खानाबदोश समुदायों के साक्ष्य मिलते हैं।
इन खानाबदोश समुदायों के सम्पर्क से किसान अन्य क्षेत्रों के संसाधनों का प्रयोग करना सीख गया। इन कारणों से छोटे-छोटे कस्बों का विकास हुआ। | ये सारी घटनाएं आरम्भिक हड़प्पा काल की हैं।
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आरम्भिक हड़प्पा काल :
आरम्भिक हडप्पा काल को बहुत से इतिहासकारों ने ‘हड़प्पा काल’ माना है, क्योंकि उनके अनुसार यह हड़प्पा सभ्यता के निर्माण का युग था।
दक्षिणी अफगानिस्तान- यहां का सबसे प्रमुख स्थल मुंडी- डाक है। खानाबदोशों के निवास के कारण यहां की आबादी घनी हो गई और यह नगर के रूप में विकसित हो गया।
क्वेटा बाटी– यहां के दंब सादात स्थल से पुरातात्त्विक साक्ष्य पाए गए हैं, जिनमें ईटों से बने बड़े-बड़े घर प्रमुख हैं। यहां से प्राप्त साक्ष्य तीसरी सहस्राब्दी ई. पू. के हैं।
चित्रकारी किए हुए मिट्टी के बर्तन मुंडीडाक से प्राप्त बर्तनों से काफी समानता रखते हैं। साक्ष्यों से पता चलता है कि वे लोग सम्पन्न थे।
मध्य और दक्षिणी ब्लूचिस्तान- इस क्षेत्र के बालाकोट. अंजीरा तोगाऊ. निदोबाड़ी बस्तियों से आरम्भिक हड़प्पा सभ्यता की जानकारी मिलती है। बालाकोट में विशाल भवनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस क्षेत्र से प्राप्त साक्ष्यों से बालाकोट का फारस की खाड़ी से सम्पर्क होने का संकेत मिलता है।
कालीबंगन- राजस्थान में अवस्थित इस स्थान से पूर्व हदण्या काल के प्रमाण मिले हैं। वे मकान बनाने के लिए मानक आधार बनी कच्ची ईटों का प्रयोग करते थे।
इस स्थान की सबसे बड़ी विशेषता यह भी कि यहां के प्रत्येक मरों में कंए थे। इनके मिट्टी के बर्तन आकार और डिजाइन में अलग थे, किन्तु कोटदीजी के बर्तनों से समानता रखते थे।
यहां से जुते हुए खेत का साक्ष्य भी प्राप्त हुआ है। इससे साबित होता है कि वे लोग हल से परिचित थे। वे कुदाल और फावड़े का प्रयोग खुदाई के लिए करते थे।
घाघर नदी की तलहटी में अनेक हड़प्पा (आरम्भिक) कालीन बस्तियां प्राप्त हुई है। सोथी और सीसवान से प्राप्त मिट्टी के बर्तन कालीबंगा के बर्तनों से मेल खाते हैं। ऐसा संकेत मिलता है कि राजस्थान के खेतड़ी के तांचे की खानों से तांबा निकालने का काम आरम्भिक हड़प्पा काल से ही शुरू हो गया था।
लूचिस्तान, सिंधु, पंजाब और राजस्थान में छोटी-छोटी कृषक बस्तियां पाई गई हैं। बाद में इन क्षेत्रों में अनेक क्षेत्रीय परम्पराओं का जन्म हुआ।
किन्तु एक प्रकार के बर्तन, सिंग वाले देवता तथा मृणमूर्तियों से पता चलता है कि सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी।
इस काल के दौरान किसानों ने सिंधु नदी के मैदानों में अनेक बस्तियां बसाई। वे कांसे और तांबे का प्रयोग करते थे। ईरान में भेड़-बकरियां पाली जाती थी, तो मिस पाठी मि गाम और से ने मारा जाते थे।
यातायात के लिए पशुओं का प्रयोग करते थे। मिट्टी की मातृदेवी की मूर्तिकाएं बनाई गई। इसी प्रकार की घटनाएं मेसोपोटामिया में भी साथ-साथ घटित हो रही थीं।
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हड़प्पा सभ्यता : स्रोत
इस सभ्यता के बारे में जानकारी के सबसे अच्ने सोत पुरातात्विक है, जो हदप्या, महिनजोरदाय स्थलों की सुबाई से प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों की गहराई से अध्ययन के उपरांत इस सभ्यता से सम्बद्ध जानकारियां प्रस्तुत की गई हैं।
अभी तक 1500 से अधिक स्थलों की खोज हो चुकी है, जहां से हड़प्पा सभ्यता के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। हालांकि हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश स्थल अभी भी खुदाई का इंतजार कर रहे हैं।
हाकला पारी के गंबेरीबाला तथा पंजाब का फुकस्लान ऐसे स्थल हैं, जो हड़प्या नगर की बराबरी करते हैं। पर्याप्त धन का अभाव सुवाई कार्य में बाधा पहुंचा रहा है।
आरम्भ में हीलर ने लिखा है कि सिंधु घाटी में हडप्पा सभ्यता पूरी तरह विकसित थी तथा इससे पूर्व के लोगों और हड़प्पा में कोई सभ्यता नहीं थी, परन्तु अद्यतन स्रोत इस बात को गलत ठहराते हैं।
हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु घाटी में तथा उसके आसपास ही हुआ और उसके विकसित होने में काफी समय लगा।
भौगोलिक विस्तार
विद्वानों का मानना है कि इस सभ्यता का केन्द्र बिन्दु हड़प्पा, घग्घर, मोहनजोदड़ो का क्षेत्र है। अधिकांश बस्तियां इसी क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इन बस्तियों में कुछ खास किस्म की समानताएं पाई गई हैं। यहां के लोगों के जीवनयापन के तरीके एक से थे। इसकी पश्चिमी सीमाएं शुष्क है।
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नौशादी, जुबेड़जोदड़ो, अलीमुराद, सुत्कांगठार, सुटकामोत्त इत्यादि स्थल इसी भाग में पढ़ते हैं। शोर्तुपई जैसी बस्ती जो अफगानिस्तान में पड़ती है. हड़प्पा सभ्यता से अलग-थलग बस्ती थी।
इस सभ्यता की पूर्वी सीमा उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर है। मनपुर, बड़गाव इसी क्षेत्र में थे, जहां की जलवायु उनके अनुकूल थी। उत्तर में मांडा इस सभ्यता की सीमा है। महाराष्ट्र में दैमाबाद तथा गुजरात में भगतराव इस सभ्यता की दक्षिणी सीमा है।
भौगोलिक भिन्नता के कारण गुजरात में बसावट का स्वरूप एक-सा नहीं है। यहां के लोग चावल, ज्वार-बाजरा इत्यादि अनाजों का इस्तेमाल किया करते थे।
इस सभ्यता का विस्तार तत्कालीन मेसोपोटामिया तथा मिस्त्र से भी अधिक था। हालांकि हड़प्पा की बस्तियां घनी नहीं थीं। वे बिखरी हुई थीं।
राजस्थान और गुजरात के बीच सैकड़ों किमी, रेगिस्तान और दलदल था। शोधोई के | सबसे निकट का हड़प्पाई क्षेत्र भी लगभग 300 किमी. दूर था। इन खाली जगहों में आदिम और खानाबदोश जातियां रहती होंगी।
हड़प्पा के नगरों की जनसंख्या काफी कम थी। इस सभ्यता के सबसे बड़े नगर मोहनजोदड़ो की आबादी लगभग 35,000 थी, जो आज के छोटे से छोटे कस्बे की आबादी से भी कम थी।
हड़प्पा सभ्यता में परिवहन का सबसे तेज साधन बैलगाड़ी था। लोहे से लोग अनभिज्ञ थे। फिर भी उसी पुरानी प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर उन्नत सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था कायम करना उनकी अद्वितीय उपलब्धि थी।
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हड़प्पा का हास : पुरातात्त्विक साक्ष्य
नगर नियोजन तथा निर्माण में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा आदि जैसे नगरों का क्रमिक हास हुआ। शहर तेजी से तंग बस्तियों में बदलते गए। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि मोतनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के अनेक मार्ग अवरुद्ध हो गए।
बाद में इसका और अन्न भण्डारों का उपयोग पूर्ण रूप से समाप्त हो गया। इसी समय मोहनजोदडो में मणमूर्तियों, मनका. चड़ियों इत्यादि में कमी दिखाई देती है।
साक्ष्यों से पता चलता है कि हड़प्पा परित्याग से पहले एक और जनसमूहां माया मा जितको जानकारी उनके मृतकों के दफनाने की पद्धतियों से मिलती है।
बतावलपुर क्षेत्रों में हड़प्पाकालीन और उत्तर तड़प्पाकालीन स्थलों के शहरी नमूना के अध्ययन से भी हास के लक्षण दिखते हैं।
ऐसी संभावना है कि की छीन सौ व उवा लिनता के मूल स्थान में अस्तिनों का काम हटाहा भातसमूह या तो नष्ट | हो गए या अन्य क्षेत्रों में चले गए थे।
इस सभ्यता के सुदूर क्षेत्रों जेरात, राजस्थान तथा पंजाब के क्षेत्रों में लोग रहते रहे, किन्तु उनके जीवन में परिवर्तन आ गया। मेसोपोटामिया के साहिता से मिलना म के भन्न ता मयामी का असर कहा जा सकता है कि सिंधु नदी के नगरों का परित्याग 1800 ई.पू. के आसपास हुआ
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हड़प्पा परम्परा का प्रसार
पतनोपरांत हड़प्पा समुदाय कृषि समूहों में परिवर्तित हो गया, ऐसा नहीं था। हालाकि राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था में केत्रीय निर्णायन कार्य समाप्त हो गया था।
जो हड़प्पा समुदाय नगर चरण के बाद भी बना रहा. उन लोगों ने जरूर पुरानी परम्पराओं को बनाए रखा। हड़प्पा के पुरोहित अत्यन्त संगचित शिक्षित परम्परा के अंग थे। साक्षरता समाप्त हो गई, तब भी इस बात की संभावना है कि उन्होंने अपनी धार्मिक प्रथाएं बनाए रखी होंगी।
हड़प्पा सभ्यता की भौतिक विशेषताओं के अंतर्गत हड़प्पा सभ्यता की नगर-योजना, मिट्टी के बर्तन, औजार और उपकरण, कला एवं दस्तकारी, लिपि और जीविका के स्वरूप पर विचार किया गया है
1.नगर-योजना– मॉर्टिमर व्हीलर और स्टूआई पिग्ट आदि पुरातत्त्वविदों के अनुसार हड़णा-सभ्यता के नगरों की संरचना और बनावट में एकरूपता थी। प्रत्येक नगर दो भागों में बंटा होता था
हडप्पा और मोहनजोदड़ों में भवनों और इमारतों के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया। कालीबंगन में कच्ची ईंटें प्रयोग की गई। सिंधु में कालदीजी और आमरी जैसी बस्तियों में नगर की किलेबंदी नहीं थी।
गुजरात में स्थित लोथल का नक्शा भी अलग है। यह बस्ती आयताकार थी, जिसके चारों ओर ईंट की दीवार का घेरा था। इसे दुर्ग और निचले शहर में विभाजित नहीं किया गया था। शहर के पूर्वी सिरे में ईंटों से निर्मित कुण्ड था।
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हड़प्पा सभ्यता के निवासी पकी हुई और बिना पकी ईंटों का प्रयोग करते रहे थे। ईंटों का आकार एक जैसा होता था। इससे पता चलता है कि ईटें बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता था।
इसी तरह मोहनजोदड़ो जैसे शहरों में सफाई की व्यवस्था उच्चकोरि की भी। परों का बेकार पानी नालियों से होकर बड़े नालों में चला जाता था, जो सड़कों के किनारे एक सीध में होते थे।
कुछ विशाल इमारते- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगन में किले के क्षेत्रों में बढ़ी विशाल इमारतें थीं। इनका प्रयोग विशेष कार्यों के लिए किया जाता होगा।
ये इमारतें कच्ची इंटों से बने ऊंचे-ऊंचे चबूतरों पर खड़ी की गई थीं। इनमें से एक इमारत, मोहनजोदड़ो का प्रसिद्ध ‘विशाल स्नान कुण्ड’ है। ईंटों से बने इस कुण्ड की लम्बाई-चौड़ाई 12 मी. x 7 मी. और गहराई 3 मीटर है। इस तक पहुंचने के लिए दोनों तरफ सीढ़ियां हैं।
कुण्ड के लिए पानी पास ही एक कक्ष में बने बड़े कुएं से आता था। कुण्ड के चारों तरफ मण्डप और कमरे बने हुए थे।
मोहनजोदड़ो के किले के टीले में पाई गई एक और महत्त्वपूर्ण इमारत अन्न-भण्डार है। इसमें इंटों से निर्मित सत्ताईस खण्ड हैं, जिसमें प्रकाश के लिए आड़े-तिरछे रोशनदान बने हैं।
अन्न भण्डार के नीचे ईंटों से निर्मित खांचे थे, जिनसे अनाज को भण्डारण के लिए ऊपर पहुंचाया जाता था।
विशाल स्नान-कुण्ड के एक ओर एक लम्बी इमारत (230 x 78 फुट) है। यह किसी बड़े उच्चाधिकारी का निवास स्थान रहा होगा। इसमें 33 वर्ग फुट काबुला आँगने और उस पर तीन बरामदे खुलते है।
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एक सभा की भी जिसमें पांच पानांहों की ऊंचाई की चार चबूतरों की पंक्तियां थीं। यह ऊंचे चबूतरे ईंटों के बने हुए थे।
उन पर लकड़ी के खंभे खड़े किए गए थे। इसके पश्चिम की ओर कमरों की एक कतार में एक पुरुष की प्रतिमा बैनी ई महामें पार्क गई हड़प्पा के अन्न भण्डार में एक क्रम में इटों के चबूतर बन हुए थजी अन्न भंडारी के लिए नीव का काम करते थे। इन पर बने अन्न-भंडारों की दो कतारें थीं।
प्रत्येक कतार में छः अन-भंडार थे। फर्श की दरारों में पाया गया गेहूं और जौ का भूसा यह सिद्ध करता है कि इन गोल चबूतरों का प्रयोग अनाज गाहने (अनाज से भूसी अलग करने) के लिए होता था।
कालीबंगन में की गई खुदाई में सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है, अग्नि-कुण्डों का पाया जाना। यहां इंटों के बने बहुत से चबूतरे पाए गए हैं। एक चबूतरे पर एक पंक्ति में बने सात ‘अग्नि-कुण्ड’ और एक गड्ढे में पशुओं की हड्डियों तथा मृगशृंग की प्राप्ति हुई है।
घरों की बनावट- सामान्य नागरिक निचले शहर में भवन समूहों में रहा करते थे। एक कोठरी वाले मकान दासों के रहने के लिए थे। हड़प्पा में अन गंडार के नजदीक भी इसी तरह के मकान पाए गए हैं।
दूसरे मकानों में आंगन और बाहर तक कमरे होते थे। अभि क बड़े मकानों में कुएं, शौचालय एवं गुसलखाने भी थे। इन मकानों में एक चौरस प्रांगण और चारों तरफ कई कमरे होते थे। घरों में प्रवेश के लिए संकीर्ण गलियों से जाना पड़ता था।
मुर्गों की हड्डियां भी मिली हैं। जंगली जानवरों की हड्डियां भी बड़ी संख्या में पाई गई हैं। उनमें हिरण, गैडे, कछुए आदि की हड्डियां सम्मिलित हैं।
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हड़प्पा काल में लोग घोड़ों के विषय में अनभिज्ञ लगते हैं। हड़प्पा सभ्यता की बस्तियों में गेहूं की दो किस्में अधिक पाई गई हैं।
अन्य फसलों में खजूर और फलदार पौधों की किस्में सम्मिलित हैं, जैसे कि पटर इस काल में सरसों और तिल की फसल भी सम्मिलित थी। लोथल और रंगपुर में चिकनी मिट्टी में और मिट्टी के बर्तनों में चावल की भूसी दबी हुई मिली है।
मोहनजोदड़ो में सूती कपड़े का एक टुकड़ा पाया गया है। इससे प्रकट होता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग कपास की खेती करने और कपड़े बनाने-पहनने की कला में निपुण हो चुके थे।
कालीबंगन में खांचेदार खेत के प्रमाण यह स्पष्ट करते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। इस प्रकार हड़प्पा-युग में जीवन-निर्वाह की व्यवस्था अनेक प्रकार की फसलों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों पर निर्भर थी। इस विविधता के कारण ही जीवन निर्वाह व्यवस्था दृढ थी।
वे प्रतिवर्ष एक साथ दो फसलें उगा रहे थे। इससे अर्थव्यवस्था इतनी दृढ़ थी कि नगरों में रहने | वाली और अपने लिए अन्न का उत्पादन खुद न करने वाली बड़ी जनसंख्या का वे भरण-पोषण कर सकते थे।
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