लगभग 20 लाख वर्ष पहले से लेकर लगभग 10 हजार वर्ष पहले तक का काल पुरातत्व की भाषा में पुरापाषाण युग कहलाता है
पूर्व पुरापाषाण की पहचान प्राय: दो प्रकार के औजारों की उपस्थिति से की जाती है- (i) गंडासा (चोपर) और (ii) कुल्हाड़ी।
- गंडासे को विशेषकर गैर-भारतीय संदर्भ में कलाड़ी से पहले माना जाता है।
- मध्य पुरापाषाणकालीन औजारों की पहचान शल्कों (Flake) से होती है। यहां औजार अधिकतर करेदने व छीलने वाले होते थे।
- उत्तर पुरापाषाण युग में धार वाले (Blade) औजारों का अधिक चलन था।(i) पूर्व पुरापाषाण में स्फटिक (quartrite) पत्थर का अधिक प्रयोग था।(ii) मध्य पुराणाधाण में जिस्मा का अधिक प्रयोग था
पूर्व और मध्य पुरापाषाण युगों में औजार बनाने की प्रौद्योगिकी अपेक्षाकृत सरल थी। शल्कों को मूल अश्म पिण्डों अर्थात पत्थरों के टुकहाँ से पृथक् कर दिया जाता है।
पूर्व पुरापाषाण युग में गंडासे जैसे औजारों को सिरों पर हीला जाता था, कुल्हाड़ी या हस्तकुठारों को दोनों आर से छीले गए (द्विमुखी) औजार भी कहा जाता था।
औजार बनाने की प्रौद्योगिकी में वास्तविक परिवर्तन शायद मध्य पुरापाषाण काल से, पर अधिक स्पष्ट रूप में उत्तर पुरापाषाण काल से आता है। उस युग में अश्म पिहों को सावधानीपूर्वक तैयार किया जाता था,
जिससे कि पत्थर के एक ही टुकड़े से अनेक फलक निकाले जा सकें। इसके लिए महीन दाने वाले पत्थरों को प्रयुक्त किया जाता था। इसकी उपयोगिता इस प्रकार थी
- तेज धार वाले औजार बन जाते थे।2 इस प्रौद्योगिकी से थोक उत्पादन भी हो जाता था।
- इसमें औजार बनाने के अधिक सक्षम तरीके का प्रयोग होता था।
उत्तर पुरापाषाणकाल के औजार प्रचुर थे। उनका उपयोग विभिन्न कामों के लिए किया जा सकता था। इसी काल में औजार बनाने में हड्डी का प्रयोग भी हुआ।
औजारों के आकार का धीरे-धीरे छोटा होता जाना पुरापाषाण काल की विशेषता है। सबसे बड़े औजार पूर्व पुरापाषाण काल में मिलते हैं।
ये मध्य भारत के स्थलों; जैसे-भीमबेटका अथवा होशंगाबाद जिले के आदमगढ़ पहाड़ी क्षेत्र में पाए गए हैं। जहां पूर्व और मध्य पुरापाषाणकाल के इंसानों के व्यवसायों की पहचान अधिकाधिक छोटे आकार के औजारों से होती है।
पुरापाषाण काल के औजार अनेक संदों में उपलब्ध होते हैं
इन औजारों की उपलब्धि से पुरापाषाणयुगीन मनुष्य के वास्तविक आवास क्षेत्रों का संकेत नहीं मिल पाता पर इससे नदी के बहाव से आ जाने वाले हथियारों का पता चलता है।
अधिक खुले क्षेत्रों की अपेक्षा पत्थर के बसेरों से बेहतर साक्ष्य मिल पाते हैं, क्योंकि वहां प्रारंभिक मानव काफी समय तक रहा होगा।
भौगोलिक दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों की प्रारंभिक मानव अपने निवास के लिए अधिक पसंद करते होंगे जैसे
- पत्थरों वाले क्षेत्र जहां उन्हें औजारों के लिए कच्चा माल मिल जाता होगा।
- पानी वाले क्षेत्र आदि।
वे घनी वनस्पति वाले ऐसे क्षेत्रों से बचते रहे होंगे; जैसे-केरल में हैं। यही कारण है कि पुरापाषाण स्थल हमें प्रायः निम्न स्थानों पर | मिलते हैं
- हिमालय की तलहटी में।
- मध्य भारत की पहाड़ियों की सीमा से लगे गंगा का किनारी पर
- थार रेगिस्तान के किनारों पर और
- अधिकांश मध्य तथा प्रायद्वीपीय भारत में
- गुफाओं के भित्तिचित्र,
- चट्टानी बसेरे।
भौगोलिक दृष्टि से ये उन क्षेत्रों तक सीमित हैं, जहां शैल समूह उपलब्ध हैं। जैसे-मध्य भारत के विस्तृत बलुआ पत्थर के समूह, जहां ऐसे बसेरे प्रायः पाए जाते हैं, जिनमें चित्रकारी की गई है।
संग्रहण के दृश्यों पर कान्द्रत हा शिकार के चित्रण का यथाथ शिकार को प्रभाविता के अब म देखा गया है अथात चित्रण में जानवर का मारने से यही बात व्यवहार में भी सुनिश्चित होगी। प्रारंभिक चित्रकारी की सही तिथि निश्चित करना कठिन है।
सही तिथि का पता करना कठिन होने पर भी सापेम तिथियों को सरलतापूर्वक ज्ञात किया जा सकता है। कारण मत्त है कि चित्रकारी प्रायः एक के ऊपर एक की गई है।
अत: यह ज्ञात करना संभव है कि कौन-सी चित्रित सतह पहले की है, पर प्रत्येक सतह की तिथियों का अथवा प्रत्येक सतह के मध्य व्यतीत हुए समय का पता लगाना कठिन है।
जिन गुफा बसेरों में बसावटी निक्षेप हैं, उनका उत्खनन कर चित्रकारियों का सम्बन्ध डिपाजिट (निक्षेप) से जोड़ा जा सकता है।
उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के एक प्रसिद्ध गुफा आश्रय परिसर भीमबेटका में एक बसेरे में प्राप्त चित्रों का निर्धारण उत्तर पुरापाषाण काल में किया गया, क्योंकि वे हरे वर्णक (Pigment) में चित्रित थे।
इसका सम्बन्ध हरे वर्णकों के उन टुकड़ों के आधार पर जोड़ा गया था. जो बसेरे के भीतर बसावटी (Occupation) सतहों में उपलब्ध हुए थे। इन्हें उत्तर पुरापाषाण प्रागैतिहासिक चित्रकारी का संकेतक माना. किंतु प्रारंभिक चित्र लाल रंग में भी पाए गए हैं।
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