पुरातत्व उस विषय को कहते है, जिसमें इतिहासिक महत्व की प्राचीन बैस्तुओं का अध्ययन किया जाता है, लेकिन इसे एक परिभाषा में व्यक्त करना आसान नहीं है, क्योकि इसका स्वरूप बहुआयामी है। पुरातत्व अंग्रेजी भाषा के Archaeology का हिंदी रूपांतरण है।
यह यूनानी भाषा को दी शब्द archaids और logos मिलकर वन अलिपानि या पुराना और Logos का अर्थ है जान। इस प्रकार Archaeology का शाब्दिक अर्थ प्राचीन या पुराना ज्ञान है।
इस शब्द का प्रारम्भ में उपयोग पुरा-अवशेषों के संकलन के अपवन के रूप में हुआ था। तथा विशेषकर यूनान और रोम के पुरा-अवशेषों के सन्दर्भ में, क्योंकि इन देशों के अतीत के अध्ययन से ही पुरातत्व का विकास हुआ, लेकिन इस विषय के ज्ञान विस्तार के साथ-साथ पुरातत्व की परिभाषाएँ भी विकसित होती गयी।
डॉ. संकालिया के अनुसार पुरातत्व का मूल रूप में अर्थ पुरा-अवशेषों का ही अध्ययन है।कोई समय था जब पुरातत्व का लक्ष्य उत्खनित कलात्मक समाग्री को इकट्ठा करके संग्राहलयों में सजाना होता था, लेकिन पुरातत्व का क्षेत्र अब अत्यंत व्यापक हो गया, इसलिए कहा जाने लगा है कि पुरातत्व मानव के अतीत का अध्ययन है।
गार्डन चाइल्ड के अनुसार पुरातत्व सुस्पष्ट भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन है। ग्राहम काल्र्क के शब्दों में पुरातत्व को मानव आतीत के इतिहास की संरचना के लिए पुराअवशेषों के क्रमवध्य अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
पुरातात्विक स्रोत
पुरातत्व के अंतर्गत अतीत को समझने के लिए हम मूर्तियों, मृद्भाड, हड्डियों के टुकड़े पर के अवशेषा, सिक्कों (मुद्राएं) शिलालेख या अभिलेख आदि पुरातात्विक स्रोत की सहायता से भौतिक संस्कृति का अध्ययन करते हैं।
ये पुरातात्विक स्रोतों के अध्ययन के आधार पर ऐतिहासिककाल का पुननिर्माण किया जाता है। 1920 के दशक तक यह माना जाता था कि भारतीय सभ्यता की शुरूआत लगभग छठवीं शताब्दी बी.सी.ई से शुरू हो गयी थी
लेकिन मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई के साथ भारतीय सभ्यता के 5000 बी.सी.ई. में अस्तित्व में आने का पता चला। अब पुरातत्व की सहायता से यह ज्ञात हुआ है कि माषाण काल की अवधि से ही कम या अधिक बस्तियों की बसावट प्रारंभ हो गयी थी।
प्रमुख पुरातात्विक तरीकों में उत्खनन और अन्वेषण, जैसे तरीके महत्वपूर्ण हैं। इनके द्वारा हमें सभ्यता की उत्पत्ति, प्रसार, निवास व जीवन निर्वाह का प्रकार, शहरीकरण, व्यापार, कृषि, अर्थव्यवस्था आदि का ज्ञान होता है।
किसी सभ्यता के बारे में जानने के लिए मुद्राशास्त्र (सिक्कों का अध्ययन) भी किया जाता है। पुरातात्विक स्रोतों को मुख्यतया मुद्राओं (सिक्कों) शिलालेख (अभिलेख) तथा स्मारक आदि में बांटा जा सकता है।
सिक्के
उत्खनन में सिक्के मुद्रा भंडार के रूप में पाए जाते हैं। सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहा जाता है। 206 ईसा पूर्व से लेकर 300 ईस्वी तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से ही प्राप्त हो पाता है।
इसके पूर्व के सिक्कों पर लेख नहीं मिलता और उन पर जो चिह्न बने हैं उसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है। ये सिक्के आहत सिक्के या पंच मार्क सिक्के कहलाते हैं।
धातु के टुकड़ों पर ठप्पा मारकर बनाई गई बुद्धकालीन आहत मुद्राओं पर पेड़, मछली. सांड, हाथी, अर्धचंद्र आदि वस्तुओं की आकृतियां होती थीं।
बाद के सिक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तथा तिथियां भी उल्लेखित हैं। इस प्रकार की मुद्राओं के आधार पर अनेक राजवंशों के इतिहास का पुनर्निर्माण संभव हो सका है,
विशेषकर उन हिंद-यूनानी शासकों के इतिहास का, जो उत्तरी अफगानिस्तान से भारत पहुंचे थे और ईसा पूर्व द्वितीय से प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तक यहां शासन किय।
मुद्राओं का उपयोग दान-दक्षिणा, क्रय-विक्रय तथा वेतन-एजदूरी के भुगतान में होता था। शासकों की अनुमति से व्यापारिक संघ (श्रेणियों) ने भी अपने सिक्के चलाए थे।
सर्वाधिक मात्रा में मुद्राए मौर्योत्तरकाल में मिला है जो सीसा, पाटीन, ताबा, कास, चादी तथा सोने की है। कुषाण शासका द्वारा जारी स्वर्ण सिक्कों में जहां सर्वाधिक शुद्धता थी वहीं गुप्त शासकों ने सबसे अधिक मात्रा में स्वर्ण सिक्के जारी किए।
मद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा संबंधि त राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञाच हो जाता है। कतिष्क के सिकका से उसका बोद्ध धर्म का अनुयायी होका अनाजित होता है।
समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर यूप (यज्ञ स्तंभ) बना है जबकि कुछ अन्य सिक्कों पर अश्वमेध पराक्रमः शब्द उत्कीर्ण है, साथ ही उसे वीणा बजाते हुए भी दिखाया गया है।
इंडो-यूनानी तथा इंडो-सीथियन शासकों के इतिहास के मुख्य स्रोत सिक्के ही हैं। सातवाहन राजा शातकर्णी की एक मुद्रा पर जलपोत अकित होने से उसके द्वारा समुद्र विजय का अनुमान लगाया गया है।
चंद्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्र शैली की चांदी की मुद्राओं में उसके द्वारा पश्चिम भारत के शकों पर विजय सूचित होती है।
शिलालेख
ये शिलालेख पाषाण शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं पर उत्खनित हैं। सबसे प्राचीन शिलालेख जिन्हें पढ़ा जा सका है, अशोक के हैं।
अशोक के शिलालेखों की भाषा प्राकृत है। कर्नाटक राज्य के रामचूर के पास स्थित मस्की तथा गुन्जर्ग (दतिया) मध्य प्रदेश से प्राप्त शिलालेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।
उसे प्रायः देवानाम पिय पियदस्सी (देवताओं का प्रिय, प्रियदर्शी) राजा कहा गया है। अशोक के अधिकांश शिलालेख बाहमी लिपि में हैं. जो बाएं से दाएं लिखी जाती थी। पश्चिमोत्तर प्रांत से प्राप्त उसके ।
शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं जो दाएं से बाएं लिखी जाती थी। पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्राप्त अशोक के शिलालेखों में यूनानी और अमराइक लिपियों का प्रयोग हुआ है।
अशोक के शिलालेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता (1837 ईसवी में) जेम्स प्रिंसेप को मिली। सबसे अधिक प्राचीन शिलालेख 2500 ईसापूर्व की हड़प्पाकाल के हैं जो मोहरों पर भावचित्रात्मक लिपि में अंकित हैं, जिनका प्रामाणिक पाठ अभी तक नहीं हो पाया है। चाहे कितने भी दावे क्यों न किए जाते हों।
शिलालेखों के अनेक प्रकार हैं। कुछ शिलालेखों में अधिकारियों और जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक राज्यादेश एवं निर्णयों की सूचना रहती है।
जैसे-अशोक के शिलालेख। दूसरे प्रकार के वे आनुष्चानिक शिलालेख हैं जिन्हें बौद्ध, जैन, बैष्णव आदि संप्रदायों के मतानुयायियों ने स्तंभों, प्रस्तर फलकों, मंदिरों एवं प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण कराया तृतीय श्रेणी के वे शिलालेख हैं जिनमें राजाओं की विजय प्रशस्तियों का वर्णन है।
लेकिन उनके दोषों का उल्लेख नहीं है। प्रशस्ति शिलालेखों में प्रसिद्ध हैं-खारवेल का हाथीगुफा शिलालेख। शक क्षत्रप सद्रदामन का गिरनार जूनागढ़ शिलालेख, सातवाहन नरेश पुलमाबी का नासिक गुफालेख, समुद्रगुप्त का हरिषेण द्वारा रचित प्रमाग स्तंभ लेख, मालवराज यशोधर्मन का मंदसौर शिलालेख, मालुक्य पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल शिलालेख (रविकीर्ति), प्रतितार नरेश भोजराज का ग्वालियर शिलालेस, स्कंद गुप्त का भीतरी तथा जूनागढ़ शिलालेस, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा शिलालेख इत्यादि।
गैर राजकीय शिलालेखों में यवनदूत हेलियोठोरस का बेसनगर विदिता से प्राप्त गरून स्तंभलेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनसे द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के मध्य भारत में भागवत धर्म के विकसित होने का प्रमाण मिलता है।
एरण मध्य प्रदेश से प्राप्त वराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण का लेख अंकित है। दक्षिण भारत के पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पांड्य और चोल वंश का इतिहास लिखने में इन शासकों के शिलालेख बहुत ही उपयोगी साबित होते हैं।
स्मारक
शिलालेखों तथा मुद्राशास्त्र के अतिरिक्त पुरातन अवशेष स्मारक के रूप में अतीत को समझने के लिए उपयोगी है। कुषाणकाल, गुप्तकाल और गुप्तोत्तरकाल में जो मूर्तियां निर्मित की गई उनसे जनसाधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्तिकला का ज्ञान मिलता हैं।
कुणिकालीन मूर्तियों में जहां विदेशी प्रभाव अधिक है, वही गुप्तकालीन मूर्तिकला में स्वाभाविकता परिलक्षित होती है जबकि गुप्तोत्तर कला में सांकेतिकता अधिक है।
भुरोधगया सांजी और ममावती की मूर्तिकला में जला मामा के जीवन को सशांकी मिलती है। मध्ययुगीन स्मारकों से शासक वर्ग के वैभव का पता चलता है।
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