भागीदारी से वन प्रबंधन और अधिकार : वन की नियति में दिलचस्पी रखने वाले सभी पक्षों को इसकी योजना बनाने, प्रबंधन और लाभ की साझेदारी में सम्मिलित होना चाहिए। अधिकारों का संतुलन सार्वजनिक स्वामित्व वाले अत्यधिक संरक्षित क्षेत्रों के रूप में समाज के हितों की ओर उन्मुख हो सकता है। राज्य स्वामित्व और प्रबंधन को बनाए रखा जा सकता है लेकिन दीर्घोपयोगी रूप से इमारती लकड़ी की कटाई की अनुमति होनी चाहिए| अभी तक विश्व के अधिकांश उष्णकटिबंधी वन राज्य /राष्ट्र के स्वामित्व वाले हैं लेकिन वनों के स्वामित्व मेँ समुदाय की भागीदारी को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। वन अपरूपण की समस्या को संबोधित करने के लिए भूमि सुधार अनिवार्य है। यद्यपि इन सुधारों को मजबूत करने के लिए किसानों के हित में एक सशक्त स्थानांतरण की आवश्यकता है। यही नहीं, स्थानीय वन निवासियों तथा अन्य जनों के अधिकारों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो अक्षुण्ण वनों पर निर्भर करते हैं। इसलिए, स्थानीय निवासियों के पारंपरिक कानूनों की स्थानीय अधिकारों के रूप में पहचान से वनों के स्वामित्व और प्राकृतिक संसाधनों के उपयोगक से संबन्धित पारंपरिक और वैधानिक नियम कानूनों के बीच विवाद को संबोधित किया जा सकेगा और साथ ही वन संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित होगा। इसको ध्यान में रखते हुए, विभिन्न राज्य सरकारों ने भारत में संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम को क्रियान्चित किया, सबसे पहले यह 1970 में. हरियाणा और पश्चिम बंगाल में सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हुआ।
वनों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों अधिकारों
में दीघोपयोगी उपयोग, जैव विविधता के संरक्षण और पारिस्थितिक
संतुलन बनाये रखने के लिए दायित्व और अधिकार सम्मिलित है और इस प्रकार वन निवासी
अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा को
सुनिश्चित करने के साथ ही वनों के संरक्षण की सामाजिक व्यवस्था को मजबूत किया है।
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