मैला आंचल : सामाजिक संदर्भ
'मैला आंचल * का सामाजिक संदर्भ भी उपन्यास के प्रथम अध्याय से ही उद्घाटित
होने लगता है। मेरीगंज गांव ब्राहर की दुनिया से इतना अधिक कटा है कि 1942 के
जन-आंदोलन की खबरें भी यहाँ अफवाहों के रूप में ही अधिक पहुंची हैं, वास्तविकता के रूप में कम।
दूसरी
बात जो स्पष्ट, रूप से शुरू मे ही उमर आती है वह है गांव का
जातिगत विभाजन। तीन प्रमुख टोलों - मालिक यानि कायस्थ टोला, राजपूत
टोला और यादव टोला। इसका समाज- वैज्ञानिक विश्लेषण अगली इकाई में प्रस्तुत हुआ है
जहों रेणु ने बताया है कि इस बड़े गांव में बारह वर्ण के लोग रहते हैं और
प्रमुताशाली दो वर्णों या जातियों राजपूतों व कायरथो में पुश्तैनी मनमुटाव व झगड़े
रहते हैं, संपत्ति व सत्ता को लेकर भी। ब्राह्मण कम संख्या
में हैं। यादव खुद को यदुवंशी क्षत्रिय मानते हैं। लेकिन राजपूत उन्हें क्षत्रिय
नहीं मानते। वास्तव में 'मैला आंचल * के मेरीगंज गांव के
माध्यम से पूरे बिहार की जाति-व्यवस्था का एक चित्र आंखों के सामने उभर आता है।
यदि इस चित्र को ठीक से समझ कर जातिगत अंतर्विसेघों को ठीक तरह सुलझाया जाता तो
बिहार की आज जो जातिगत हिंसा की भयंकर स्थिति है वह न बनती। इन अंतर्विरोधों को
सुलझाना तो दूर रहा, ठीक से समझने का प्रयास भी नहीं हुआ।
राजपूत
व कायस्थ आदि उंच्च जातियां सिर्फ जाति-उच्चता के बोध के कारण ही नहीं है वरन् इनकी
जातिगत उच्चता के बोच में आर्थिक व राजनीतिक सत्ता की शक्ति भी शामिल है। बिहार
में 'गुमट टोली * निम्न जातियों का बोघक शब्द है ज़ेकिन 1954 में ही यादवों ने इतनी
सामाजिक सत्ता हासिल कर ली थी कि उन्हे अब्र॑ '“गुमट टोली
कहने की हिम्मत' कोई नहीं करता। लेकिन जो अन्य निम्न समझी
जाने वाली जातियाँ गाँव में हैं, उन्हें उच्च जाति के लोग 'गुमट टोली ' कहते हैं, जबकि वे
जातियां स्वयं को क्षत्रिय मानती हैं, जो ,उनकी जाति नामों से जाहिर है। यें जातियां हैं - पोलिया-टोली, तन्जिमा (ततका) छत्री टोली, गहलोत छत्री टोली,
कुर्म छत्री टोली, धनुकधारी छत्री टोली,
कुशवाहा छत्री टोली और रैदासी टोली।
कथित
उच्च जातियां तो कथित निम्न जातियों को “निम्न “ कहती ही हैं, स्वयं निम्न समझी या कही जाने वाली जातियों में भी अपनी जाति को अन्य जाति
से उच्च समझने की भावना प्रबल रूप में विद्यमान है और ये जातियाँ समाज से उपेक्षित
होकर भी आपस में एकता या सामाजिक व्यवहार नहीं रखती। उधर डेरे में महंत लोग स्त्री
क्रो दासिन बना कर रखते हैं, यह भी उसे निम्न जाति के स्तर
तक खेींचना है, स्त्री का डेरे में दैहिक शोषण कर उसे लगभग रखैल
की स्थिति तक गिरा दिया जाता है। निम्न जातियों में कितनी गरीबी है यह महंत सेवादास
द्वारा डेरे पर भंडारे की घोषणा के समय पता चलता है, जब यह
बताया जाता है कि "तब्जिमा, गहलोत
और पोलिया टोली के अधिकांश लोगों ने पूरी-जलेबी कभी चखी भी नहीं। 'हरिजन ' शब्द भी निम्न जातियों के लिए इस समय
प्रचलित था क्योंकि बालदेव जी सबको 'जी ” लगाकर बुलाते हैं,
और इनमें 'हरिजन जी ' का
भी उदाहरण शामिल हैं।
ग्राम्मीण
समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों पर उपन्यासकार ने खूब ध्यान केंद्रित किया है।
“मैला आंचल' के स्त्री पुरूष संबंधों के चित्रण को देखकर तो
लगता है मिथिला अंचल में इन संबंधों में काफी उन्मुकता है। डेरे के महंत खुले में
लछमी या बाद में नए महंत रामपियारी से संबंध रखे हैं और इन संबंधों को सामाजिक
स्वीकृति भी है। बालदेव लछमी प्रेम संबंधों या कालीबरण मंगला प्रेम संबंधों पर भी
कोई ज्यादा टीका टिप्पणी नहीं होती। निम्न जातियों के अनेक स्त्री-पुरूष संबंधों
में ब्याहता संबंधों के दायरे के बाहर भी काफी उन्मुक्तता के व्यवहार का चित्रण
हुआ है। इन सबसे बढ़कर रेणु ने डॉ. प्रशांत कुमार व कमला के प्रेम संबंधों में इस हद
तक उन्मुक्तता दिखाई है कि कमली के बिना ब्याह के मां बनने पर भी इस सुदूर पिछडे गांव
में कोई तूफान नहीं आता। हालांकि दोनों का प्रेम सच्चा है और बच्चा होने से पहले
ब्याह न हो पाने का कारण प्रशांत की गिरफ्तारी और कारावास है। इस अर्थ में 'मैला आंचल ' को रोमांटिक उपन्यासों की परपरा में भी
रखा जा सका है।
गाँव
की शैक्षिक स्थिति का भी चित्रण हुआ है। पूरे गाँव में कुल दस लोग ऐसे हैं जो
दस्तखत कर सकते हैं, उन्हीं में तहसीलदारी की शिक्षा भी
शामिल है। नये पढ़ने वाले कुल पन्द्रह हैं। जिसका अर्थ यह है कि 1946 तक आते आते शिक्षा के प्रति जागृति की भावना उठने लगी थी। '
गांव
की मुख्य पैदावार धान, पाट और खेसारी बताई गई है और
कभी-कभार रबी की फसल आधी होने की सूचना भी है।
लेकिन गांव का चित्र केवल जातिगत विभाजन या पिछड़ेपन की स्थिति के चित्रण में ही पूरा नहीं होता। गांव का चित्र पूरा होता है - गांव के वर्ग विभाजन के चित्रण से। मालिक टोली व राजपूत दोली व कुछ हद तक यादव टोली गांव का प्रभुत्वशाली वर्ग है - आर्थिक रूप में भी और राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप मे भी, आर्थिक रूप में विश्वनाथ प्रसाद (कायस्थ) हजार बीघे के काश्तकार हैं, ठाकुर रामकिरपाल सिंह (राजपूत) लगभग साढ़े तीन सौ बीघे के ज़मींदार हैं और खेलावन सिंह यादव भी डेढ सौ बीघा ज़मीन के मालिक हैं। दूसरी ओर गांव के बाकी लोग गरीब हैं साधनहीन हैं, खेतों पर मज़दूरी करते हैं या किसी अन्य स्थान पर मज़दूरी तलाश करते हैं। एक और संधाल आदिवासी हैं, जिनकी ज़मीनें प्रभुत्वशाली वर्ग के - टोलों ने शोषण से छीन ली हैं और यह गांव के वर्ग विभाजन को वर्ग-संघर्ष के स्तर तक ले जाता है। इद्ध ढर्ग संघर्ष मे अत्याचार संथाल आदिवासियों पर ही होते हैं।
रेणु
मे बिहार के जाति विभाजन के विकल्प सप् में जो चरित्र रखे हैं, उन्हें जाति विहीन चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जिनकी जाति का कुछ पता नहीं है, लेकिन जो अपने
कार्य- व्यवहार से स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानव का उदाहरण बनाकर प्रस्तुत करते हैं
और लेखक का संदेश सृजनात्मक रूप से देते हैं कि जाति का कुछ मतलब नहीं है, मानव का श्रेष्ठ मानव होना सबसे बड़ी बात है। ये दो सर्वश्रेष्ठ मानव हैं
- डॉ. प्रशांत कुमार, जो नदी में फेंके गए मिले हैं और
कांग्रेस कार्यकर्ता बावनदास।
मैला आंचल : राजनीतिक संदर्भ
'मैला आंचल * उपन्यास का आरंभ ही राजनीतिक पृष्ठमूमि से होता है और उपन्यास
का अंत भी राजनीतिक घटनाक्रम के एक दुखांत मोड़ से होता है। उपन्यास के राजनीतिक
घटनाक्रम की अनेक परतें व अनेक स्तर चित्रित हुए हैं। इस अर्थ में 'मैला आंचल * उपन्यास को गहरे ' रूप में राजनीतिक
उपन्यास भी कहा जा सकता है।
मोटे तौर पर राजनीतिक संदर्भ में उपन्यास में जिन स्थितियों का
चित्रण हुआ है उन्हें क्रमवार इस प्रकार सख सकते हैं :
- 1) ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व्यवस्था।
- 2) भारतीय स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय विभिन्न राजनीतिक दल व प्रवृत्तियां।
- 3) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक राजनीतिक दल और एक शासक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रण।
- 4) भारतीय ग्रामीण समाज के वर्ग और वर्ण के अंतर्विरोधों का चित्रण।
- 5) स्वतंत्रता पूर्व व स्वातंत्रयोत्तर शासन व्यवस्था का चित्रण।
उपन्यास का आरंभ 1946 ई. के किसी समय
से होता है और अंत अप्रैल 1948 के आस पास। 1948 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन गए थे और
15 अगस्त 1948 के विभाजन और सत्ता
परिवर्तन के उपरांत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से प्रत्यक्षत: हट जाने, किंतु शासन व्यवस्था उसी ब्रिटिश व्यवस्था के रूप में बनी रहने की स्थिति में
स्वातंत्र्योत्तत शासन व्यवस्था का आरंभ हुआ। दोनों ही स्थितियां एक संक्रमणकालीन
दौर की उपज है और इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि ये हमारे देश की राजनीति
के व्यवस्थागत रूप को स्पष्ट करने वाली हैं। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने जो शासन
व्यवस्था भारत में स्थापित की, 1948 में क्या हम उस व्यवस्था
की गुलामी से भी मुक्त हुए या सिर्फ चमड़ी का रंग बदला? गोरे
शासकों के स्थान पर भूरी या काली चमड़ी के लोगों ने शासन की बागडोर एक स्वतंत्र '
राष्ट्र के रूप में संभाली? वस्तुतः व्यवस्था
वही बनी रही, जो उपिनवेशवाद ने अपनी ज़रूरतों के लिए निर्मित
की थी। क्या एक ही व्यवस्था उपनिवेशवाद और उपनिवेशवाद से मुक्ति प्राप्त राष्ट्र -
दोनों की आकांक्षाओं या हितों की पूर्ति कर सकती है? यह ऐसा
ज़रूरी सवाल है, जिसे राष्ट्रीय आज़ादी के शोर में दबा दिया
जाता है। लेकिन रेणु ने 'मैला आंचल में ऐसे सवालों से बचने
क्री कोशिश न करके, उन्हें पूरी ईमानदारी व सृजनशीलता से स्वतंत्रता
प्राप्ति के सात वर्ष उपरांत ही उभार दिया था। लेकिन रेणु द्वारा सृजनात्मक रूप से
उपस्थित किए गए यथार्थ सवालों को उस समय उपन्यास की आंचलिकता के घटाटोप में छिपा
दिया गया। लेकिन अब जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां एक बड़ा मुद्दा व क्रूर रूप गहण
कर रही है और देश न सिर्फ आर्थिक स्तर पर एक नव-औपनिवेशक परतंत्रता की ओर बढ़ रहा
है, बल्कि तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था की पोल भी खुलती नज़र
आ रही है तो 'मैला आंचल-' का खुली
दृष्टि से अध्ययन आवश्यक हो गया है। रेणु ने तो उसी समय ही औपनिवेशिक व्यवस्था को
बिना परिवर्तन के अपनाने के खतरों से आगाह कर दिया था।
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