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साधारणीकरण

रस निष्पत्ति के प्रसंग में 'साधारणीकरण ' शब्द का विशिष्ट महत्व है। भारतीय रस-चिन्तन के अंतर्गत साधारणीकरण पर दिचार करने की लंबी परम्परा विद्यमान रही है!'साधारणीकरण ' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भट्टनायक (10वीं शताब्दी) ने रस-निष्पत्ति संबंधी भर > प्रख्यात सूत्र - विभावानुभावव्यभि- चारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति ' - की व्याख्या के भीतर किया है। नट्टनायक ने भरत-सूत्र के व्याख्याकार भट्टलोल्लट (उत्पत्तिवाद या आरोपवाद), शंकुक (अनुमितिवाद) के व्याख्यागत दोषों का परिहार करने के लिए अपने सिद्धांत - भोगवाद या भुक्तिवाद - के अंतर्गत साधारणीकरण की प्रतिष्ठा की। काव्य में वर्णित विशिष्ट पात्रों के 'भाव' , 'सहृदय साधारण ' या सर्वसाधारण के आस्वाद के विषय किस प्रकार हो जाते हैं? काव्यानुभूति के आस्वाद के इस मौलिक प्रश्न पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित किया गया है। इसी प्रश्न का समाधान है - साधारणीकरण सिद्धांत। व्यापक अर्थों में साधारणीकरण ' को 'काव्यानुभूति की प्रक्रिया' कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया का गहरा संबंध काव्य-सम्प्रेषण व्यापार से है। आज लगभग सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि साधारणीकरण सिद्धांत के बीज भरत मुनि (तीसरी-चौथी शताब्दी) के 'नाट्यशास्त्र' में विद्यमान है। भरतमुनि का यह कथन 'सामान्य गुणयोगेने रसा निष्यद्यन्ते ' अर्थात्‌ जब पाठक भावों को सामान्य रूप से 'मैं' और 'पर' की भावना से मुक्त होकर ग्रहण करते हैं तब रस की निष्पत्ति होती है। परंतु साधारणीकरण-सिद्धांत का निश्चित उल्लेख्द्मट्टनायक के मत में ही मिलता है। भट्टनायक का ग्रंथ 'हृदय दर्पण' आज उपलब्ध नहीं है। किंतु आचार्य अमिनवगुप्त ने अपने ग्रंथ 'अभिनवभारती' में मट्‌टनायक का मत उद्धुत किया है। उसी के आधार पर भट्टनायक के मत की जानकारी आज उपलब्ध है। अभिनवगुप्त ने भट्‌टनायक के साधारणीकरण सिद्धांत को उद्धृत करते हुए उसका अपने ढंग से संशोधन किया है।

भट्टनायक के अनुसार काव्य में तीन व्यापार होते हैं - अभिधा, भावकत्व एवं मोगकत्व या भोजकत्व।

जहाँ तक अभिधा-व्यापार का संबंध हैं, वह तो शब्द को आधार बनाकर चलने वाले सभी शास्त्रों में मिलता है, किंतु शेष दो व्यापार काव्य-शब्दों की अपनी विशेषता है। इन्हीं दो विशिष्ट व्यापारों के कारण काव्य अन्य शब्दधारी शास्त्रों से विशिष्ट एवं विलक्षण होता है। काव्य में अभिधा व्यापार वाच्यार्थ को उपस्थित करने की क्षमता रखता है। किंतु वास्तविक कार्य भावकत्व एवं भोजकत्व व्यापारों के द्वारा ही सम्पन्न होता है। भावकत्व व्यापार विशिष्ट विभावादिकों को साधारणीकृत रूप में उपस्थित करने के साथ सामाजिक या सहृदय की 'निज-मोह-संकटता का निवारण' करते हुए रसों को मावित कर देता है तथा भोजकत्व व्यापार के द्वारा उन भावित रसों का भोग होता है। इस प्रकार, अभिधा व्यापार वाच्यार्थ-विबयक है, भावकत्व रसादि विषयक और भोजकत्व सह्ृदय या सामाजिक विषयक। इन्हीं तीन व्यापारात्मक अंशों के आधार पर काव्य के शब्द अन्य शास्त्रादिक के शब्दों से विशिष्ट एवं विलक्षण हो जाते हैं। भट्टनायक का सिद्धांत कथन अभिनवगुप्त ने अभिनवमारती' में इन शब्दों में निरूपित किया है-

'काव्ये दोषाभावगुणालंकारमयत्वलक्षणेन नाटये चतुर्विधाभिनयरूपेण, निविड निज मोह संकटता निवारण कारिणाविभावादि साधारणीकरणात्मना5भिधातो द्वितीयांशेन भावकत्व व्यापारेण भाव्यमानो रसः।'

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