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अपभ्रंश और हिंदी साहित्य का संबंध

सिद्धों की कृतियाँ मागधी अपभ्रंश तथा जैन कवियों की रचनाएँ नागर अपप्रंश के अंतर्गत विभाजित की जा सकती हैं। आधुनिक लोक भाषाओं से पहले सम्पूर्ण उत्तरी भारत गुजरात और महाराष्ट्र में साहित्य रचना के लिए अपभ्रंश भाषा को ही अपनाया जा रहा है। हिंदी का संत काव्य अपभ्रंशा कालीन सिद्ध और नाथ पंथी साहित्यकारों की वियारधारा का परवर्ता विकसित रूप है। 'रास', 'रासक' और 'रासो' अपभ्रंश और गूर्जर हिंदी के लोकप्रिय काव्य हैं। रास परम्परा की 18 और रासो और रासक परंपरा की 24 काव्य कृतियाँ इस समय उपलब्ध हैं। रास कोमल भावनाओं के काव्य हैं, जबकि रासो अथवा रासक में जिन घटनाक्रमों का आधार युद्ध है, वहाँ भावनाएँ कठोर हो गई हैं। माणक रासो जैसा विनोद प्रधान काव्य तथा “संदेश रासक' जैसा विरह गाया प्रधान काव्य भी इसो परंपरा की कृतियाँ हैं। पन्द्रहर्वी शती के आस-पास भाषा का एक नया स्वरूप जन्म ले रहा था और पुरानी परंपराएँ नए प्रयोगों के साथ प्रयुक्त हो रही थीं। अपभप्रंश कालीन कवियों ने साहित्य को एक नया स्वरूप प्रदान किया। सोलहवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य में दो धाराओं के संगम ने भक्ति काव्य में पद साहित्य का मार्मिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। आधुनिक हिंदी साहित्य में अपप्रंश भाषा और उसकी काव्य चेतना ही नहीं बल्कि उस समय की जनचेतना और जनजीवन भी विद्यमान है।

अपभ्रंश की अनुलेखन विधि पूर्णत: प्राकृत एवं संस्कृत की अनुगामिनी रही है। ऐ औ (हस्व) जैसी नयी ध्वनियों के लिए नए चिन्ह नहीं बनाए गए। उस समय लेखक हस्व ऐ और ध्वनियों के लिए 'इ उ' का व्यवहार करते थे। इसी प्रकार '' के घिकृत एवं संबृत भेदों की भिन्‍नता को दिखाने के लिए किसी भी प्रकार का नया चिन्ह प्रयोग में नहीं लाया गया। अनेक आधुनिक आर्य भाषाओं (बंगला, अवधी) में '' का उच्चारण भित्त रहा होगा लेकित लिखित साहित्य गें इसका कोई प्रगाण वहीं गिलता है। इसी प्रकार लुप्त मध्य व्यंजन के स्थान पर कहीं-कहीं '' मिलता है, लेकिन कहीं-कहीं '' श्रुति का समावेश किया गया।

अपभ्रृंश के प्रमुख रूप

अपभ्रंश के कितने रूप हैं, यह प्रश्न बड़ा ही विवादास्पद रहा है। हम जानते हैं कि प्राकृत भाषा के कई रूप थे - शौरसेनी, पैशाची, अर्धमागधी, मागधी, महाराष्ट्री आदि। उम्मीद यों की जानी चाहिए कि शौरसेनी प्राकृत से शौरसेनी अपभंश और मागधी प्राकृत से मागधी अपभ्रंश बने। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मार्कडेय ने प्राकृत सर्वस्व में अपभ्रंश के तीन ही भेद गिनाये हैं - नागर अपभ्रंश वर्गपान राजस्थान और गुजग़त के क्षेत्र में प्रभावित थी और यही प्रमुख भाषा रूप थी। हेमचंद्र ने अपना व्याकरण इसी रूप को आधार बनाकर लिखा। क्रचड अपप्रंश का प्रयोग पंजाब-सिंध में और उपनागर अपभ्रंश इन तीनों के बीच में। फिर मगध तथा पूर्वी क्षेत्रों में कौन-सा बोली रूप था? यह तो नहीं हो सकता है कि देश के पूर्व में कोई अप्रभ्नंश नहीं थी और सीधे प्राकृत से आधुनिक भाषाओं का विकास हुआ है। अपप्रंश प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की कड़ी है और वह विलुप्त नहीं हो सको। यही कहा जा सकता है कि पश्चिम को अपभ्रँश बोलिया/रूप साहित्यिक महत्व के कारण प्रस्फुटित हुए, लेकिन उस समय साहित्य के अभाव के कारण पूर्व के रूप प्रच्छनन रहे।

 

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