राममोहन राय द्वारा पूर्वी भारत में समाज की बुराइयों के उन्मूलन का पहला कदम उठाया गया था। राममोहन राय द्वारा शुरू की गई प्रक्रिया को देवेन्रनाथ टैगोर, विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन और अन्य लोगों ने उन्नीसवी शताब्दी तक जारी रखा। राजा राममीहन राय ने राष्ट्रीय जीवन के सभी पहलुओं को उठाया और भारतीय राष्ट्र की पुनर्रचना के लिये संघर्ष किया । अतः उन्हें आधुनिक भारत का जनक कहना अनुचित नहीं है। उन्हें कई भाषाओं के बारे में ज्ञान था तथा उन्हें प्रकांड पंडित के रूप में भी जाना गया ।
कलकत्ता में बस जाने के
बाद उनकी सुधार प्रक्रिया में तेजी आयी । 1814 में उन्होंने आत्मीय सभा का गठन
किया और धार्मिक व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष चलाया। उन्होंने
मूर्ति-पूजा की आलोचना की और एकांतवाद का पक्ष लिया। धार्मिक बुराइयों को बनाये
रखने के लिये उन्होंने पंडितों और पुरोहितों को दोषी ठहराया |
ब्रहम सभा की स्थापना
उन्होंने 1828 में की जो बाद में ब्रहम समाज के नाम से प्रसिद्ध हुआ हिंदुत्व को
उसकी बुराइयों से अलग करना उनका प्रथम उद्देश्य था। इसमें अन्य धर्मों की
शिक्षायें भी सम्मिलित की गयी । उन्होंने बहुविवाह एवं बालविवाह की भी आलोचना की
और समाज में महिलाओं के उत्पीड़न एवं निम्नस्तर का विरोध किया । उनके विचार से भारतीय
समाज को सामाजिक जड़ता से मुक्त कराने के लिये महिला शिक्षण एक अन्य प्रभारी
माध्यम था।
राममोहन ने अपनी समय की
सामाजिक एवं धार्मिक ही नहीं बल्कि राजनैतिक व आर्थिक समस्याओं को भी उठाया ।
उन्होंने सरकारी सेवाओं के भारतीयकरण, न्यायिक कार्यवाई,
कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र अलग करने और
भारतवासियों तथा यूरोपवासियों के बीच न्यायिक समानता का पक्ष लिया। उन्होंने
जमीदारी व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पीड़क कार्रवाइयों की तीखी आलोचना की । राममोहन
राय भारत में राष्ट्रवादी चेतना एवं विचारधारा के जनक थे | सामाजिक
एवं धार्मिक सुधारों को लक्षित उनका प्रत्येक प्रयास राष्ट्र-निर्माण को लक्षित
था। उन्होंने विशेष रूप से जाति व्यवस्था की कठोरता पर प्रहार किया जो उनके विचार
से भारतवासियों में फूट का कारण बनी थी। अपने रुझानों में राममोहन राय
अंतर्राष्ट्रवादी, इच्छा स्वातंत्रयवादी एवं जनतांत्रिक
विचारों के पक्षधर थे। अंतर्राष्ट्रीय मामलों में वे सक्रिय रुचि लेते थे और
राष्ट्रों के बीच मैत्री संबंध चाहते थे । अपनी सीमाओं के बावजूद राममोहन निश्चय
ही 19वीं सदी के भारतीय बीद्धिक क्षितिज पर पहले प्रकाशवान नक्षत्र थे।
सुधार प्रयासों को
राममोहन राय से मिलने वाले उत्प्रेरण का संवेग बहुत कुछ खत्म हो गया था। रवीन्दनाथ
टैगोर के पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने पुनः इसमें जीवन का संचार किया | 1839 में उन्होंने तत्त्ववोधिनी सभा की स्थापना की । भारत में ईसाई धर्म
की तेज प्रगति को प्रतिरोध और वेदांत का विकास उनका लक्ष्य था। तत्त्ववोधिनी सभा
के अधीन स्थानीय भाषा एवं संस्कृति के विकास पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा। सभी
विषयों से संबंधित पुस्तकें बंगाल में प्रकाशित की गईं । तत्त्वबोधिनी प्रेस की
स्थापना के बाद 1843 में विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये संगठन के पत्र, तत्त्ववोधिनी पत्रिका की शुरुआत की गई | 1843 में
देवेन्दरनाथ टैगोर ने ब्राहमण विचारों को अपनाया और उसी वर्ष उन्होंने ब्रहम समाज
का पुनर्गठन किया | ब्रहम समाज से जुड़े एक अन्य प्रमुख
बीधिक व्यक्तित्व थे केशवचन्द्र सेन | केशव ने नारी-मुक्ति
प्रयासों पर बल दिया । देवेन्धनाथ द्वारा राष्ट्रीय हिंदू अस्मिता के विपरीत
उन्होंने सार्वभीमिक विचारों को पुष्ट किया | अपने बीच
सिद्धांतगत विभेदों के बावजूद ब्राहमण स्वामियों ने राममोहन के विचारों के प्रचार
तथा बंगाल के समाज को बदलने में सामूहिक योगदान किया । उन्होंने धार्मिक मामलों
में मठाधीशों की मध्यस्थता की भर्सना और एक ईश्वर की आराधना का पक्ष लिया |
उन्होंने विधवा-विवाह, एकल-विवाह और महिला
शिक्षा का समर्थन किया।
पंडित ईश्वरचंद्र
विद्यासागर उन्नीसवी सदी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक परिदृश्य पर उभरे | प्रकांड संस्कृत विद्वान के रूप में वे 1851 में संस्कृत कॉलेज के
प्राचार्य बने | उन्होंने संस्कृत कॉलेज में पाश्वात्य
शिक्षा का प्रवर्तन किया और गैर-ब्राहमण विद्यार्थियों को भी प्रवेश दिया ।
उन्होंने बंगला भाषा की प्राथमिक पुस्तक लिखी और बंगला की विशिष्ट आधुनिक गद्य
शैली के विकास में योगदान दिया । उनका महान योगदान महिला शिक्षा के क्षेत्र में ही
था। विधवाओं के पुनर्विवाह को वैद्य बनाने हेतु उनके आंदोलन को देश के विभिन्न
भागों के प्रबुद्ध समुदायों का समर्थन मिला और अंततः एक तत्संबंधित कानून लागू
किया गया | उनके प्रयासों द्वारा 1855 और 1860 के बीच 25
विधवा-विवाहों को विधिवत् मान्यता मिली | उन्होंने सामान्य
उन्नति के उद्देश्य से महिलाओं की उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन दिया । 1849 में
कलकत्ता में स्थापित बेधुन स्कूल के सचिव के रूप में उन्होंने महिला शिक्षा आंदोलन
के नेतृत्व में केन्रीय भूमिका निभाई | उन्होंने बाल-विवाह
तथा बहु-विवाह के विरुद्ध भी प्रचार अभियान चलाया।
समूचे हिन्दू समाज को
आलोकित कर देने वाले नरेन्द्रनाथ दत्त, जो स्वामी
विवेकानंद के रूप में विख्यात हैं, उन्नीसवी सदी बंगाल के
महान चिंतकों की श्रुंंला में कालक्रमानुसार अंत में आते हैं। उनके गुरु अथवा
अध्यात्मिक अनुदेशक थे-रामकृष्ण परमहंस (1834-1886)1 रामकृष्ण परमंहस ने सार्वभीम
धार्मिकता पर बल दिया और धर्म विशेष की श्रेष्ठता के दावों की निंदा की । फिर भी,
उनका प्राथमिक सरोकार धार्मिक मोक्षलाभ ही रहा, न कि सामाजिक मुक्ति | उनके सुप्रसिद्ध शिष्य
विवेकानंद ने देश-विदेश में उनके संदेश को लोकप्रिय बनाया । विवेकानंद ने
जाति-प्रथा और जनसमुदाय में व्याप्त रूढ़ रीतियों व अंधविश्वासों की भर्त्सना की ।
18% में उन्होंने मानवतावादी व समाज-सेवा का कार्य चलाने के लिए रामकृष्ण मिशन की
स्थापना की | मिशन का मुख्य लक्ष्य जनसमुदाय के लिये सामाजिक
सुविधाएं जुटाना था | देश के विभिन्न भागों में स्कूल,
अस्पताल, अनाथालय, पुस्तकालय,
इत्यादि चलाकर इसने अपने लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास किया |
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