1) भामह
अलंकारवादी
भामह का काव्य लक्षण इस प्रकार है - 'शब्दार्थी सहितौ काव्यम्'
(काव्यालंकार 1/16) अर्थात शब्द और अर्थ दोनों
का सहभाव काव्य है। भामह ने अपने ग्रंथ काव्यांलकार' में
अपने से पहले की दो विचारधाराओं का उत्लेख किया है। एक विचारधारा अर्थालंकारों को
काव्य-सौंदर्य का नूलाधार मानती है तथा दूसरी शब्दालंकारों को। कितु दोनों
विचारधाराएँ काव्य-सौंदर्य का आधार अलंकारों में ही खोजती हैं। अर्थालंकारवादी
भामह तथा शब्दालंकारवादी दण्डी दो भिन्न विचारधाराओं की एकता अलंकार युग में
प्रस्तुत करते हैं। अर्थालंकारवादियों का मत था कि रूपक-उपमा आदि अर्थालंकार ही काव्य-शोभा
की सृष्टि करते हैं क्योंकि अर्थ-बोध के पश्चात् उन्हीं से काव्य-सौंदर्य की
प्राप्ति होती है। भामह का आग्रह भी यही था कि काव्य-कृति में रसों-गुणों का कितना
ही बढ़िया सामंजस्य क्यों न हो यदि समर्थ अलंकार-योजना नहीं है तो वह उसी प्रकार
श्रीविहीन है जैसे अलंकारविहीन स्त्री (वनिता) का मुख। शब्दालंकारवादी कहते थे कि
रूपक-उपमा आदि अर्थालंकार बाह्य प्रतीत होते हैं, काव्य में चमत्कार
की सृष्टि तो शब्द-सौंदर्य के द्वारा ही की जा सकती है। शब्द-सौंदर्य से रहित
अर्थ-सौंदर्य अपूरा रहता है। काव्य के पठन-पाठन, श्रवण-प्रेक्षण
में सर्वप्रथम 'शब्द' ही हमारे हृदय पर
अपना प्रभाव छोड़ता है। शब्द-ग्रहण की इस क्रिया के बाद ही अर्थ ग्रहण या
अर्थ-प्रतीति होती है। अर्थात् शब्दालंकारों के सामने अर्थालंकारों की सत्ता गौण
है। भामह को इन दोनों मतों का समन्वय करना ही उचित प्रतीत हुआ। कवि के लिए शब्द का
भी महत्व है और अर्थ का भी। अतः उन्होंने काव्य लक्षण में शब्दार्थी सहितौ '
में 'सहितौ' पर विशेष बल
दिया। विशेष बात यह भी है कि भामह ने इस विवाद को और गहराया कि काव्यत्व शब्द में
होता है या अर्थ में या दोनों के सहभाव में। इस विवाद ने इतना प्रबल रूप धारण किया
कि आगे चलकर पण्डितराज जगन्नाथ को कहना पड़ा कि - रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द ही
कायय हैं।
2) दण्डी
आचार्य दण्डी
ने काव्य के शरीर पर विचार करते हुए कहा कि 'शरीरंतावदिष्टार्थ व्यवच्छिन््ना
पदावली ' ही काव्य है। उनके द्वारा निरूपित 'शरीरं तावदिष्टार्थ...' का'तावद्'
शब्द वाक्यालंकारों के लिए भी प्रयुक्त हुआ। उनका मत है कि केवल उसी
शब्द-समूह (पदावली) को काव्य-शरीर कहा जा सकता है जो काव्य के लिए अमिलक्षित सरसता
से युक्त हो और कवि-प्रतिमा से युक्त सुंदर पदावली से व्यवच्छिन्न हो।
इष्टार्थ-युक्त पदावली का अर्थ यह भी है कि ऐसे पदों में 'योग्यता
', 'आकांक्षा', 'आसक्ति' आदि विशेषताएँ भी विद्यमान हों। कारण, जिन पदों में
वाक्यत्व की योग्यता नहीं होती वे 'काव्य' नहीं कह्टे जा सकते। पदावली का 'इष्टार्थत्व'
ही काव्यार्थ में चमत्कार की सृष्टि करता है जिसमें लोकोत्तर
आहलादत्व का भाव पूरी तरह अंतर्भुक्त है। पण्डितराज ने जिस 'रमणीय
अर्थ के प्रतिपादक शब्द' की चर्चा बाद में की है उसका आभास
दण्डी ने पहले ही दे दिया। ऊपर से सरसरी तौर पर देखने से लगता है कि वे शरीर-मात्र
के स्वरूप का कथन कर रहे थे, किंतु ऐसा नही है। उनके कथन में
अलंकार के साथ 'रसापेक्षा ' भी है।
अपने काव्य लक्षण में वे रसबदलंकार' की भूमिका को उपेक्षित
नहीं छोडते। ज़ाहिर है कि वे काव्य की आत्मा और काव्य-शरीर का भेद समझकर काव्य लक्षण
में प्रदत्त होते हैं। दण्डी शास्त्रज्ञ ही नहीं हैं, कवि भी
हैं। इसलिए रस-चेतना पर उनका ध्यान केंद्रित है - यथा, 'अलंकृतमसंक्षिप्त
रसभाव निरंतरम् '। किंतु यहाँ रस ' शब्द
रस-जन्य भावात्मक आनद के लिए न होकर अलंकार-जन्य चमत्कार से उत्पन्न आनंद के लिए
ही आया है। दण्डी ने समस्त अलंकारों का उद्देश्य रस-सृष्टि ही माना है। फलतः उनकी
काव्यान॑द संबंधी मान्यता रसवादियों की मान्यताओं से भिन्न है। वे मुक्त भाव से
शब्दालंकार-अर्थालंकार के साथ रसवद् आदि अलंकार को सम्मिलित करते हैं। दण्डी ने
काव्य लक्षण में प्रयुक्त 'इष्टार्थ ' की
स्पष्ट व्याख्या नहीं की। ऐसा लगता है कि 'इष्टार्थ '
में वे मामहकालीन विवाद पर ध्यान देते हैं जिसमे भामह को शब्दालकार
और अर्थालंकार दोनों इष्ट रहे हैं। दण्डी के अनुसार शब्द-अर्थ-रस-सौंदर्य से
विशिष्ट पदावली ही काव्य है। दष्डी की सीमा यह है कि वे 'इष्टार्थ
, में केवल अर्थालंकारों पर केंद्रित हो जाते हैं।
3) वासन
काव्य
शब्द में है अथवा अर्थ में? इस विषय में वामन को भामह की 'शब्दार्थी
सहितौ काव्यम्' वाली मान्यता पर कोई आपत्ति नहीं है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि वामन स्वयं प्रश्नाकुल भाव से पूछते हैं कि क्या सामान्य
शब्द और अर्थ, काव्य हैं? भामह मानते
थे - शब्दालंकार और अर्थालंकार से विशिष्ट शब्दार्थ काव्य है। केवल शब्द और अर्थ
को काव्य मानना तो प्रचलन है - 'काव्यशब्दो5य॑ गुणालंकारसंस्कृतयो: शब्दार्थयोर्दर्तते। शब्दार्थमात्र वचनो5त्र गृहयते।' (काव्यलंकार-सूत्र-वृत्तिः)
किंतु [न
कान्तमपि निर्भुष॑ विभाति वनितामुखम्' उस युग का सर्वमान्य मत था। इस
मत के विरोध में खडे होने की क्षमता वामन में नहीं थी। वे यह मानने को विवश थे कि
काव्य-अलंकार तत्व के कारण ही ग्राह्य है - काव्य ग्राह्यमलंकारत।' इतना ही नहीं. वे यह भी कह बैठे थे कि काव्य के शोभा कारण-धर्म को अलंकार
कहते हैं। सौंदर्यमलंकार: ', 'अलंकृतिरलंकारः ', 'काव्य शोमाया: कर्तारो धर्मा 'गुणा:।' इस प्रकार वामन ने काव्य की ग्राह्यता को 'सौंदर्य'
से निबद्ध कर दिया। वामन के अनुसार दोष-रहित, सगुण,
सालंकार शब्दार्थ काव्य है। वास्तव में वामन न तो काव्य का
शास्त्रीय लक्षण ही कर पाए न अलं॑कारवादियों की कतार में बैठ सके। वामन का
गुण-संबंधी दृष्टिकोण भी रसवादियों के गुण संबंधी विवेचन से मेल नहीं खाता। रसवादी
गुण का संबंध सीधे रस से जोड़ते हैं जबकि वामन के द्वारा निरूपित 'गुण' शब्द और अथ से सीधे सम्बद्ध होने के कारण भाषा
या रचना के बाहर तक ही रह जाते हैं। हाँ, वामन का प्रदेय यह
माना जा सकता है कि उन्होंने दण्डी के मार्ग को रीति' में नए
ढंग से विस्तार दिया तथा अलंकार से आगे गुण की चर्चा करके विचार को आगे बढाया!
4) 'शब्दार्थी काव्यम्' काव्य के लक्षण का विस्तार और
विवाद
अलंकारवादी
आधार्य रुद्रट ने काव्य का लक्षण किया - 'ननु शब्दार्थी काव्यम्' और अपने लक्षण से भमामह के 'सहितौ' को निकाल दिया। काव्य-चिंतन की पूर्व परम्परा को देखने पर ऐसा लगता है कि '
रुद्रट के समय तक यह विवाद प्रबल हो गया था कि काव्य शब्थ में रहता
है या अर्थ में या दोनों में। इस विवाद पर ही निर्णयात्मक स्वर में रुद्रट को कहना
पड़ा कि शब्दार्थ निश्चय ही काव्य है। वामन- रुद्रट के बाद भी अलंकारवादी शान्त
नहीं हुए और काव्य लक्षण के निरूपण में चमत्कारमय शब्दार्थ संबंध के सौंदर्य को
काव्य मानने का आग्रह करते रहे। इन आचार्यों में हेमचन्द्र, विद्यानाथ,
वाग्मटट, जयदेव आदि प्रमुख हैं। इनके लक्षण इस
प्रकार हैं -
हेमचन्द्र
-
अदोषौ सपुर्ण सालंकारी च शद्धार्थी काव्यम् (काव्यानुशासन)
विद्यानाथ
-
गुणालंकार सहिती शब्दी दोष वर्जिती। (प्रताप रुद्रयगशोमूषण)
कग्बट्ट
-
शद्धार्थी निर्दाबी सगुणौ प्रावः सालंकारीकाव्यम् (काव्यानुशासन)
जयदेव
-
निर्दोषा लक्षणावती सरीतिर्गुणमृषणा।
सालंकार
रसानेकवृत्तिवाक्काव्यनाम भाक॥ (चन्द्रालोक)
भोज
-
निर्दोष गुणवत्काव्यमलंकारैरलंकृतम।
रसाविन्त कविं कुर्दनः
प्रीति कीर्ति च विदंति॥ (सरस्वती कंठाभरण)
5) आनंदवर्धन
अलंकार-युग के
आवार्य काव्य लक्षण के संबंध में विचार करते हुए काव्य के शरीरपक्ष या
बाह्य-सौंदर्य को ही प्रधानता देते रहे। नतीजा यह हुआ कि उन्होंने काव्य के
आत्म-तत्व अथवा आंतरिक सींदर्य की उपेक्षा की। वे रस-रीति-गुण को भी अलंकार-सौंदर्य
से ही समझाते रहे। अंततः नर्वी शताब्दी में आचार्य आनन्दवर्धन ने इस परम्परा से
विद्रोह किया। आनंदवर्धन का 'ध्वन्यालोक ' इसी विचार-क्रान्ति
का दस्तावेज़ है। आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य की आत्मा ध्वनि को मानते हुए अलंकार और
अलंकार्य की पृथकता घोषित की। उन्होंने रस तथा सद्ददय की काव्यानुभूति कौ पर्याप्त
महत्व दिया तथा नए ढंग की काव्य लक्षण परम्परा की शुरुआत की।
6) कुन्तक
अपनी
मौलिक प्रतिमा के बल पर आचार्य कुन्तक ने आनन्दवर्धन तथा अमिनवगुप्त के
काव्य-दर्शन की वस्तुवादी व्याख्या की। उन्होंने 'वक्रोक्ति ' को काव्य का व्यापक गुण मानते हुए उसे काव्य की आत्मा कहा। कवि-कर्म
सामान्य आदमी के मार्ग से मिन्न है, कवि की वक्र शब्दावली
में कल्पना के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है। वक्रता को 'वैचित्रय
' तथा 'वैदग्ध्य भंगी भणिति' अर्थात् विदन्ध व्यक्ति के कहने का विशेष गुण कहा। काव्य के भाव-पक्ष की
कला-पक्षीय व्याख्या करते हुए उन्होंने काव्य का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया - शब्दार्थी सहितौ
व.कविव्यापारशालिनि।
बन्धे व्यवस्थिती काव्य तद्रिवाहलादकारिणी॥
(वक्रोक्तिजीवितम)
7) मम्मट
मम्मट ने 'दोषरहित, गुणसहित और कभी-कभार
अनलंकृत, शब्द और अर्थमयी रचना को काव्य' कहा है - तद्दोषौ शब्दार्थी सगुणावनलंकृती पुनः क्यापि (काव्य-प्रकाश)।
इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को
प्रधानता प्रदान की गई है और अलंकारों को नितांत आवश्यक नहीं माना है। आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट की इस काव्य-परिमाषा की आलोचना करते हुए कहा है कि
श्रेष्ठ से श्रेष्ठ - कविताओं में भी कभी-कभार दोष निकल ही
आता है और दोष निकल आने पर भी हम उसे कविता की श्रेणी से
खारिज नहीं कर देते। अतः 'अदोषौ' एक नकारात्मक
लक्षण है। दूसरी बात यह कि यदि अलंकार कविता
के लिए आवश्यक नहीं है जो उनकी चर्चा का ही कोई औचित्य नहीं है। इस परिभाषा में न रस का संकेत है न ध्वनि न वक्रोक्ति का - केवल 'गुण' का संकेत है।
8) विश्वनाथ
साहित्य-दर्पणकार
विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं। उन्होंने अपने पक्ष को सामने रखते हुए काव्य का लक्षण किया है - वाक्य रसात्मकं काव्यम्। (साहित्य-दर्पण, परिच्छेद-1) अर्थात्
रसयुकत वाक्य काव्य है। 'सार-सार को गहि
रहै थोथा देय उड़ाय' की नीति को अपनाते हुए आचार्य
विश्वनाथ ने 'काव्यत्व ' के लिए रसत्व का आधार ग्रहण किया। क्योंकि गुण-अलंकार-वक्रोक्ति-ध्वनि
आदि सभी तो रस के पोषक हैं। रसात्मक वाक्य में शब्द और अर्थ
दोनों समाहित हैं। पर 'रसात्मक ' कठिन पारिमाषिक
अवधारणा है। इस अवधारणा को समझ पाना 'सह्ृदय ' के लिए सहज
नहीं है।
राजशेखर ने
काव्य के लिए कहा है - गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्' (काव्य-मीमांसा)
अर्थात् गुणों और अलंकारों से युक्त वाक्य का नाम
काव्य है ।' राजशेखर मानते थे कि अतिशयोक्तिपूर्ण होने से न तो कोई काव्य त्याज्य होता है न असत्य। क्योंकि काव्य में जो अर्थवाद
या अतिशयोक्ति होती है - उसका समर्थन शास्त्र और लोक दोनों
करते हैं। जो लोग काव्य में वर्णित संभोगादि शुंगार में अश्लीलता का
अंश पाकर चौंकते हैं वे भ्रात्ति में है, क्योंकि काव्य
में जीवन की समग्रता को अभिव्यक्ति दी जाती है। उसमें संयोग
कैसे छूट सकता है। अतः कलावाद की दृष्टि से श्लील-अश्लील का प्रश्न ही
गलत है। यह भी कहा गया है कि विश्वनाथ ने भामह के 'शब्दार्थी
सहितौ काव्यम्' के स्थान पर 'वाक्य रसात्मकं
काव्य ' पद का प्रयोग किया है ।'वाक्य ' में काव्य शरीर
तथा 'रसात्मक' में काव्य की आत्मा
दोनों का समाहार है।
9) पंडितराज जगन्नाथ
स्सगंगाधरकार
पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शताब्दी) ने काव्य लक्षण की उस पूरी परम्परा पर
ध्यान दिया जिस परम्परा में यह पुराना विवाद चला आ रहा था कि काव्य शब्द में होता
है या अर्थ में अथवा शब्द- अर्थ दोनों में। इस विवाद से पंडिराज बचना भी नहीं
चाहते थे। इसीलिए उन्होंने निर्श्नान्त भाव से कहा कि काव्य शब्द में होता है।
रमणीयतार्थ प्रतिपादक शब्द काव्य है। उन्होंने काव्य लक्षण निरूपण इस प्रकार किया
- ः
'रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम।'
'रमणीयता च लोकोत्तराल्हादजनक ज्ञान गोचरता। लोकोत्तरत्वं चाल्हादगत-
श्वमत्कारत्वापर्यायो5नुमव साक्षिको जाति
विशेष:। कारणं च तदवच्छिन्ने भावना-विशेष
पुनरनुन्धानात्मा।
'पुज्रस्ते जात: ', 'धनं ते दास्यामि' इति वाक्यार्थधीजन्यस्यात्हादस्थ न
लोकोत्तरत्वम्।
अतो न तस्मिनंवाक्ये काव्यत्व प्रसक्ति:।
इत्थं
च चमत्कारजनक भावनाविषयार्थ प्रतिपादक शब्दत्वम् यद्रतिपादितार्थ विषयक भावनात्व॑
चमत्कारजनकतावच्छेदकं
तत्यम।
स्विविशिष्टजनकतवाच्छेदकार्थप्रतिपादकतासंसगेणचमत्कारत्ववत्वमेव
काव्यत्वमिति फलितम्।'
(रसगंगाघर, पृ4-5)
डॉ.
प्रेमस्वरूप गुप्त ने 'रसगंगाधर का शास्त्रीय अध्ययन ' शीर्षक
अपने शोध-प्रबंध में पंडितराज जगन्नाथ के उपर्युक्त काव्य लक्षण पर विचार करते हुए
कहा है कि 'पण्डितराज ने यहाँ तीन काव्य लक्षणों को प्रस्तुत
किया है अथवा यों कहिए, नैयायिक निरूपण प्रक्रिया को अपनाकर
ही काव्य लक्षण को सामान्य, परिष्कृत एवं निष्कृष्ट या फलित
रूप में प्रस्तुत किया है। यह निरूपण नैयायिक पदावर्ल; के
प्रयोग से कुछ दुरूह-सा हो गया है। अतः उसपर एक व्याख्यात्मक दृष्टिपात की अपेक्षा
है।' (पृ.34) अतः डॉ.गुप्त ने सामान्य,
परिष्कृत, फलित तीनों पर अलग-अलग विमर्श
प्रस्तुत किया। 'सामान्य लक्षण के अनुसार रमणीय अर्थ का
प्रतिपादक शब्द ही काव्य है।'
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