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'धरती-धन न अपना' उपन्यास के आधार पर भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत शोषण और सामाजिक असमानता पर प्रकाश डालिए।

 संपूर्ण दलित समाज का आर्थिक रूप से चौधरियों पर निर्मर होने के कारण दलित स्त्रियों को भी चौधरियों के घर काम करने जाना पड़ता है और वहाँ शायद ही कोई ऐसा घर हो, जहाँ उनका यौन शोषण न होता हो। प्रीतो की लड़की लबच्छो के साथ हरदेवा जैसे बलात्कार कर्ता है, वह तो इस यौन शोषण की प्रक्रिया की बानगी मात्र है, अन्यथा शायद ही कोई दलित स्त्री ऐसी हो, जो चौधरियों या सवर्णों के हाथों यौन-शिकार न हुई हो। प्रीतो और अन्य चमार स्त्रियों के आपस के मज़ाक और कई बार झगड़ा होने पर एक दूसरे के पोतड़े खोलने में यही तथ्य सामने आठे हैं कि कोई दलित स्त्री चौधरियों, सवर्णों के हाथों सुरक्षित नहीं। पंडित संतराम आदि छुआछूत का पाखंड कितना ही क्‍यों न करें, दलित स्त्री की देह के लिए वे हर समय लार टपकाते रहते हैं।

दलित स्त्रियों के यौन-शोषण द्वारा चौधरी वर्ग न केवल अपनी यौन विकृतियों की तुष्टी करता है, बल्कि इससे भी बढ़ कर दलित आत्म सम्मान को कुचल कर उसे मानसिक रूप से पंगु बना कर उस पर अपनी यंत्रणा का वर्चस्व भी स्थापित करता है।

दलित जीवन के त्रासद रूपों में सर्वाधिक त्रासद है इन तमाम शारीरिक, मानसिक यंत्रणाओं को सहते हुए उनके भीतर चेतना का-अभाव और परस्पर फूट। जब भी कोई चौधरी किसी चमार को गाली देता है, उसे पीटता है तो बाकी चमार उत्पीडित का साथ देने के बजाय दहशत के कारण चुप रहते हैं। कोई कोई चौधरियों को ऐसे उत्पीड़न के लिए उकसाता भी है, जैसे मंगू। लेकिन काली के आने से स्थिति बदलने लगती है और उसका चरम रूप मिलता है - बेगार के सवाल पर चौधरी-चमारों के संघर्ष के रूप में विस्फोट से। लेकिन उनका यह संघर्ष सामाजिक विषमताओं के अन्य अनेक सूक्ष्म रूपों को भी उद्घाटित कर देता है। चौधरी सामाजिक बहिष्कार के द्वारा चमारों का बायकाट, उनका खेतों में आना जाना, यहाँ तक कि उनके प्राकृतिक कर्म - टट्टी-पेशाब जाने में भी बाधाएं खड़ी कर देते हैं। उनको वे भूखों मार कर कदमों पर गिराना चाहते हैं। गांव में पहली बार ऐसा होता है, इससे अनेक नई बातें पैदा होती हैं। पहली बार चमारों में संघर्ष चेतना विकसित होती है, भले ही तीन दिनों की फाकाकशी उन्हें पस्त हिम्मती की ओर ले जाती है। इस स्थिति में उनसे सच्ची हमदर्दी कोई नहीं करता। ईसाई पादरी अर्चिंत राम इस मौके का लाभ उठाकर उनका धर्म परिवर्तन करवा उन्हें ईसाई बनाना चाहता है। बिना उनके ईसाई बने वह कोई मदद नहीं करना चाहता।

किताबी कामरेड - डॉ. बिशनदास चमारों के दिहाड़ी के संघर्ष में रूस की बोलशेविक क्रांति के सपने देखने लगता है। कामरेड टहल सिंह को बुलाकर वह काली आदि से मीर्टिंगे करता है, लेकिन उन्हें अनाज के रूप में मदद न देकर, जिससे वे कुछ और दिन संघर्ष चला सकते व चौधरियों को झुका सकते, वह उनके लिए जलसे की घोषणा करता है। यह बात दीगर है कि कामरेडों के जलसे से पहले ही चौधरी और चमार समझौता कर लेते हैं और डॉ. बिशन दास का “शुद्ध क्रांति ”” का सपना बिखर जाता है।

इस संघर्ष के दौरान चमारों में फूट और एकता दोनों ही देखने को मिलते हैं। भूख से तंग आकर प्रीतो अपने लड़के को मंगू के साथ चौधरियों के यहाँ मजूरी के लिए भेजना चाहती है, लेकिन काली द्वारा अपना सारा अनाज उसे दे देने पर अपनी बिरादरी का साथ देने लगती है। संघर्षशील चमारों के पास संघर्ष की दीर्घकालीन योजना नहीं है, उधर चौधरियों का भी लंबे संघर्ष में नुकसान है, अतः जिस तरह गर्मा गर्मी में संघर्ष शुरू होता है, वैसे ही आधी दिहाडी के समझौते से संघर्ष समाप्त भी हो जाता है।

“धरती धन न अपना ” के दलितों में एक ओर सामाजिक चेतना का अभाव है, जिससे वे संघर्ष से जल्दी पीछे हट जाते हैं तो दूसरी ओर उनके अपने सांस्कृतिक मूल्य भी इतने उत्पीड़क हैं कि अपने समाज के सबसे अच्छे व विकसित चेतना वाले व्यक्तियों की बली ले लेते हैं।

उपन्यास का सबसे त्रासद पक्ष इन्हीं उत्पीड़क सांस्कृतिक मूल्यों के दबाव में उजागर हो उधघड़ता है। काली जो दलित (चमार)] समाज का सबसे अच्छा व विकसित चेतना वाला युवक है और ज्ञानों जो बेहद आत्म-सम्मानी व दबंग युवती है, जिसे चौधरी युवक चाह कर भी अपने जाल में नहीं फांस सकते, दोनों ही अपने समाज के सांस्कृतिक उत्पीड़न की बलि चढ़ते हैं। तार्किक रूप में ज्ञानों और काली का परस्पर आकर्षण, प्रेम अत्यंत स्वाभाविक है। जैसा दोनों का स्वभाव है और जैसी चेतना। उसमें इन दोनों में प्रेम संबंध विकसित होना एक अत्यंत सहज प्रक्रिया है। उनके इस सहज प्रेम का एक मुक्त समाज स्वागत करता और दोनों को एक साथ जीवन बिताने का आशीर्वाद देता, लेकिन रूद्ियों की जकड़न से घिरा दलित समाज़ यहाँ अपने सबसे योग्य स्त्री पुरुष का अनजाने में शत्रु बन बैठता है और ज्ञानो की दुखद हत्या व काली के गाँव से पलायन रूप में उपन्यास का अत्यंत त्रासंद अंत होता है।

“किसी को जनेऊ का अधिकार देकर, +किसी को मंदिर प्रवेश का अधिकार दे कर, किसी के घर चंडी पाठ कर, किसी के ऊपर पानी छिड़क कर, किसी को दूब का स्पर्श कर ब्राह्मण दूसरों का उद्धार करता रहता है और इस तरह वह हमेशा अपना वर्चस्व बनाए रखता है तथा जाति प्रथा को नष्ट होने से बचाए रखता है। “

इ.स.1927 में महाराष्ट्र के महाड़ ग्राम के “चवदार तालाब' का सत्यग्रह दलितों को सम्मान और मानवीय अधिकार दिलाने का एक ऐतिहासिक संघर्ष था। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जो स्वयं भी दलित थे, सदर्णों के अमानवीय व्यवहार और छुआछूत के कारण हो रहे उत्पीड़न को दलित मुक्ति संघर्ष द्वारा दूर करना चाहते थे। नासिक का “कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह और चवदर तालाब सत्याग्रह *' ये इसी संघर्ष की कड़ियों हैं। अछूत समाज की अस्मिता को हासिल करने का डॉ आंबेडकर का यह संघर्ष था। “सवर्णों के अत्याचार को समाप्त करने और सामाजिक समता लाने के कामों को वे सर्वाधिक महत्व देते थे।'

“अमानवीय प्रथाओं के पालन को जाति श्रेष्ठता के लिए उपयोग में लाना.धर्म की नीति और अनुदारता का उदाहरण है।'” जाति व्यवस्था के घार्मिक आधार की आलोचना करते हुए वे कहते हैं, ''जो वर्णों पर आधारित है, न कि व्यक्तियों पर यह वह व्यवस्था है, जिसमें वर्णो को एक-दूसरे के ऊपर श्रेणीबद्ध किया गया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें वर्णो की प्रतिष्ठा तथा कार्य निर्धारण निश्चित है। हिंदू समाज-व्यवस्था एक कठोर सामाजिक प्रणाली है। इस बात से उसे कोई लेना-देना नहीं कि किसी व्यक्ति के पद और प्रतिष्ठा में अपेक्षाकृत परिवर्तन 'हो, लेकिन वह जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उस वर्ण के सदस्य के रूप में उसकी सामाजिक स्थिति दूसरे वर्ण के दुसरे व्यक्ति के संदर्भ में किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होगी। उच्च वर्ण में जन्में और निम्न वर्ण में जन्में व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण है।” उन्होंने जाति के उद्गम को धर्म आधारित माना है और धर्म के आघार पर जाति व्यवस्था का निर्धारण आर्थिक व्यवस्था को भी निर्धारित करती है। इस प्रकार 'धरती धन न अपना ' के चमारों की सामाजिक स्थिति से जुड़ा हुआ उत्पीड़न और उनके आर्थिक अभाव व दरिद्रता का भी कारण उनके निम्न जाति में पैदा होने का परिणाम है।

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