इस भाग में हम भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर उत्पन्न मंगोल खतरे एवं उसके परिणामों को मुख्य रूप से रेखांकित करेंगे। हिंदुकुश पर्वत द्वारा विभाजित काबुल-गज़नी-कंधार रेखा पर दिल्ली सल्तनत का नियंत्रण न केवल 'प्राकृतिक सीमाओं' के स्थायित्य के लिए महत्वपूर्ण था, अपितु यह भी एक सत्यता थीं कि यह मार्ग भारत को उस बड़े सिल्क मार्ग से जोड़ता था, जो चीन से मध्य एशिया एवं ईरान होकर गुजरता था। लेकिन मध्य एवं प्रश्चिम एशिया में होने वाले परिवर्तनों के कारण नव-स्थापित तुर्की राज्य इस कार्य को न कर सका | मंगोल आक्रमणों के कारण उत्पन्न स्थिति ने दिल्ली के सुल्तानों के प्रसार को चिनाब नदी तक ही सीमित रखा, जबकि सतलज का क्षेत्र संघर्षों का मुख्य केंद्र बन गया | इस प्रकार 'सिंधु' नदी भारत की एकमात्र 'सांस्कृतिक सीमा' बनकर रह गई और सभी व्यावाहरिक उद्देश्यों के लिए नियंत्रण रेखा केवल सिंधु नदी के पश्चिम तक ही सीमित थी।
प्रो, के. ए. निजामी ने सल्तनत
द्वारा मंगोल खतरे की ओर अपनाए गए दृष्टिकोण को तीन भागों में बांटा है: क) पृथकता, ख) तुष्टीकरण, और ग) विरोध।
इल्तुतमिश ने 'पृथकता' की नीति का अनुसरण किया | दिल्ली के सुल्तानों को मंगोलो के खतरे का सामना तभी से करना पड़ा जब 1221 मेँ मंगोलों ने
ख्वारिज़्म साम्राज्य का अंत कर दिया और चंगेज खां राजकुमार जलालुद्दीन मंगबरनी का पीछा करते हुए
भारत की सीमाओं पर आ पहुँचा था| जलालुद्दीन
को जब कोई विकल्प दिखाई नहीं पड़ा, तब उसने सिंधु नदी को पार किया और सिंधु के खादर क्षेत्र में घुस गया|
इल्तुतमिश मंगोलों को, मारत की सीमा तक पहुंच जाने के कारण, नजरअंदाज नहीं कर सकता था | लेकिन उसके लिए सिंधु के खादर क्षेत्र में मंगंबरनी की उपस्थिति भी
समान रूप से महत्वपूर्ण थी। सुल्तान को भय था कि कुबाचा तथा खोखर मंगबरनी के साथ मिलकर कहीं
गठजोड़ ना कर ले। लेकिन राजनीतिक सत्ता के
लिए कुंबाचा एवं मंगबरनी के मध्य गठबंधन नहीं हो सका, बल्कि वे सत्ता के लिए आपस में ही भिड़ गए | परंतु इसी बीच उसने खोखरों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने में सफलता प्राप्त की | इससे उत्तर-पश्चिम में मंगबरनी की स्थिति और
मज़बूत हो गई | अता मलिक जुबैनी ने अपनी पुस्तक तारीख-ए जहांगुशा में लिखा
है कि इल्तुतमिश ने मंगबरनी की उपस्थिति से उस खत्तरे का अनुमान कर लिया था जिसके अनुसार 'मंगबरनी उसके ऊपर अपनी सत्ता को स्थापित कर उसको नष्ट कर सकता था'| इसके अतिरिक्त इल्तुतमिश भली-भांति सलतनत की कमजोरियों से भी परिचित था | इन्हीं कारणों से बाध्य होकर इल्तुतमिश ने
ष्यूथकताष्की नीति का अनुसरण
किया।
ऐसा
प्रतीत होता है कि चंगेज खां ने अपने दूत को इल्तुतमिश के दरबार में भेजा था| सुल्तान के विषय में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है, लेकिन इतना निश्चित है कि जब तक चंगेज़ खां जीवित रहा (मृत्यु 1227), तब तक इल्तुतमिश ने उत्तर,.पश्चिम की ओर कोई सैन्य अभियान नहीं भेजा | यह संभव हों सकता है कि दोनों के मध्य एक-दूसरे पर आक्रमण न करने का
कोई समझौता हुआ हो | इल्तुतमिश ने कूटनीतिक तरीक से ख्वारिज़्म
राजकुमार के साथ राजनीतिक गठबंधन करने की अवज्ञा की | ख्वारिज़्म
राजकुमार ने आइन-उल मुल्क को इल्तुतमिश के दरबार में अपने राजदूत के रूप में इस प्रार्थना के साथ भेजा कि वह
उसको राजनीतिक शरण दे | किंतु इल्तुतमिश ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि ठहरने के लिए
यहाँ की जलवायु उसके अनुकूल नहीं है| दूसरे, उसने, उसके दूत का क्ध कर दिया| मिनहाज सिराज उल्लेख करता है कि इल्तुतमिश ने मंगबरनी के विरुद्ध सैनिक अभियान भेजा | किंतु मंगबरनी ने किसी तरह से युद्ध को टाल दिया
और वह 1224 में अंततः भारतीय भूमि को छोड़ गया |
इल्तुतमिश की 'पृथकता' की नीति से ष्तुष्टीकरण की नीति की ओर बदलाव, उस समय हुआ जब सल्तनत की सीमाओं को लाहौर एवं मुल्तान तक बढ़ा
दिया गया| इस नीति के कारण मंगोल आक्रमणों के सम्मुख सल्तनत प्रत्यक्ष तौर पर आ गई
क्योंकि अब दोनों के मध्य मध्यवर्ती राज्य नहीं रहा था | बमयान के हसन करलग ने रज़िया सुल्तान के सम्मुख
मंगोल विरोधी गठबंधन बनाने का प्रस्ताव
रखा, किंतु उसने प्रस्ताव को
मानने से इंकार कर दिया | इससे स्पष्ट है कि उसने मंगोलों के प्रति ष्तुष्टीकरण७ की नीति
का अनुसरण किया। हमको इस तथ्य को भी ध्यान में रखना घाहिए कि मंगोलों द्वारा अनाक्रमण की इस नीति का
अनुसरण च॑गेज खां के पुत्रोंके बीच साम्राज्य के बंटवारे का परिणाम था, क्योंकि इससे उनकी शक्ति कमज़ोर हो गई थी | दूसरा कारण यह भी था कि उस समय मंगोल पश्चिम एशिया में व्यस्त थे।
चाहे कोई भी कारण रहे हों, कितु 1240-1266 के मध्य
मंगोलों ने प्रथम बार भारत पर अधिकार करने की नीति का अनुसरण किया और इसी के साथ परस्पर एक-दूसरे पर “आक्रमण न
करने के समझौते' के स्वर्णिम युग का अंत हो गया| इस दौरान सल्तनत को मंगोलों से गंभीर खतरा बनारहा | इसका मुख्य कारण मध्य एशिया में होने याला परिवर्तन
था| ट्रांसऑक्सियाना के मंगोल खाकान के लिए शक्तिशाली ईरानी शासक का सामना करना
कठिन था | इसलिए उसने अपने भाग्य को परखने के लिए भारत की ओर कूच किया ।
1241 में तैर बहादुर ने लाहौर पर आक्रमण किया और नगर
को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। इसी के साथ 1245-1246 में दो
और आक्रमण किए गए। नसीरुद्दीन के शासनकाल में बलबन द्वारा किए गए विशेष प्रयासों के बावजूद 1241-1266 के बीच सल्तनत की सीमाएँ सिमटकर व्यास नदी तक रह गईं | इसके बावजूद भी कुछ समय तक च्तुष्टीकरण७ की नीति जारी रही। 1260 मेँ हलागू के दूत का दिल्ली में उचित सम्मान किया गया और इसी तरह के
कूटनीतिक सम्मान का परिचय
हलागू ने भी दिया।
दिल्ली सल्तनत की नीति में विशेष परिवर्तन बलबन के सत्ताकाल से हुआ।
कुल मिलाकर यह 'विरोध' का समय था| बलबन अधिकतर समय दिल्ली में ही रहा, उसकी मुख्य ताकत मंगोलों को रोकने में ही लगी रही और उसने उनको व्यास नदी से दूर रखने में सफलता
भी प्राप्त की | बरनी लिखता है कि तमार खां तथा आदिल खां जैसे कुलीनों
ने बलबन को मालवा एवं गुजरात पर आक्रमण करने का सुझाव दिया और उसे प्रसारवादी नीति का अनुसरण करने की
सलाह दी | किंतु बलबन ने उत्तर दिया:
जबकि मंगोलों ने इस्लाम की संपूर्ण भूमि पर अधिकार कर लिया है, लाहौर को नष्ट कर दिया है और इसे आधार बनाकर प्रत्येक वर्ष हमारे देश पर
आक्रमण करते हैं...तब मैं अपनी राजधानी को कैसे छोड़ सकता हूं| मंगोल निश्चय ही इस अवसर का लाभ उठाते हुए दिल्ली पर अधिकार कर लेंगे और दोआब को रौंद डालेंगे। अपने ही राज्य
में शक्ति बनाए रखना और अपनी शक्ति सुदृढ़ करना दूसरे देशों के क्षेत्रों पर आक्रमण करने से कहीं बेहतर
है, जबकि अपना स्वयं का राज्य असुरक्षित हो |
बलबन ने मंगोलों के विरुद्ध 'बल एवं कूटनीति' दोनों का
उपयोग किया | उसने अपनी सुरक्षा रेखा को मजबूत करने के लिए प्रयत्न किए। व्यास नदी के
पार मंगोलो के विस्तार को रोकने के लिए भटिंडा, सुनाम तथा समाना के किलों
की मरम्मत कराई | बलबन ने मुल्तान एवं उच्छ
पर अधिकार करने में भी सफलता प्राप्त
की, किंतु पंजाब में उसकी सेनाओं
पर मंगोलों का भारी दबाव बना रहा |बलबन के पुत्र राजकुमार मुहम्मद को प्रत्येक वर्ष मंगोलों के विरुद्ध
सैनिक अभियान भेजने पड़ते थे| मंगोलों से मुल्तान की
रक्षा करते हुए 1285 में राजकुमार की मृत्यु हो
गई। परंतु एक वास्तविकता यह भी थी कि 1295 तक मंगोलों ने दिल्ली पर अधिकार करने के प्रति
कोई विशेष उत्सुकता नहीं दिखाई |
खलजियों के शासनकाल में मंगोल आक्रम्णों का क्षेत्र और आगे की ओर बढ़
गया | 1299 मेँ
मंगोलों ने कुतलग ख्वाजा के नेतृत्व
में प्रथण बार दिल्ली पर आक्रमण किया| तब से दिल्ली मंगोल आक्रमणों का एक स्थायी लक्ष्य बन गई | दूसरी बार कुतलग ख्वाज़ा ने दिल्ली पर 1303 सी ई में उस समय आक्रमण किया जब अलाउद्दीन चित्तौड़ के अभियान में व्यस्त था | यह आक्रमण इतना भयंकर था कि मंगोलों ने दिल्ली में व्यापक स्तर पर
सर्वनाश किया| दिल्ली में उनके रहते अलाउद्दीन खलजी नगर में प्रवेश करने की हिम्मत न
कर सका|
मंगोलों के लगातार होने वाले आक्रमणों ने अलाउद्दीन को स्थायी समाधान
दढूँढने के लिए बाध्य किया | उसने व्यापक स्तर पर सैनिकों की भर्ती की और सीमावर्ती किलों को मजबूत
किया | फलस्वरूप मंगोलाँ को पहले 1306 में तथा फिर 1308 में पराजय का सामना करना पड़ा | मंगोलों की इस
पराजय का एक कारण 1306 में मंगोल सरदार दावा खां
की मृत्यु और उसकी मृत्यु के बाद वहां गृह युद्ध का शुरू हो जाना भी था | इससे मंगोल बहुत अधिक कमजोर पड़ गए और अब उनका अस्तित्व एक शक्ति के रूप में समाप्त हो गया | इससे दिल्ली के सुल्तानों को अपनी सल्तनत की सीमाओं का प्रसार करने में सहायता मिली | मंगोलों का अंतिम महत्वपूर्ण आक्रमण तरमाशीरीन (1326-27) के नेतृत्व में मुहम्मद तुगलक के शासन काल में
हुआ।
इस तरह दिल्ली के सुल्तान मंगोल समस्या का समाधान करने में सफल रहे
और मंगोलों से अपने राज्य को
बचाए रखने में सफलता प्राप्त की| इससे
सल्तनत की शक्ति भी स्पष्ट होती है। इसके अतिरिक्त, मंगोलों द्वारा मध्य एवं
पश्चिमी एशिया में किए गए सर्वनाश के कारण बड़ी संख्या में विद्वान, दार्शनिक, कलाकार एवं अन्य लोग भागकर
दिल्ली आ गए और उन्होंने इसको मुस्लिम संस्कृति के एक महान् नगर के रुप में रूपांतरित किया |
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