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अरस्तू के अनुसार त्रासदी के प्रमुख तत्वों को स्पष्ट कीजिए।

अरस्तु ने त्रासदी के छः तंत्व माने हैं - i) कथानक, (ii) चरित्र , (iii) विचार, (iv) पदविन्यास, (v) दृश्य-विधान , और (vi) गीत। इन सभी तत्वों का उन्होंने कमोबेश विस्तार से विवेधन किया है और इन सभी का संबंध अनुकरण से है।

(1) कथानक - कथानक का अर्थ है त्रासदी की विषयवस्तु या घटना-विन्यास। अरस्तू ने त्रासदी में सबसे अधिक महत्व इसी तत्व को दिया और इसी पर सबसे अधिक विस्तार से विधार भी किया। त्रासदी कार्य की अनुकृति है और कथानक उसी कार्य-व्यापार को प्रस्तुत करता है। यह व्यक्ति-चरित्र का नहीं घटनायुकत जीवन के कार्य-व्यापार का, सुख-दुःखमय प्रसंगों का अंकन है। त्रासदी का प्रभाव कार्य-व्यापार पर ही निर्मर करता है। इसके अन्य सब तत्व भी कार्य-व्यापार के ही साधक हैं। चरित्र कार्य-व्यापार के माध्यम के रूप में ही आत्ते हैं। चरित्रों के बिना त्रासदी की योजना हो सकती है, कार्य- व्यापार के बिना नहीं।

यह उल्लेख हो चुका है कि अरस्तू की मूल दृष्टि वस्तुपरक थी, इसलिए वस्तुजगत तथा इसमें घटनेवाली घटनाओं के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही था। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि जिन त्रासदियों को सामने रखकर अरस्तु ने अपना काव्यशास्त्र रचा था वे भी कार्य- व्यापार प्रधान ही थीं। इसलिए उनके त्रासदी विवेचन में भी कार्य-व्यापार को प्रस्तुत करने वाले तत्व- कथानक पर सबसे अधिक बल रहा।

2) चरित्र चित्रण - आपने देखा कि अरस्तू ने त्रासदी के तत्वों में सबसे अधिक महत्व कथानक और कार्य-व्यापार को दिया है। कार्य-व्यापार का निष्पादन चूँकि चरित्रों के द्वारा होता है इसलिए कथानक के बाद चरित्र ही उनकी दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण है। वे मानते है कि त्रासदी के पात्रों का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, किंतु उनका चरित्रांकन जरासदी के समग्र कथ्य के अनुरूप होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उनके माध्यम से त्रासदी का यैतिक प्रयोजन भी अभिव्यक्त होना चाहिए। अरस्तू चरित्रों के कर्शाथ अंकन पर भी बल देते हैं। ऐतिहासिक पात्रों का जहाँ चित्रण हो, वह उनके इतिहास प्रसिद्ध रूप से बहुत मिन्‍न न हो। अन्य चरित्रों के अंकन में भी संभाव्यता का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए। चरित्रांकन में औचित्य तथा एकरूपता या अन्विति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। गतिशील चरित्रों में जो परिवर्तन दिखलाए जाएँ वे असंगत या अस्वाभाविक न हों। वस्तुतः चरित्रांकन के लिए अरस्तू ने कुछ आधारभूत सिद्धांतों पर बल दिया है। वे इस प्रकार है :

·         चरित्र अद्र होना चाहिए और उनके माध्यम से नैतिक उद्देश्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। प्रत्यक्ष रूप से कथन के माध्यम से और अप्रत्यक्ष रूप से कार्य-व्यापार के माध्यम से उसकी अभिव्यक्ति हो सकती है।

·         चरित्रों के अंकन में औचित्य तथा एकरूपता या अन्विति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। औचित्य या अन्विति का अर्थ है, किसी चरित्र में विसंगत या परस्पर विरोधी विशेषताएँ नहीं दिखाई जानी चाहिए। उसकी विशेषताएँ स्थिति तथा प्रकृति के ही अनुरूप हों।

·          चरित्र में स्वाभाविकता तथा संभाव्यता होनी चाहिए, अर्थात्‌ जीवन के यथार्थ से उनका मेल हो। गतिशील चरित्रों में दिखाए जाने वाले परिवर्तन मी असंगत या यथार्थ विरोधी न हों|

·          इसी से यह बात जुड़ी है कि चरित्रों में आए परिवर्तन उनकी मूल प्रकृति के अनुरूप तथा स्वानाविक हों।

·         चरित्रांकन में अरस्तु ने चित्रांकन को अपना आदर्श माना। उनका कहना था कि जिस प्रकार चित्रकार बाध्य जगत को अपने विषय. के तौर पर लेते हुए भी उसे अधिक सुंदर रूप में प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार रचनाकार को भी स्थानाविकता तथा यथार्थ की रक्षा करते हुए भी धरित्रों को अधिक सुंदर तथा परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।

ऋसदी का नावक - नायक त्रासदी का केंद्र होता है। त्रासदी की सभी घटनाओं तथा कार्यों का संबंध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सूप से नायक से ही होता है और वही नाटक की अन्विति का सूत्र होता है। उसी के माध्यम से त्रासदी में करुणा तथा त्रास के भाव उदबुद्ध होते हैं। प्रश्न उठता है कि त्रासदी का नायक कैसा होना चाहिए?

1. नायक को सर्वथा निर्दाष, नितांत सज्जन व्यक्ति नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति का अपकर्ष दर्शकों को आघात पहुँचाता है, उनमें करुणा तथा त्रास के स्थान पर हताशा तथा आदर्श के प्रति अनास्था के भाव जगाता है।

2. वह खलपातन्र भी नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति का पतन करुणा अथवा त्रास पैदा नहीं करता बरन्‌ दर्शक की न्याय भावना को पुष्ट करता है।

3. अरस्तु के अनुसार त्रासदी के नायक को दुलीन, अत्यंत वैभवशाली, यशस्वी, समृद्ध तथा प्रभावशाली होना चाहिए ताकि उसका अपकर्ष वृहत्तर समाज को भी प्रमावित करे। इस तरह, जासदी का नायक अत्यंत महान या परम दुष्ट न होकर सामान्य मानवों जैसा होना चाहिए जिसके चरित्र में अच्छाई के साथ कमजोरियों भी होती हैं। किंतु मूल खप से उसे सज्जन ही होना चाहिए। उसकी कमजोरियों या कमियाँ ही उसकी विपत्तियाँ का कारण बनती है किंतु मुलतः सज्जन होने के कारण वह पाठकों/दर्शकों से तिरस्कार के स्थान पर सहानुभूति अर्जित करता है और उसकी दुर्दशा उनमें करुणा तथा त्रास जगाती है।

3) विचार - अस्स्तु ने विचार के अंतर्गत केवल बुद्धितत्व ही नहीं बत्कि भावतत्व को भी समेटा है। बुद्धि के स्तर पर विचार सामान्य सत्य की व्यंजना करने का माध्यम होता है। अर्थात्‌ वह सामान्य सत्यका संकेत करता है, साथ ही प्रमाणों तथा तर्क द्वारा यंह किसी वस्तु के भाव (होने) वा अभाव (होने) को भी सिद्ध करता है। भाद के स्तर पर यह करुणा, त्रास, क्रोध आदि की व्यंजना करता है और रानका मृल्यांकन भी। इसके अंतर्गत चिंतन भी आ जाता है और तर्क भी। इसका साथन वाणी या भाषा है और विचारों को व्यक्त करने वाली भाषा भी विशिष्ट होगी चाहिए।

4) पथविष्यास - अरत्तु के युग में दक्तृत्व कला इतनी महत्वपूर्ण मानी जाती थी कि इसका विकास एक शारत्र के सूप में हो गया था। इसी से आप समझ सकते हैं कि वाणी या भाषा और रासके विभ्वास को उस युग में कितना महत्व प्राप्त था। त्रासदी में जो विचार तत्व निहित होता था उसे अिवयक्त करने का माध्यम भी भाषा ही है।

अरत्तु के अनुसार पदविन्यास का अर्थ भा शब्दों हारा अर्थ की अधिव्यक्ति। जिस प्रकार चासदी के कथानक और चरित्र ब्यार्थ जगत से उडाए जाकर भी ब्यार्थ क॑ उस्पेशा कुछ विशिष्ट होते हैं उसी प्रकार उत्तकी थाया मूलतः प्रचलित भाषा होते हुए थी विशिष्ट होती है ताकि यह आसडी के विधारतरथ में निहित सत्य की अभिव्वक्त कर सके। वह पास अलंकृत होनी चाहिए, अर्थात्‌ उसमें 'लथ, सानंजरथ और गीत का समावेश ' हो। वह प्रसाद गुण संपन्‍न, प्रसन्‍न, समृद्ध और उदास होनी चाहिए। उदातता से अस्स्तू का आशय है कि त्रासदी की भाषा चढ़स्ती हुई क्षुद्र धावा न हो। उसमें त्रासदी के पिषय के अनुरूप गरिमा हो। किंतु यहीं वे इस बात पर भी बल देते हैं क भब्यता, उदासता था गरिभा का अर्थ बागाइंबर नहीं होता। अनेक स्रोतों से औचित्व तथा आवश्यकता के अनुरूप शब्द प्रहण करने के कारण भी वह भाषा समृद्ध होती है।

अरत्तू जासदी के लिए उंदेयद याषा था पद को अधिक उदयुक्‍त मानते हैं. हालाँकि गद्य का भी वे विरोध नहीं करते! गीत को भी वे त्रासदी का अभिन्‍न अंग मानते हैं। उनके समय में त्रासदी में सृंदगान (कोरस) की भूमिका बहुत यहत्वपूर्ण होती थी और कृंदगान की आयश्यकसा पर भी उन्होंने विशेष बल

5) दृश्य-विधान - त्रासदी के कार्य-व्ववहार का संचालन ढदि चित्रों के माह्दम से होता है तो उसकी प्रस्तुति इस्च-विदयान के माध्यम से। दृश्व-विधान का अर्थ है रंगनंचीय साधनों का प्रयोग! अस्त मानते थे कि इन साधनों के कुशल प्रयोग से त्रासदी के प्रमाव को सघन करने में सहायता मिलती है, किंतु इसे उन्होंने त्रासदी का अनिवार्य या महत्वपूर्ण अंग नहीं माना। इस पर उन्होंने बहुत अधिक विचार भी नहीं किया। इसके दो कारण हैं। एक तो, दृश्य-विधान रैगमंच से जुड़ा है, रचना के लेखन से नहीं। यह मुख्य रूप से मंचशिल्पी का काम है। त्रासदीकार का इससे उतना अधिक संबंध नहीं है। दूसरा कारण यह है कि अरस्तू के अनुसार त्रासदी की प्रमावात्मकता मात्र उसकी अभिनेयता में न होकर काव्यात्मकता में भी निहित होती है।

6) गीत - पद विन्यास के संदर्भ में भी उल्लेख हो चुका है कि अरस्तू गीत को त्रासदी का अनिवार्य अंग मानते हैं। ग्रीक नाटकों में गायकों का समृह होता था जो 'कोरस' कहलाता था। ग्रीक नाटकों में वृंदगान (समूह गान) करने वाले इस 'कोरस्र ' की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। कोरस अपने गीतों के माध्यम से पूर्वधटित स्थितियों, और घटनाओं का परिचय देता और उन पर टिप्पणी करता था, आगे आने वाली घटनाओं नाटक की कथा के रिक्त स्थानों की पूर्ति करता था। जो घटनाएँ दृश्य रूप में प्रस्तुत नहीं की जाती थीं, कोरस उनकी सूचना देकर कथा को आगे बढ़ाता था। अरस्तू मानते थे कि नाटक में वृंदगान का महत्व किसी पात्र से ,कम नहीं है। वह नाटक में आनंद तथा गंभीरता की सृष्टि करता है और उसके प्रमाव की वृद्धि करता है।

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