डॉ.रामविलास शर्मा ने भाषा-संरकृति, साहित्य-आलोचना-संस्कृति में आर्थिक आधार से ज्यादा सामाजिक आधार का महत्व स्वीकार किया है। इसी सामाजिक आधार के परिप्रेक्ष्य से वे 'हिंदी जाति' की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं। 'हिंदी जाति' की अवधारणा के 'बीज' उन्हे मार्क्सवादी सामाजिक चिंतन से प्राप्त हुए हैं।'मानव-सम्यता का विकास ' पुस्तक में वे कहते हैं - 'पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के प्रतिष्ठित होने के पहले सौदागरी पुँजी द्वारा पुरानी व्यवस्था के अंदर ही पूँजीवादी संबंधों का निर्माण होता है। इन संबंधों का परिणाम ही जातीय गठन है।' (पृ.97) 'जाति' को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं - 'जाति वह मानव-समुदाय है जो व्यापार द्वारा पूँजीवादी संबंधों के प्रसार के साथ गठित होती है। सामाजिक विकासक्रम में मानव समाज पहले 'जन' या 'गण' के रूप में गठित होता है। सामूहिक श्रम और सामूहिक विवरण गण-समःज की विशेषता है और उसके सदस्य आपस में एक-दूसरे से रक््त- संबंध क॑ आधार पर सम्बद्ध माने जाते हैं। इन गण-समाजों के टूटने पर लघु जातियाँ बनती हैं जिनमें उत्पादन छोटे पैमाने पर होता है और नए श्रव विभाजन के आधार पर भारतीय वर्ण-व्यवस्था जैसी समाज-व्यवस्था का चलन होता है। पूँजीवादी युग में इन्हीं लघु जातियों से आधुनिक जातियों का निर्माण होता है। ' बहुत सतर्कता के साथ डॉ. शर्मा 'राष्ट्र', 'नेशन' और 'जाति' इन तीन शब्दों के बारीक भेद को स्पष्ट करते हैं - 'मार्क्सवादी साहित्य में 'नेशन' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, उसके लिए 'हिंदी', 'बंगला' के परिचित पुराने शब्द 'जाति' का प्रयोग करना उचित है। 'राष्ट्र' शब्द से भूमि का भी बोध होता है जबकि 'नेशन' शब्द से केवल किसी भूखंड के निवासियों का बोध होता है।' (वही, पृ. 14) 'जातीयता' की सबसे इस्सी पहचान 'माषा' से होती है जैसे 'हिंदी, बंगला, मराठी, तमिल आदि भाषाएँ बोलने वाले समुदायों को 'जाति' कहते हैं। प्रत्येक 'जाति' आधुनिक पूँजीवादी आर्थिक संबंधों के विकास का परिणाम है।' इसी तर्क से डॉ. शर्मा नस्ल या धर्म को 'जाति' का आधार स्वीकार नहीं करते। एक ही धर्म को मानने वालों में भाषा के आधार पर अलग-अलग जातियों का अस्तित्व होता है, जैसे तुर्क, अरब, ईरानी मुसलमान हैं उनकी भाषाएँ अलग-अलग हैं। उनकी जातीयता की पहचान उनकी भाषाओं से होती है।
जातीय भाषा के रूप में हिंदी के उदय-प्रसार की चर्चा करते हुए वे व्यापारिक पूँजीवाद के उदय पर ध्य हैं। शेरशाह ने सड़कें-नहरें तैयार करवाईं। इनसे व्यापार में सुविधा मिली। देश में व्यापार की बड़ी-बड़ी मंडियाँ कायम हुईं, जनपदों का अलगाव दूर हुआ - आगरा, दिल्ली, बनारस, पटना में कौमी बाज़ार पनपे। व्यापार-विनिमय के लिए इन बाज़ारों में जो भाषा काम में आती थी वह थी - 'खड़ी बोली ' या 'हिंदी '। अपर्भ्रश को पीछे ठेलकर ब्रज-अवधी जैसी लोक-भाषाएँ आगे बर्ढीं। भमक्ति-आंदोलन इन्हीं लोक-भाषाओं की शक्ति से फैला। अतः 'ब्रजमाषा, अवधी, खड़ी बोली आदि ने हिंदुस्तानी 'हिंदी' जाति के निर्माण में मदद की।' (भारत की भाषा समस्या, पृ. 87) फिर ध्यान में रखने की बात यह है कि हिंदी जाति का चरित्र संघर्षों से परिपुष्ट हुआ है।' मक्ति-आंदोलन में सूफी और संत, जुलाहे- कारीगर, किसान - सभी शामिल हैं तभी तो वह जातीय-आंदोलन है। डॉ.शर्मा की 'हिंदी जाति' की अवधारणा ने हिंदी साहित्य के स्वीकृत ढाँचे को प्रभावित किया। 'शुक्लजी का आदिकाल वास्तविक मध्यकाल है, हिंदी जनपदों के इतिहास का 'सामंतकाल' है। वीरगाथाकाल 'रीतिवाद' का प्रथम उत्थान है। पूर्व मध्वकाल (भक्तिकाल) लोक-जागरण काल है। उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) 'रीतिवाद' का द्वितीय उत्थान है।' व्यापास्कि पूँजीवाद सामंती ढाँचे के भीतर पनपता है, पर उसे तोड़ नहीं पाता। इसलिए साम॑ती रूढदियों की घारा और ,लोक-जागरण की धारा, समानांतर प्रवाहित होती हैं। (वही, पृ. 124) भारतीय इतिहास के विश्लेषण के बाद वे सिद्ध करते हैं कि आधुनिकता अंग्रेज़ी राज की देन नहीं है, उसका विकास इस राज के विरुद्ध संघर्ष के दौरान हुआ है। निष्कर्ष यह कि डॉ.शर्मा ने लोक-जागरण की चिंतन परंपरा में आचार्य शुक्ल का आधार ग्रहण किया। किंतु हिंदी जाति की विकास प्रक्रिया की अवधारणा उनकी अपनी मौलिक सोच की उपज है।
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