व्यंजन से अभिप्राय
स्वरों से विपरीत व्यंजन के लिए हम जानते हैं कि इनका
उच्चारण अबाध नहीं होता। व्यंजन वर्णों के उच्चारण के समय मुख से बाहर निकलने वाली
वायु के मार्ग में बाघा उत्पन्न होती है। वस्तुतः इनके उच्चारण के लिये उच्चारण
अवयवों यानी जिह्वा तथा निचले ओष्ठ द्वारा मुख के भिन्न-भिन्न उच्चारण स्थलों पर
वायु के मार्ग को बाधित किया जाता है। (उच्चारण स्थलों एवं उच्चारण अवयवों पर भी
विस्तार से चर्चा पिछले अध्याय में की जा चुकी है।) मुख विवर के ऊपरी अंग जिनमें
ऊपरी ओष्ठ, दंत एवं वर्त्स, तालु, मूर्धा, कोमल तालु कंठ एवं स्वर यंत्र हैं इन्हें
उच्चारण स्थल कहा जाता है। इन उच्चारण
स्थलों पर उच्चारण अवयव (जिहवा एवं निचले ओष्ठ) अपने
परिचालन से बाधा उत्पन्न कर भीतर से आती वायु को रोकते हैं। क्षणांश के अवरोध के
बाद झटके से हवा मुख विवर से बाहर निकलती है, और इस
क्रिया से इन वर्णों का उच्चारण संभव हो पाता है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी
है कि इनका उच्चारण स्वतंत्र नहीं होता। इनका उच्चारण स्वरों की सहायता से ही संभव
हो पाता है। 'अ' स्वर के बिना इन्हें
उच्चरित नहीं किया जा सकता। स्वर रहित व्यंजन को हलन्त से प्रदर्शित किया जाता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि व्यंजन उन वर्णों को कहा जाता है जिनका उच्चारण स्वतंत्र
न होकर स्वर वर्णों पर आश्रित है एवं जिनके उच्चारण में वायु मुख में किसी न किसी रूप
से बाधित होती है।
इस परिभाषा के आधार पर व्यंजन वर्णों की विशेषताओं को यदि हम दोहराना चाहें तो हम पाएँगे कि व्यंजन वर्ण सर्वप्रथम स्वतंत्र रूप से स्वयं उच्चरित नहीं होते, ये स्वरों की सहायता से उच्चरित होते हैं। इनके उच्चारण में वायुमार्ग में अवरोध रहता है और उच्चारण के समय वायु मुख विवर से अबाघ गति से नहीं निकलती। दरअसल यह अवरोध उच्चारण अवयवों की स्थिति पर निर्मर करते हैं। स्वर की सहायता से उच्चरित होने के कारण इनका उच्चारण देर तक नहीं किया जा सकता और इनके उच्चारण का उत्तरांश (बाद का अंश) 'अ' स्वर का उच्चारण ही रह जाता है। जैसे क, ख, ग या प, फ, ब आदि किसी भी व्यंजन के उच्चारण में अंततः 'अ' की ध्वनि ही देर तक गूंज सकती है। यहाँ क, ख, ग, या प. फ, ब का उच्चारण सीमित समय तक ही सुनाई देगी। साथ ही व्यंजन का उच्चारण किसी उच्चारण स्थान विशेष से होता है। वह स्वरों की तरह पूरे मुख विवर में गूंजते नहीं हैं।
उचाचरण
स्थान के आधार पर व्यंजन के भेद
उच्चारण स्थानों की चर्चा के क्रम में हम समझ चुके हैं
कि वर्णों के उच्चारण के लिए वायु को रोककर या उसे कई प्रकार से विकृत करके यह
कार्य किया जाता है। वायु को मुख में रोककर या उसे किसी अन्य प्रकार से विकृत करने
की इस क्रिया को प्रयत्न कहा जाता है। इन प्रयत्नों के अनुसार व्यंजन के भेदों कई
आधार दिखाई देते हैं। जिन्हें निम्नलिखित रूप से देखा जा सकता है।
सर्वप्रथम
प्रयत्न की प्रकृति के आधार पर यह कार्य किया जाता है,
दूसरे
श्वास की मात्रा के आधार पर यह कार्य किया जाता है,
और
तीसरे स्वर तंत्रियों के कंपन के आधार पर भी यह कार्य किया जाता है।
- 1. अवरोध की प्रकृति के आधार पर भेद
व्यंजन
वर्णो के उच्चारण में उच्चारण स्थान पर उत्पन्न अवरोध की प्रकृति भिन्न-भिन्न प्रकार
की होती है और अवरोध की प्रकृति की भिन्नता के अनुसार व्यंजनों के मुख्य रूप से
तीन भेद किए जाते हैं, जो इस प्रकार हैं - स्पर्शी,
अंतःस्थ एवं ऊष्म। इन तीन मुख्य भेदों के अतिरिक्त स्पर्शी व्यंजनों
को भी पुनः स्पर्शी, संघर्षी एवं स्पर्श संघर्षी जैसे
उपभेदों में बांटा गया है।
स्पर्शी - जिन व्यंजनों के
उच्चारण के समय कोई उच्चारण अवयव यानी जिहवा आदि किसी उच्चारण स्थल को स्पर्श करते
हुए क्षण भर के लिए मुख विवर में वायु के मार्ग को अवरोधित करता है वे सभी व्यंजन
स्पर्शी व्यंजन कहे जाते हैं। हिन्दी वर्णमाला में क वर्ग,
ट वर्ग, त वर्ग इन सभी के प्रथम चार व्यंजन
स्पर्शी माने गए हैं। इस तरह स्पर्शी व्यंजन की सूची निम्न होगी -
क,
ख, ग, घ
ट,ठ,ड,ढ
त.थ,
द, घ
प,
फ, ब एवं भ।
ऊष्म
व्यंजन - ऊष्म का सामान्य अभिप्राय है गर्म। पहले भी
कहा गया है कि कई बार उच्चारण स्थान एवं उच्चारण अवयव के बहुत निकट होने की स्थिति
में उच्चारण करते समय मुख से वायु घर्षण करते हुए निकलती है। ऐसी स्थिति में घर्षण
की क्रिया से मुख में वायु गर्म हो जाती है। इस प्रकार जब उच्चारण करते समय मुख से
वायु घर्षण करते हुए निकले और इस घर्षण की क्रिया से मुख में वायु गर्म हो जाए तो
ऐसे उच्चरित व्यंजन ऊष्म कहे जाते हैं।
इस वर्ग में ष,
श, स एवं ह को रखा जाता है।
अंत्ःस्थ - कुछ व्यंजनों के उच्चारण के समय जिहवा, तालु, दांत और ओष्ठ निकट तो आते हैं किन्तु इनमें कहीं भी स्पर्श नहीं होता | इन व्यंजनों को अंतःस्थ कहते हैं। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय स्वर और व्यंजन के उच्चारण के मध्य की स्थिति रहती है। मुख के भीतर जिहवा का स्पर्श या ओष्ठ का दांत से स्पर्श बहुत कम होता है। यही कारण है कि कुछ विद्वान इस वर्ग के सभी व्यंजनों को अर्द्धस्वर भी कहते हैं। इस वर्ग में य, र, ल, व ये चार व्यंजन आते हैं।
इन्हें
अर्द्धस्वर मानने से पृथक् कुछ विद्वान अंतःस्थ व्यंजनों के पृथक-पृथक् उपभेद
करते हैं,
जिन्हें अर्द्धस्वर, लुंठित और पार्शिविक कहा
जाता है।
- 2. प्राणत्व के आघार पर
प्राण
से यहाँ अभिप्राय है - 'वायु', 'हवा'''श्वास' या 'प्राण वायु की शक्ति'। वर्णों के उच्चारण की क्रिया
के मध्य मुख से निकलने वाली वायु की शक्ति या मात्रा के आधार पर भी व्यंजनों का
भेद किया जाता है। इन्हें ही प्राणत्व के आधार पर किया गया वर्गीकरण कहा जाता है।
इस आधार पर कुछ व्यंजन अल्पप्राण तथा कुछ व्यंजन महाप्राण कहे जाते हैं। इन दोनों
को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है -
अल्पप्राण
- जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से कम मात्रा में वायु
निकलती है यानी जिनके उच्चारण में श्वास बल कम रहता है उन व्यंजनों को अल्पप्राण
कहा जाता है। हिन्दी वर्णमाला में सभी वर्गों के व्यंजनों में पहला,
तीसरा एवं पाँचवाँ व्यंजन अल्पप्राण माना जाता है।
इस
तरह अल्पप्राण व्यंजनों की सूची निम्न होगी -
क,
ग, डः
च,ज,जञ
ट,ड्ण
त,द,न
पब,म
इनके
अतिरिक्त य, र, ल, और ड़ भी इसी वर्ग में आते हैं।
महाप्राण
- यह अल्पप्राण व्यंजनों के विपरीत हैं। महाप्राण
व्यंजनों के उच्चारण में मुख से वायु ज्यादा मात्रा में निकलती है। यानी इनके
उच्चारण में श्वास बल अधिक होता है। या यों कहें की हवा का आधिक्य होता है।
महाप्राण व्यंजनों में प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा व्यंजन शामिल है।
इस
तरह महाप्राण व्यंजनों की सूची निम्न ह-
ख्,घ
छ,झ
ठ,ढ
थ,ध
फ,
भ
इन सभी उपरोक्त व्यंजनों के साथ इस वर्ग में ढ़ व्यंजन
भी शामिल है।
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