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उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के विकास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

सल्तनत काल (13-15वीं शताब्दी) के दौरान उत्तरी और पूर्वी भारत तथा महाराष्ट्र में कई लोकप्रिय सामाजिक-धार्मिक आंदोलन उभरे। इन आंदोलनों ने भक्ति और धार्मिक समता पर जोर दिया। जैसा कि हम पढ़ चुके हैं, दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलन में भी ये विशेषताएं शामिल थीं। सल्तनत काल के दौरान होने वाले सभी भक्ति आंदोलनों का संबंध एक या दूसरे दक्षिण भारतीय वैष्णव आचार्य के साथ रहा है। इन्हीं कारणों से कई विद्वान यह मानने लगे कि सल्तनत काल में पनपे भक्ति आंदोलन पुराने भक्ति आंदोलन की एक कड़ी शे या वह पुनर्जीवित हो उठे थे उनका नर्क है कि विभिन्‍न सम्पर्कों और लेन-देन से इन दोनों में एक, दार्शनिक और वैचारिक समानता है। अतएव, यह माना जाता है कि उत्तर भारत के निरीश्वरवादी एकेश्वरवादी आंदोलन से जुड़े कबीर और अन्य संत रामानंद के शिष्य थे और रामानंद रामानुज के दार्शनिक सिद्धांत के अनुयायी थे। यह भी माना जाता है कि बंगाल के वैष्णव आंदोलन के महत्वपूर्ण संत चैतन्य, माधव के दार्शनिक मत के अनुयायी थे। “'कृष्ण'' भक्ति पर जोर देने के कारण इस आंदोलन का संबंध निश्चार्क सम्प्रदाय से जोड़ा जाता है।

निस्संदेह दक्षिण भारत की अपेक्षाकृत पुरानी भक्ति परम्परा और सल्तनत तथा मुगल काल में पनपे धार्मिक आंदोलन में कुछ महत्वपूर्ण समानताएं हैं। अगर हम कबीर, नानेक और “छोटी” जातियों के अन्य संतों के एकेश्क्रवादी आंदोलनों को अलग कर दें. तो दोनों आंदोलनो (दक्षिण और उत्तर) में कई सामान्य विशेषताएं रेखांकित की जा सकती हैं। मसलन, दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलों में ममतावादी धर्म की तो वकालत की गयी, पर जाति व्यवस्था को कभी नकारा नहीं गया, ब्राह्मण ग्रंथों और ब्राह्मण विशेषाधिकारों को कभी चुनौती नहीं दी गंयी।

परिणामस्वरूप, दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलनों के समान उत्तर भारत के अधिकांश वैष्णव आंदोलन अंततः ब्राह्मण धर्म में विल्येन हो गये, पर इस प्रक्रिया में ब्राह्मण वर्म में भी कई परिवर्तन आये। पर इसक आगे दोनों आंदोलनों में क्रोई समानता नहीं है। भक्ति आदोल्नन कभी भी एक ऑआंटोलन नहीं रहा, इन आंदोलनों को एक दूसरे स॑ जोड़ने वान्श सूत्र भविल और धर्घ्मक समतः का सिद्धांत था। मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन अपेक्षाकृत पुरने दक्षिण भारतीय आंदोलन से विशिष्ट ही नहीं था, वल्कि इन आंदोलनों की अपनी- अपनी निजी विशेषताएं थीं। इन सभी आंदोलनों की अपनी क्षेत्रीय पहचान थी और इनका अपना सामाजिक, ऐनिशद्यमिक और सांस्कृतिक आधार था। अतएव वकप्रिय एकेश्वरवाद पर आधारित निरीश्वरवादी आंदोलन निश्चित रूप से विभिन्‍न वैष्णव मत्नि आंदोलनों से भिन्‍न था। कबीर की भक्ति की अवधारणा और चैतन्य या मीराबाई जैसे मध्यकालीन वैष्णव संतों की भक्ति की अवधारणा में आधारभूत अन्तर था। वैष्णव आंदोलन के अंतर्गत भी महागष्ट्र प्ररेश की भक्ति बंगाल के वैष्णव आंदोलन से भिन्‍न थी, इसी प्रकार उत्तर भारत के रामानन्द, वल्लभ, सूरदास और तुल्सीदास के भक्ति आंदोठन का अपना अनग स्वरूप था। कुछ समय बाद एक-एक संतों और मतों को लेकर अलग-अलग सब्प्रदाय खड़े हों गये, इन सम्प्रदायों में आपसी संघर्ष हुआ करता था और कभी-कभी यह संघर्ष हिंसक भी हो जाया करता था। 14वीं और 17वीं शताब्दी के बीच उनपे सभी भक्ति आंदोलनों में कबीर, नानक, खूरदास और जन्य “छोटी जातियों के संतों के नेतृत्व में हुए ल्लेकप्रिय एकेश्वरवादी आंदोलन मूलतः अन्य से अलग और विशिष्ट थे।

 

लोकप्रिय एकेश्वरवादी और वैष्णव भक्ति आन्दोलन

उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना और इस्त्राम के आगमन के बाद ये दोनों आंदोलन एक साथ उभरे। अतएव, यह कहा जाता है कि दोनों आंदोलनों के उद्भव में कुछ समान कारण कार्यरत थे, हिंदू घर्म पर इस्त्मम का प्रभाव इनमें से एक है। पर यथार्थ यह है कि दोनों आंदोलनों के उदव के कारण और स्रोत ही अठग नहीं हैं, बल्कि उन पर जिन कारकों का प्रभाव पड़ा वे भी बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत हैं। आगे आने वाले विचार-विमर्श से यह स्पष्ट हो आएगा कि एक आंदोलन के मूल में कार्यरत शक्तियों के आधार पर दूसरे आंदोलन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि ल्मेकप्रिय एकेश्वरवादी आंदोलनों का उदय और उत्कर्ष सब्तनत कार में हुआ, जबकि वैष्णव आंदोलनों की शुरुआत तो सत्सनत कार में हुई, पर मृगल कोल में जाकर वे अपने उत्कर्ष पर पहुंचे।

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