अपने सैद्धांतिक निबंध 'नाटय-काव्य' में ड्राइडन ने अपने-आपको एक ऐसे व्यक्ति निएण्डर के रूप में प्रस्तुत किया है जो नए मूल्यों का वाहक है। केवल इस निबंध में ही वे एक आधुनिकतावादी के रूप में सामने नहीं आते, वरन् अपने संपूर्ण आलोच्नात्मक कृतित्व में वे कमोयेश इस भूमिका का निर्वाह कैरते दिखाई देते हैं। ड्राइडन की चेतना में 'पिछला युग' पुनर्जागरण या शेक्सपियर का युग बार-बार आता है। उनके अनुसार उस युग की उपलब्धियाँ ऐसी हैं जिसकी ऊँचाई तक स्वयं वे या उनके युग का कोई लेखक पहुँच नहीं सकता। किंतु कई बार उन्होंने यह संकेत भी किया है कि इस युग में सरकार की कमी थी और उसकी आत्मा की संपूर्ण ऊर्जा के बावजुद वर्तमान युग की परिष्कृत कला से उसकी तुलना नहीं की जा सकती।' वस्तुतः यह ढंद्ध केवल ड्राइडन के युग की ही विशेषता नहीं है, यरन् यह हर युग में पैदा होता है। हर प्रासंगिक लेखक यह मानता है कि वह कुछ नया कर रहा है, परंपरा के विकास के साथ-साथ उसमें कुछ नया जोड़ रहा है। ड्राइडन में यह आत्मचेतना बराबर क्रियाशील दिखाई देती है।
नवीनता के
उन्मेष के लिए यह जरूरी था कि आमिजात्यवादी नियमों की जकड़इंदी में दरार डाली जाए।
उन पर चोट किए बिना नई भूमिका का निर्वाह संभव न था। किंतु पुनःस्थापन युग में उन नियमों
के प्रति जो श्रद्धाभाव था उसके चलते उस जकड़न को तोड़ा नहीं जा सकता था, बल्कि सीधे- सीधे उस
पर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था। अरस्तु और होरेस के नियमों के खिलाफ कुछ कहना लगभग
ईशनिंदा - जैसा था। साथ ही इस विरोध के बिना, आधुनिकता: में
रूपांतरण का जो नया दायित्व इतिहास ने उन्हें सौंपा था उसका निर्वाह नहीं किया जा
सकता था। अस्स्तृ-होरेस के प्रभाव से मुक्त होने के बाद ही शेक्सपियर तथा अन्य
अंग्रेजी साहित्यकारों का मूल्यांकन संभव हो सकता था। शास्त्र और नवीनता के इस
दवंद्व में उन्होंने शास्त्र का आधार रखते हुए नवीन मूल्यों के प्रति अपनी सहानुभूति
व्यक्त की और इस प्रकार इतिहास के एक कठिन दौर में महान आलोचक की भूमिका का सफलतापूर्वक
निर्वाह किया।
पुनःस्थापन
युग या उसके काफी बाद तंक इंग्लैंड में किसी भी तरह के आलोचक के रूप में स्थान बना
पाना सामान्य प्रवाह के विरुद्ध जाना था। उस समय एक विश्लेषणात्मक आलोचक के रूप
में उभमरना युग की दो अत्यंत सशक्त बौद्धिक प्रवृत्तियों के विरोध में पड़ता था।
इनमें पहली थी नव्यशास्त्रवाद की प्रवृत्ति। समसामयिक फ्रांस में रघनात्मक स्तर पर
नव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को वैधता प्रदान की जा रही थी। इसका असर इंग्लैंड में भी
पड़ रहा था - हालाँकि यहाँ शेक्सपियर और एलिजाबेथ युग के अन्य नाटककारों ने इन
सिद्धांतों की अवहेलना कर दी थी। प्राचीन यूनान और समसामयिक फ्रांस में
आमिजात्थवादी नियमों को आधार मानकर श्रेष्ठ नाटकों की रचना की गई थी। इसके विपशीत
इंगलैंड में वे नाटक (जैसे शेक्सपियर के) श्रेष्ठ थे जिनमें इन नियमों की घोर
अवहेलना थी। यहाँ आमिजात्यवादी नियमों को आधार मानकर जो नाटक रचे गए थे वे घटिया
स्तर के थे। ड्राइडन इस मायने में सौभाग्यशाली रहे कि उन्होंने आभिजात्यवादी
यूनानी-रोमी प्रतिमानों को फ्रांस के प्रसिद्ध नाटककार कार्नेई (1606-1684) के
माध्यम से आत्मसात किया जिन्हें इनकी व्यावहारिक
कठिनाइयों का
बोध था और उन्होंने इनका उपयोग रचनात्मक स्तर पर किया था। अत: ड्राइडन ने शास्त्रवाद
का जो रूप आत्मसात किया वह काफी हलका और बुद्धिसंगत था। जब तक फ्रांसीसी नव्यशास्त्रवाद
का पूरा प्रभाव इंगलैंड में आया, द्राइडन मैं उसका प्रतिरोध करने का साहस आ गया था और
वे अपने रास्ते पर जा सकते थे। वस्तुतः नव्यशास्त्रवाद और विश्लेषणात्मक आलोचना
दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते थे। ऐसे रीतिवाद और विश्लेषणात्मक आलोचना में किसी तरह
का तालमेल संभव न था।
दूसरी
प्रवृत्ति जो ड्राइडन के आलोचक रूप के लिए बाधक हो सकती थी वह थी प्रायोगिक
विज्ञान की प्रवृत्ति जिसका विकास बेकन, देकार्त और हॉब्स के प्रभाव के
तहत हुआ था। वे स्वयं रॉयल सोसाइटी के सदस्यों में से थे। उनके गद्य में वैज्ञानिक
उपमाएँ भरी पड़ी हैं और परोक्ष रूप से हॉब्स की नानाविध प्रतिध्वनियाँ हैं। वे
हॉब्स के बहुत बड़े प्रशंसक भी थे। इस दौर की कविता में बिंब विधान की जो दरिद्रता
दिखाई देती है और तत्ववादी कविता (मैटाफिज़िकल पोइट्री) का जो अचानक अवसान हुआ उसका
बहुत-कुछ श्रेय इस समय के वैज्ञानिकों को है। इन वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर
दिया कि सटीकता का गुण लाने के लिए स्वयं माषा को अनुशासित होना चाहिए। यह नव्य
दर्शन भी वैसा ही इतिहास-विरोधी था जैसा नव्यशास्त्रवाद। आर॑भ में अतीत के इस
तिरस्कार का दबाव ड्राइडन पर भी था किंतु इन नवीन विचारों की कठोरता उनके स्वभाव
का आनंददायक मनोरंजन रहा है। इतिहासकार हमें बुद्धिमान बनाने में मदद देत हैं।
ऐतिहासिक चेतना बड़ी चीज है और इस चेतना के बिना काव्य- रचना निर्र्थक है। विज्ञान
और नव्यशास्त्रवाद उन्हें महत्वपूर्ण बाते कहने से रोक नहीं सके, किंतु इनके प्रभाववश उन्हें उन बातों को कहने में देर लगी और वे उन्हें
उतने व्यवस्थित रूप में नहीं कह सके।
'ड्राइडन ने
आभिजात्यवादी या यूनानी-रोमी काव्य-सिद्धांतों का विरोध करने में युक्ति से काम
लिया। उन पर प्रत्यक्ष प्रहार खतरनाक सिद्ध हो सकता था। अत: उहोने प्रत्यक्ष रूप
से समसामयिक फ्रांसीसी काव्य-प्रतिमानों को विरोध का लक्ष्य बनाया और यूनानी-रोमी
प्रतिमानों का विरोध करने में परोक्ष पद्धति अपनाई। यों मी यूनान और रोम का
साहित्य मृत भाषाओं का साहित्य था। वह सुदूर अतीत की वस्तु था, अत: उसके प्रति आदर-भाव बने रहने में कोई नुकसान नहीं था। उसके प्रति
स्पर्धा का भाव नहीं हो सकता था। इसके विपरीत फ्रांसीसी साहित्य समसामयिक था।
सांस्कृतिक क्षेत्र मे पूरे यूरोप में इसका वर्चस्व था। इंग्लैंड के संदर्श में यह
वर्चस्व और भी महत्वपूर्ण था क्योंकि यहाँ के सांस्कृतिक क्षेत्रों में इसे बड़े
आग्रह के साथ ग्रहण किया जा रहा था। इससे इंग्लैंड की सांस्कृतिक अस्मिता के लिए
खतरा भी पैदा हो गया था। इसलिए फ्रांस को विरोध का लक्ष्य बनाने में दुहरा लाभ था
: अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा और आमिजात्यवादी कला-प्रतिमानों पर प्रहार।
ड्राइडन ने
अरस्तू-होरेस को आधार २: में ग्रहण करके ही उनका विरोध किया। उन्होंने शास्त्रीय नियमों
के अनुकरण के बजाय 'प्रकृति के अनुकरण' पर बल दिया।
यह बल अरस्तू की मान्यता के अनुरूप ही था। फिर 'प्रकृति के
अनुकरण ' के इस सूत्र में उन्होंने ऐतिहासिक आयाम का संयोग किया।
यह प्रकृति शाश्वत या चिरंतन नहीं है वरन् सतत परिवर्तनशील है और ऐतिहासिक विकास
क्रम में इसमें संश्लिष्टता और विविधता की मात्रा बढती गई है। इस प्रकार
संश्लिष्टता और विविधता को उन्होंने विकासशील मानव-प्रकृति के निकष के रूप में
ग्रहण किया। जिस साहित्य में जितनी ज्यादा विविधता होगी वह मानव-प्रकृति के उतना.
ही अनुरूप होगा और उसी अनुपात में उसमें आनंद प्रदान करने की क्षमता भी अधिक होगी!
क्या कथानक, क्या पात्र, सभी क्षेत्रों
में विकास की दिशा सरलता से विविधता की ओर है।
कहने की
आवश्यकता नहीं कि यूनानी और फ्रांसीसी नाटकों की तुलना में अंग्रेजी नाटकों में यह
विविधता कहीं ज्यादा थी। उनमें कथानक के साथ-साथ उपकथानक भी थे और फिर कथानक का अनेक
अंकों और दृश्यों मेंबविभाजन किया गया था। उनमें पात्रों की संख्या भी अधिक थी।
तात्पर्य यह कि उनमें कथानक के स्तर पर भी विविधता थी और पात्रों के स्तर पर भी।
ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से चूँकि यह विविधता अधिक विकसित चरण की सूचक है, अतः जिन नाटकों में
विविधता ज्यादा होगी वे श्रेष्ठ माने जाएँगे - शर्त यही है कि नाटककार उस विविधता
का निर्वाह कर सके, उसमें संरचनात्मक अच्चिति ला सके।
विविधता के अभाव से एकरसता आती है, इसीलिए शेक्सपियर के नाटकों
की तुलना में यूनानी तथा फ्रांसीसी नाटक नीरस और निर्जीव दिखाई देते हैं। प्राचीन
नाटको में कमी क्या है, यह प्रश्न ड्राइडन पूछते हैं और फिर
उसका उत्तर भी देते हैं: 'उनके कथानक संकीर्ण हैं और पात्रों
की संख्या बहुत सीमित है। जब उनमें विविधता की इतनी कमी है तो क्या उनकी श्रेष्ठता
इतनी उच्च कोटि की हो सकती है? या जो कुछ उन्होंने किया उसे
करना क्या काफी आसान नहीं था?' इस प्रकार फ्रांसीसी नाटकों
की तुलना मे अंग्रेजी नाट्न साहित्य तुतला उपक्रम नहीं है। विविधता, संश्लिष्टता और गहराई अंग्रेजी नाटध साहित्य में ज्यादा है। नियमपालन में
वह भेद श्रोताओं के रुचिमेद की वजह से है। यदि अंग्रेजी दर्शको की अमिरुचि
फ्रांसीसी दर्शकों की अभिरुचि-जैसी होती तो वे निवमपालन मैं भी उनसे कहीं आगे होते
: यदि हमारे दर्शक वर्ग की अभिरुचि उनकी जैसी होती तो हमारे कवि जितनी आसानी से उन
नियमों का पालन कर सकते थे उतनी आसानी से फ्रांसीसी लेखक हमारे विचारों की मव्यता
अथवा हमारे रचनाविधान की दुस्साध्य विविधता के स्तर तक नहीं उठ सकते थे।' (वही, खंड 2. पृ 161) अंग्रेजी नाटक इसलिए श्रेष्ठ
हैं कि वे ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से आगे के चीज हैं - उनमे विविधता, संश्लिष्टता और गहराई ज्यादा है। इस विविधता के अमाव में फ्रांसीसी काव्य
के : 'सौंदर्गगत गुण पाषणमूर्ति के हैं, मानव के नहीं क्योंकि वे काव्य की आत्मा से स्पंदित नहीं हैं जिसका संबंध मनोदशाओं
और मनोवेगों के चित्रण से है।' इस तर्क-सरण्टि पर चलकर
ड्राइडन ने यूनानी-रोमी तथा फ्रांसीसी काव्य-प्रतिमानों का विरोध किया और
सांस्कृतिक क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को रेखांकित किया। ऐतिहासिक दृष्टि
से यह बड़ा ही समयोचित कर्ष्य था।
इसमें संदेह
नहीं कि ड्राइडन ने फ्रांसीसी नव्यशास्त्रवाद को अपने प्रत्यक्ष विरोध का लक्ष्य
बनाया, फिर भी विरोध का वास्तविक लक्ष्य यूनानी-रोमी प्रतिमान ही थे। ऐतिहासिक
चेतना का आधार लेकर उन्होंने इस विरोध को अधिक तर्कसंगत रूप दिया। किसी रचना को
आकार देने में पाठकीय अभिरुचि की निश्चित भूमिका होती है और यह अभिरुचि युग और
राष्ट्रीय चेतना से निर्धारित होती है : 'शेक्सपियर और
फ्लेचर ने अपने युग और राष्ट्रीय चेतना को संबोधित करके लिखा था। हालाँकि
मानक-प्रकृति सर्वत्र एक - जैसी है और साथ ही मानव-विदेक भी, फिर भी जलवायु, युग और जिन लोगों को संबोधित करके
कवि लिखता है उनके रूप-रंग इतने भिन्न हो सकते हैं कि जो चीज यूनानियों के लिए
आन॑दप्रद थी वह जरूरी नहीं कि अंग्रेजी श्रोताओं को भी परितुष्ट करें।' इस रुचिभेद का संबंध उन्होंने नाट्य रुढ़ियों से जोड़ा। जो नाट् वर्जनाएँ
यूनानी और फ्रांस के संदर्भ में मान्य हैं. जरूरी नहीं वे अंग्रेजी दर्शकों के
संदर्भ में भी मान्य हों। इसीलिए 'मत्खबुद्ध या इसी तरह के
भयावह क्रियाकलाप ' फ्रांसीसी दर्शकों के लिए अप्रीतिकर,
अतः रंगमंच पर अनभिनेय हो सकते हैं, अंग्रेज
दर्शकों के लिए नहीं। राइमर की पुस्तक का जवाब देने के लिए ड्राइडन ने जो टिप्पणियाँ"
लिखी उनमें अरस्तु के विरोध का स्वर अधिक मुखर है :'अरस्तु
ने ऐसा कहा है, इतना ही काफी नहीं है क्योंकि अरस्तु ने अपने
त्रासदी विधवक आदर्श सोफोक्लेस और यूरिपिदेस से ग्रहण किए थे और वदि उन्होंने
हमारे नाट्य आदशी को देखा होता तो अपनी राय बदल देते।' महाकाव्य
और त्रासदी में अरस्तु ने त्रासदी को अधिक महत्वपूर्ण माना था। ड्राइडन ने सापेक्षिक
दृष्टि से महाकाव्य को अधिक महत्व दिया। अपने तर्क को व्यंग्य की धार से और पैना
बनाते हुए ड्राइडन ने लिखा : 'अरस्तू ने त्रासदी को श्रेष्ठ
मानने का एक कारण यह दिया है कि इसमें विस्तार कम होता है : पूरा कार्य-व्यापार
चौबीस घंटे की अवधि में सिमटा रहता है। वह यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि आडू की
तुलना में कुकुरमुत्ता बेहतर होता है क्योंकि यह रातोंरात बढ़ जाता है।'
काव्य
और इतिहास में गहरा संबंध है, ड्राइडन का यह बोध उत्तरोत्तर बढ़ता गया किंतु वे इस
सबंध की व्यवस्थित रूप से जाँच-पड़ताल नहीं कर सके। यत्र-तत्र उसके संकेत मिल जाते
हैं। उदाहरण के लिए 'फेबल्स' (1700) के
आमुख में उन्होंने लिखा है : 'मिल्टन स्पेंसर के काव्य-पुत्र
थे अन्य परिवारों के साथ-साथ हमारी वंश-परंपराएँ और कबीले भी हैं। स्पेंसर ने
एकाधिक बार यह संकेत किया है कि उसके शरीर में चॉसर की आत्मा संचस्ति हो गई है और
उसने मुझे अपनी मृत्यु के दो सौ वर्ष बाद जन्म दिया है। मिल्टन ने मेरे सामने यह
स्वीकार किया है कि उसका मूल रूप स्पेंसर था।' इसी आमुख में
जो चॉसर का संवेदनशील अध्ययन आया है वह भी इसी प्रकार की ऐतिहासिक दृष्टि से
सम्पन्न है : 'वह हमारी कविता के बाल्यकाल में रहा और कोई भी
चीज़ अपने आरंभिक चरण में परिपूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। मनुष्य के रूप में
विकसित होने से पहले हमें बाल्यावस्था से होकर गुज़रना होगा।' ऐसी पंक्तियों में साहित्येतिहास की की पूरी परंपरा जन्म लेती हुई प्रतीत
होती है। किंतु आलोचना के क्षेत्र में ऐतिहासिक चेतना को जड़ जमाने में अभी एक सदी
का समय और लगता है।
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