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ध्वनि सम्प्रदाय की स्थापनाओं पर विचार कीजिए।

घ्वनि सिद्धांत के प्रवर्तक आनंदवर्धन है। ये नवम शठी ई. में विद्यमान थे। इनके ग्रंथ का नाम 'घ्वन्यालोक ' है, अर्थात्‌ इसमें ध्वनि पर आलोक (प्रकाश) डाला गया है। आन॑दवर्धन के सम्मुख पिछले तीन सिद्धांत थे - रस, अलंकार और रीति। उन्होंने अपने ग्रंथ में प्रमुखतया दो कार्य किए :

1. ध्यनि का स्वरूप तथा इसके भेद आदि प्रस्तुत किये। '

2. रस आदि उक्त सिद्धांतों को, विशेषतः अलंकार और रीति को नूतन रूप प्रदान करते हुए इन्हें ध्वनि-सिद्धांत के अंतर्गत समाविष्ट किया।

इस प्रकार उन्होंने इन चारों सिद्धांतों मे से ध्यनि को प्रमुख स्थान दिया, इसे ही काव्य क्री आत्मा मानते हुए काव्यशास्त्र को नई दिशा की ओर मोड़ दिया। इनके बाद कुछ आचार्यों द्वारा ध्वनि-सिद्धांत को अस्वीकृत तो किया गया, पर अधिकतर आधार्यों ने इसे ही स्वीकार किया, और ध्वनि-विरोधी आचारयाँ की आवाज़ दब गयी। इस आधार पर हम भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों को कालक्रमानुसार इस प्रकार विभक्त कर सकते हैं :

1. ध्वनि-पूर्ववर्ती सिद्धांत - रस, अलंकार और रीति, '

2. ध्यनि-सिद्धांत, .

3 ध्वनि-परवर्ती सिद्धांत-वक्रोक्ति आदि ध्वनि-विरोधी सिद्धांत तथा औचित्य-सिर्द्धात।

आनंदवर्धन को ध्वनि-सिद्धांत का प्रवर्तक माना जाता है, पर उन्होंने अपने ग्रंथ 'ध्वन्यालोक ' मे अनेक बार संकेत किया है कि उनसे पुर्ववर्ती एवं उनके समकालीन आचायी ने ध्वनि और इसके भेदों का निरूपण किया है।' पंडित गोष्ठियों में तो इस सिद्धांत पर चर्चा अवश्य होती होगी। यद्यपि इस पर 'घ्वन्यालोक ' को छोड़ कोई अन्य ग्रेथ उपलब्ध नहीं है। इस तथ्य का संकेत 'ध्वन्चालोक ' की 'लोचन' नामक टीका के कर्ता अभिनवगुष्त ने किया है।'

आनंदवर्धन से पूर्व काव्यशास्त्र के अंतर्गत रस, अलंकार और रीति नामक तीन सिद्धांत प्रतिपादित हो चुके थे। इनमें से अलंकार और रीति-तत्व काव्य के प्रायः बाह्य रूप तक सीमित थे। रस-तत्य नि:संदेह काव्य के आंतरिक रूप से संबद्ध थ', और नाटक तथा प्रबंध-काव्य (महाकाव्य, खण्डकाव्य) पर पूर्णतः घटित हो जाता था, अनेक मुक्तक रचनाओं पर भी इसकी प्रक्रिया घटित हो सकती थी, पर फिर भी, ऐसी अनेक भुक्तक रचनाओं को, जो विभावादि-सामग्री से प्रायः शून्य होते हुए भी, चमत्कारपूर्ण थीं, रसवाद के आवेष्टन में ला सकना कठिन नहीं, असंभव था क्योंकि रस अपनी विशिष्ट शास्त्र-प्रक्रिया में परिबद्ध है, उसकी सीमा विभाव आदि सामग्री तक सीमित है। आनंदवर्धन ने उक्त तीनों सिद्धांतों - रस, अलंकार और रीति सिद्धांतों - की इन त्रुटियों को पहचाना | और शब्द की तीसरी शक्ति व्यंजना से सम्बद्ध ध्वनि (व्यंव्यार्थ) का प्रवर्तन किया, जो आंतरिक तत्व भी है और व्यापक तत्व भी।

कवव्यशास्त्र में 'ध्वनि' शब्द के विभिन्‍न प्रयोग

'ध्वनि' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र में पॉच भिन्न-भिन्न अथ्थ में मिलता है - (1) व्यंजना शब्द शक्ति, (2) व्यंजक शब्द (3) व्वंजक अर्थ, (4) व्यंग्यार्थ, और (5) व्यंग्यार्थ-प्रधान काव्य। इस प्रकरंण का प्रतिपाद्य विषय व्यंग्यार्थ ' और 'व्यंग्यार्थ-प्रधान काव्य ' है। इन प्रोंच्रों शद्दों के अर्थ आप आगे यथास्थान जान जाएँगे। '

ध्वनि-सिद्धांत का स्रोत

1. व्याकरण-शास्त्र 'ध्वनि' का खोत मान लिया गया है, यद्यपि व्याकरण-पग्रंथों में ध्वनि अथवा व्यंजना शब्दशक्ति से संबंधित ऐसे संकेत स्पष्ट अथवा प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त नहीं होते, जिन्हें काव्यशास्त्र में प्रतिपादित ध्वनि का मूल संकेत माना जा सके। काव्यशास्त्र विषयक ध्वनि पर प्राय: व्याकरण 'स्फोट' का प्रभाव स्वीकार किया गया है, पर वस्तुतः यह प्रमाव प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष है।

स्फोटवादियों ने ध्वनि (अर्थात्‌ उच्चार्यमाण शब्द अथवा नाद) को व्यंजक माना है, और स्फोट को व्यंग्य माना है। किंतु इधर काव्यशास्त्रियों ने ध्वनि, व्यंजक और व्यंग्य ये शब्द लिये तो व्याकरणशास्त्र से हैं, पर इनका प्रयोग अपनी दृष्टि से विभिन्‍न प्रकार से किया है। इन तीनों शब्दों से क्‍या अमिप्रेत है |

2. आनंदर्व्धन से पूर्व अलंकारवादी आचार्यों के ग्रंथों में यद्यपि ध्वनि शब्द का स्पष्ट प्रयोग नहीं मिलता, तथापि भामह, दण्डी और उद्मट तथा रूद्रट के ग्रंथों में प्रस्तुत कतिपय अलंकारों में व्यंजना के संकेत मिल जाते हैं जैसे कि प्रतिवस्तृपमा, अपहनुति, समासोक्ति, अर्थान्तरन्यास, पर्यायोक्‍त आदि अलंकार। इनमें से पर्यायोक्‍्त अलंकार का लक्षण कीजिए -

पर्यायोक्‍त यदन्येन प्रकारेणापभिधीयते।

वाच्यवाचकतृत्तिमभ्यां शुन्येनावगमात्मना।._-- का.अ.आ.स॑. (उद्भट)

पर्यायोकत अलंकार उसे कहते हैं जहाँ कोई बात अन्य प्रकार से कही जाए - इस प्रकार से कही बात में शब्द वाचक नहीं कहलाता व्यंजज कहलाता है, और अर्थ वाच्य नहीं कहलाता अवगमित (व्यंग्य) कहलाता है।

संभवतः, ऐसे संकेत धीरे-धीरे विकसित होते-होते आनंदकर्धन के समय तक ध्वनि-सिद्धांत के रूप में प्रस्फृटित हो गये होंगे। इतना ही नहीं, यह सिद्धांत आनंदवर्धन के समय में इतना प्रचलित हो गया था कि इसके विरोधी भी उत्पन्न हो गये थे।

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