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प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन कीजिए |

 प्रगतिशील कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों पर विचार करते हुए अभी तक हमने जो बातचीत की है, उसको ध्यान में रखना होगा। जैसा कि डॉ. लल्लन राय का कहना है, “.....प्रगति संबंधी मान्यताएँ किसी स्थिर अवधारणा पर आधारित नहीं रही हैं। समयानुकूल उनमें परिवर्तन हुआ है। स्वाधीनतापूर्व उसका जो रुख--रुझान था, स्वाधीनता के बाद उसमें स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देगा। इस अंतर के बावजूद प्रगतिशील कविता के सामने हमेशा एक केंद्रीय मुद्दा रहा है, वह है देश की बहुसंख्यक शोषित-उत्पीड़ित जनता की वास्तविक मुक्ति। अतः हिन्दी प्रगतिशील कविता की अन्यान्य प्रवृत्तियों में उसका केंद्रीय मुद्दा अनुस्यूत रहा है। चाहे राष्ट्रीय स्वाधीनता का प्रश्न हो, चाहे शोषित-उत्पीड़ित जन-जीवन के प्रति प्रेम हो या शोषक-उत्पीड़क वर्ग के प्रति आक्रोश, चाहे रूढ़िवाद और जातीय भेदभाव का विरोध हो या सांप्रदायिक सदभाव सर्वत्र हो, यह केंद्रीय मुद्दा उसके सामने रहा है। केवल कविता की अंतर्वस्तु ही नहीं, वरन्‌ उसके शिल्प और कलात्मक सौंदर्य के प्रतिमानों के ग्रहण और परित्याग में भी यही केंद्रीय मुद्दा उसके सामने दिखाई देगा।”

1) राष्ट्रीयता की भावना की अभिव्यक्ति

प्रगतिवाद में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति एक प्रमुख विशेषता रही है। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजी राजसत्ता के अधीन था और उससे मुक्ति का संघर्ष दिन-ब-दिन तेज होता जा रहा था। इस संघर्ष में जनता के व्यापक हिस्से शामिल होते जा रहे थे। उत्तर छायावादी कविता में तो देशभक्ति एक अहम्‌ मसला हो गया था। उस समय के कई लेखक स्वयं भी राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे। कविता करना और आजादी के संघर्ष में भाग लेना उनके लिए अलग-अलग बातें नहीं थी। छायावाद के दौर से यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव था। सुभद्रा कुमारी चौहान, नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर ही नहीं बाद में प्रशतिवाद से जुड़े राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, शील, यशपाल, शिद वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, हंसराज रहबर आदि कई साहित्यकार राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए।

प्रगतिशील कविता में व्यक्त राष्ट्रीय भावना छायावादी राष्ट्रीय भावना से कई मायनों में अलग थी। इन कवियों ने जहाँ एक ओर देशभक्ति की भावना को क्रांतिकारी धार दी, तो दूसरी ओर, उन्होंने उसे सामाजिक मुक्ति के सवाल से भी जोड़ा। उन्होंने इतना ही कहना पर्याप्त नहीं समझा कि देश को विदेशी दासता से मुक्त होना चाहिए बल्कि यह भी कि आजाद भारत किस तरह का होगा और राजसत्ता पर किसका शासन होगा। क्या वास्तव में जनता का राज होगा? उन्होंने गांधी युग के हिंसा और अहिंसा के सवाल को भी अप्रासांगिक ठहराकर अस्वीकार कर दिया। केदारनाथ अग्रवाल ने लिखा था, “हिंसा और अहिंसा क्‍या है/जीवन से बढ़कर हिंसा क्या है?” प्रगतिशील कविता ने साहित्य और कला को राजनीति से निरपेक्ष रखने की धारणा को भी अस्वीकार किया । उन्होंने 1947 में प्राप्त हुई आजादी के चरित्र को लेकर सवाल उठाए। कवियों ने यह सवाल उठाया कि क्या आजादी के बाद कुछ भी बदला है। नागार्जुन ने लिखा था:

पुलिस और पलटन के हाथी कितना चारा खाते हैं,

वही रंग है, वही ढंग है, फरक नहीं कुछ पाते हैं।

देश-भक्ति की सनद मिल रही आये दिन शैतानों को,

डांट-डप्ट उपदेश मिल रहे. दुखी मजूर-किसानों को।

आजादी के बाद की निराशाजनक तस्वीर ने प्रगतिशील रचनाकारों को उस समय की राष्ट्रीय सरकार की आलोचना करने को प्रेरित किया | लेकिन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा इससे भिन्‍न ढंग से सोच रहा था। वे किसान-मजदूरों के हितों से ज्यादा अपने हितों को तरजीह दे रहे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ऐसे बदलाव होंगे जो उनके हित में जाएँगे। यही कारण है कि जल्दी ही कवियों का एक हिस्सा देशभक्ति और जनता के प्रति लगाव का भाव भूल गया और अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति पर ज़्यादा बल देने लगा।

2) वामपंथी विचारधारा और राजनीति का प्रभाव

प्रगतिशील कविता पर मार्क्सवाद के प्रभाव का कारण सन्‌ '30 के बाद की परिस्थितियोँ हैं। 1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ के अस्तित्व में आने ने दुनिया भर के कलाकारों और बुद्धिजीवियों को प्रभावित और प्रेरित किया था। सोवियत संघ ने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष को अपना समथेन दिया और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान फासीवाद पर सोवियत संघ की लाल सेना की निर्णायक जीत ने दुनिया भर की वामपंथी और प्रगतिशील ताकतों के हौसले बुलंद किये। इसका असर भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सुमित्रनंदन पंत ने मार्क्स और मार्क्सवाद के प्रति कविताओं के माध्यम से अपने श्रद्धाभाव का इजहार किया। जब हिटलर की सेना सोवियत संघ में मास्को तक पहुँच गई और बाद में उसे बर्लिन तक खदेड़ा गया तो इस ऐतिहासिक संघर्ष को लेकर हिंदी कवियों ने ढेरों कविताएँ लिखीं। मास्को-मुक्ति पर मुक्तिबोध ने 'लाल सलाम' कविता लिखी, शमशेर ने 'वाम वाम वाम दिशा" कविता द्वारा वामपंथ की अपरिहार्यता को रेखांकित किया :

भारत का

भूत-वर्तमान औ* भविष्य का वितान लिये

काल-मान-विज्ञ मार्क्स-मान में तुला हुआ

बाम वाम वाम दिशा;

समय साम्यवादी |

सोवियत रूस में जो नया देश और नया मानव निर्मित हो रहा था, उसी ने यह विश्वास उत्पन्न किया था कि आज का समय साम्यवादी है। लेकिन बाद में जब सोवियत सेना ने चेकोसलोवाकिया और हंगरी मैं वहाँ की समाजवादी सरकारों को बचाने के लिए प्रवेश किया, जब स्टालिन के शासन के कई नकारात्मक पहलू सामने आए और जब अमरीका के नेतृत्व में शीतयुद्ध का प्रमाव तीसरी दुनिया के देशों के बुद्धिजीवियों में बढ़ने लगा तो सोवियत संघ ही नहीं मार्क्सवाद के प्रति लेखकों और बुद्धिजीवियों का आकर्षण कम होने लगा। कई ऐसे कवि जो आरंभ में प्रयतिवाद के साथ थे, बाद में उससे अलग ही नहीं उसके विरोधी भी हो गये।

3) शोवित-उत्पीड़ित जनता से जुड़ाव

प्रगतिशील कविता में पहली बार किसान-मजदूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और लगाव की अभिव्यक्ति हुई और शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के सामूहिक प्रयासों की जरूरत को रेखांकित ही नहीं किया बल्कि यह भी बताया कि जन क्रांति इसका एकमात्र रास्ता है। मुक्तिबोध ने इस संदर्म में यह भी प्रश्न उठाया कि मध्यवर्ग को यह तय करना होगा कि वे इस संघर्ष में किस ओर हैं:

बशर्ते तय करो,

किस ओर हो तुम, अब

सुनहले ऊर्ध्ध आसन के

दबाते पक्ष में, अथवा

कहीं उससे लुटी-डूटी

अंधेरी निम्न कक्षा में तुम्हारा मन

कहाँ हो तुम?

                                                             (घकमक की घिनगारियाँ)

प्रगतिशील कविता के दौर में ऐसी बहुत सी कविताएँ लिखी गईं जिनमें जनत! के वेदना की ही अभिव्यक्ति ही नहीं थी बल्कि उनकी संघर्ष क्षमता को भी वाणी दी गई थी। कवियों ने इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया था कि एक रचनाकार के लिए मुक्ति का रास्ता जनता के साथ जुड़ने में ही है। नागार्जुन, केदार, शील आदि ने अपनी कविताओं के माध्यम से जनता की अदम्य मुक्ति आकांक्षा को व्यक्त किया। इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने वाली बात है कि उन्होंने उन ताकतों पर जमकर प्रहार किया जो जनता की बुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। नागार्जुन की कविता के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए डॉ. लललन राय ने जो कहा है, वह बात संपूर्ण प्रगतिशील कविता के बारे में भी कही जा सकती है। वे लिखते हैं, "वर्तमान शोषणमूलक व्यवस्था, राजनीतिक नेतृत्व का छल-छद्म, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, सामंतवाद शासन-तंत्र, अर्थनीति, धर्मनीति, किसी भी प्रकार का अन्याय, अत्याचार, पाखंड आदि जो शोषित-उत्पीड़ित जनता के हितों के विरूद्ध पड़ता है, नागार्जुन ने उस पर करारा प्रहार किया है ।” प्रगतिशील कविता की यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसान और धरती के प्रति अपने अनुराग की बार बार अभिव्यक्ति की है। मेहनतकश जनता के प्रति इसी अनुराग के कारण त्रिलोचन जैसे कवि यह कह सके कि 'जिस समाज का तू सपना है/जिस समाज का तू अपना है,/मैं भी उस समाज का जन हूँ.। इसी भावना ने कवियों को ग्रामीण जीवन के चित्रण की ओर खास तौर पर आकर्षित किया।

4) ग्राम्य जीवन के प्रति लगाव

हिंदी के अधिकांश प्रगतिशील कवियों का संबंध गाँवों से था इसलिए यह स्वाभाविक था कि उनकी कविता में ग्राम्य जीवन के चित्रण पर अधिक बल होता। नरेंद्र शर्मा, केदार, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, त्रिलोधन, शील आदि की कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता का यही कारण था। प्रगतिवाद से पूर्व के काव्य में ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति आमतौर पर रूमानी किस्म की थी, जिसका मूल भाव कुछ इस तरह का होता 'अहा! ग्राम्य जीवन भी क्‍या है?'। यद्यपि पंतजी ने अपनी प्रगतिशील कविता की शुरुआत ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति से ही की थी और निराला की कविताओं में भी ग्राम्य जीवन के प्रभावशाली चित्र मौजूद हैं लेकिन ग्राम्य जीवन में व्याप्त विषमताओं, विडंबनाओं और संघर्षों का जैसा चित्रण प्रगतिशील कविता में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि ग्राम्य जीवन के चित्रण में विविधता का अभाव है। प्रगतिशील कवियों ने ग्राम प्रकृति और ग्राम परिवेश के भी बहुरंगी चित्र अपनी कविताओं में अंकित किए हैं। इस दृष्टि से नागार्जुन. केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोधचन की कविताएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नागार्जुन की कविता में मिथिलांचल, केदार के यहाँ बुंदेलखंड और त्रिलोचन की कविता में अवध जनपद का सौंदर्य जैसे मूर्तिमान हो उठा है। ये कवि प्रकृति का चित्रण करते हुए भी कभी भी वहाँ के लोगों और वहाँ के सामाजिक जीवन को नहीं भूलते। केदार की कविता का यह अंश इसका ज्वलंत प्रमाण है:

धूप चमकती है चौंदी की साड़ी पहने

मैके में आयी बेटी की तरह मगन है

फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है

जैसे दो हमजोली सखियीं गले मिली हैं

भैया की बाहों से छूटी भौजायी-सी

लहंगे की लहराती लचती हवा चली है।”

प्रगतिशील कविता में व्यक्त ग्राम्य जीवन की विशेषताओं को हम डॉ. लल्लन राय के शब्दों में इस तरह से रख सकते हैं: “वस्तुत: प्रगतिशील कवि गाँव के जन-जीवन में शरीक होकर, उनके सुख-दुख में सुखी दुखी होते हुए, उनकी कमियों को सहानुभूतिपूर्वक रेखांकित करते हुए, उनकी अपार क्षमता से उन्हें परिचित कराते हुए, उनके आस-पास छिपे अपार सौंदर्य और वैनव को उद्घाटित करते हुए और उनमें स्वयं रस लेते हुए. उम्हीं में से एक बनकर सामने आते हैं। उनके साथ होकर, उनके साथ रहकर ही, उन्हीं के भाव--कल्प से, उन्हीं की दृष्टि से, उनके खेत-खलिहान, उनके बाग-बगीचों, उनके संध्वा-प्रात., उनके सूरज-चांद और मेघ को इन कवियों ने अपनी सौंदर्यानुभूति का माध्यम बनाया है। इसलिए उनकी एतद्विषयक कविताओं में उनका अपना जीवन भी उच्छल भाव से अभिव्यक्त हुआ है।”

5) शोषक सत्ता का विरोध

प्रगतिशील कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति यह है कि इसमें पुँजीवादी, सामंतवादी और साम्राज्यवादी शोषक सत्ता का विरोध लगातार दिखाई देता है। जब प्रगतिशील कवि मेहनतकश जनता के समर्थन में खड़े होते हैं और उनका शोषण-उत्पीड़न करने वाले वर्गों का विरोध करते हैं तो जाहिर है कि वे पूँजीवाद, सामंतवाद और सात्राज्यवाद का विरोध करेंगे। आजादी के पहले प्रगतिशील कविता की मुख्य धारा पूँजीवादी-साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध थी लेकिन आजादी के बाद उनकी धारा सामंतवादी-पूंजीवादी भारतीय राजसत्ता के खिलाफ हो गई। इसका अर्थ यह नहीं था कि आजादी से पहले प्रगतिवाद ने सामंतवाद का विरोध नहीं किया और न ही इसका मतलब यह है कि आजादी के बाद साम्राज्यवाद का विरोध समाप्त हो गया। फिर भी, प्रगतिशील साहित्य में तत्कालीन राजसत्ता का विरोध एक मुख्य मुद्दा था।

सामंतवाद का विरोध नवजागरण के दौर से ही हिंदी साहित्य का एक ज्वलंत विषय रहा है। हम पाते हैं कि हिंदी कविता छायावाद तक सामंतवाद का विरोध करते हुए लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समानता के आधुनिक जीवन मूल्यों की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन प्रगतिवाद से पूर्व की कविताओं में सामंतवादी जीवन मूल्यों से पूरी तरह मुक्ति भी नहीं मिल पाई थी। पुनरुत्थानवादी प्रभाव की बात इसी परिप्रेक्ष्य में कही जाती रही है। लेकिन प्रगतिशील आंदोलन. ने सामंतवाद और पूँजीवाद के प्रति संघर्ष को मुख्य मुद्दा बनाया जिसकी अभिव्यक्ति निराला जैसे कवियों के यहाँ भी हम देख सकते हैं। निराला की 'बादल राग कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है जो प्रगतिशील आंदोलन से पूर्व ही लिखी जा चुकी थी। निराला के यहाँ प्रगतिशील काव्यांदोलन के दौर में तो इस तरह की कविताएँ मुख्य स्वर बन गई। बाद में, नागार्जुन, केदार, शील आदि की कविताओं में सामंतवादी शोषण के विभिन्‍न रूपों पर तीखा प्रहार किया गया है। प्रगतिशील कवियों ने सामंतवाद के साथ-साथ पूँजीवादी शोषण के प्रति भी अपना गहरा आक्रोश व्यक्त किया है। पूँजीवाद के शोषक-मारक रूप की विकरालता का चित्रण करते हुए कवियों ने इस बात का आह्वान किया था कि इसका नाश ही इससे मुक्ति का मार्ग है।

तेरे हास में भी रोग-कृमि हैं उग्र

तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यप्र

मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक

अपनी उष्णता से धो चले अविवेक

तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ

तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ ।“

6) सामाजिक परिवर्तन पर बल

प्रथतिशील कविता की एक अन्य प्रवृत्ति रही है सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल। इस संदर्भ में नामवर सिंह की यह बात खास तौर पर उल्लेखनीय है। उनका कहना है, “जिस तरह कल्पनाप्रवण अंतर्दृष्टि छायावद की विशेषता है और अंतर्मुखी बौद्धिक दृष्टि प्रयोगवाद की; उसी तरह सामाजिक यथार्थ दृष्टि प्रगतिवाद की विशेषता है।" इसी सामाजिक यथार्थ दृष्टि के कारण ही वे समाज में व्याप्त कई ऐसी विकृतियों का विरोध करने में सक्षम हो सके जिसके कारण समाज का एक बड़ा हिस्सा नारकीय और पराधीन जीवन जीने के लिए अमिशप्त था। नारी की पराधीनता, दलितों का उत्पीड़न तथा शोषण और सांप्रदायिक विद्वेष के खिलाफ प्रगतिशील कवियों ने लगातार आवाज उठाई। वे यह जानते थे कि ये चीजें सिर्फ पूँजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ जहर उगलने से ही समाप्त नहीं होंगी और न ही राजनीतिक परिवर्तनों से ही जातिवाद, सांप्रदायिकता और नारी मुक्ति के प्रश्न एक बारगी हल हो सकते हैं। इसके लिए जनता की चेतना को बदलने की भी जरूरत है। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता में इन विषयों पर अत्यंत मार्मिक कविताएँ लिखी गईं जिनका मकसद यही था कि जनता में जाति, धर्म, लिंग और भाषा की भिन्‍नताओं के बावजूद व्यापक एकता कायम हो सकी | प्रगतिशील कवियों ने ऐसी सामाजिक विषमताओं, रूढ़ियों और बंधनों का भी विरोध किया जिनके कारण लोगों में नरक से निकलने की इच्छा शक्ति भी समाप्त हो जाती है। वे अपने जीवन में आने वाली सारी मुश्किलों को ईश्वर और भाग्य का खेल समझकर चुपचाप झेलते रहते हैं। प्रगतिशील कविता ने रागाजिंक गार्थ के कुछ अक्छुद और स्वस्थ चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, खासतौर पर पति-पत्नी के संबंध, पिता-पुत्र के संबंध और इसी तरह के आत्मीय संबंधों के चित्र उनकी कविता को आत्मीय भावबोध से भर देते हैं।

प्रगतिशील कविता के बारे में आमतौर पर यह धारणा फैली हुई है कि वह राजनीतिक कविता है और जिसका काम प्रचार करना है। लेकिन यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि प्रगतिदाद जीवन के व्यापक और विराट सत्य को अभिव्यक्त करता है। जीवन और जगत्‌ में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रगतिशील कविता के बाहर है। हाँ, हर कविता में उनकी मुख्य प्रतिज्ञा जनता के प्रति गहरी आस्था और उसकी मुक्ति की कामना है।

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