ज़ियाउद्दीन बरनी एक सफल लेखक थे। उनकी रचनाएँ उनकी गहन विद्धत्ता को दर्शाती हैं। उनकी प्राथमिक रचनाएँ हैः तारीख-ए फिरोजशाही और फतवा-ए जहाँदारी (1335 ,/ 1337; संशोधित) और सहीफा-ए नात-ए मुहम्मदी।
बरनी का बाजार मूल्यों संबंधी विवरण अलाउद्दीन के मूल्य नियन्त्रण उपायों पर बहुमूल्य प्रकाश डालता है। बरनी अलाउद्दीन की निर्माण गतिविधियों पर भी रोचक रोशनी डालता है - सीरी की दीवार की किलेबन्दी, जामा मस्जिद, कई शहरों और कस्बों. हौज़ खास, आदि पर | बरनी अलाउद्दीन द्वारा सजा के मामलों में शरिया के प्रति उपेक्षा दिखाने के लिए अपनी स्पष्ट नापसंदगी दिखाता है, हालांकि वह सामान्य रूप से अलाउद्दीन के तहत सल्तनत की प्रगति की प्रशंसा करता है, विशेष रूप से दिल्ली और इसके बाजारों, व्यापार और कारीगरों की | बरनी का अफगानपुरा की त्रासदी का वर्णन महत्वपूर्ण है। जहाँ मुहम्मद तुगलक को सामान्य रूप से अपने पिता की मृत्यु के लिए और उसके खिलाफ साज़िश रचने के लिए जिम्मेदार माना जाता था, वहीं बरनी उसकी बेगुनाही पर जोर देता है और इसे एक आकस्मिक मृत्यु बताता है| उसने मुहम्मद बिन तुगलक के अधीन 17 वर्षों तक नदीम (सलाहकार / दरबारी) के रूप में कार्य किया। वह अपने संरक्षक की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है और उसे सुत्तान-ए सरईद' (पवित्र शासक) और एक शहीद बताता है| बरनी हमें सूचित करता है कि उन्होंने आध्यात्मिक और लौकिक शक्तियों (पैगंबर के खलीफा और सुल्तान की) को अपने में आत्मसात करने का प्रयास किया| वह उसकी सैन्य नेतृत्व में प्रतिभा, शिक्षा और उदारता के लिए प्रशंसा करता है| बरनी उसकी महान् साहित्यक गतिविधियों, तर्क-संगत विज्ञानों (इल्म-ए माकूल) में उसकी अभिरुचि और दार्शनिकों और तर्कवादियों के प्रति उसके अनुराग और उसकी पारम्परिक विज्ञान (मनकूल), विशेष रूप से उबैद शायर (कवि) और साद मन्तकी (तर्कशास्त्री) के प्रभाव में की अवहेलना पर भी जोर देता है। बरनी बताता है कि मुहम्मद तुगलक तर्क का विशेष समर्थक था।
अतः वह पवित्र और धार्मिक मानसिकता वाले रूढ़िवादी
मुसलमानों, उलमा, मशायखों और सैय्यदों की हत्या करने से भी नहीं हिचकिचाता था, फिर भी वह पॉँच वक्त की नमाज़ अदा करने वाला एक धर्मनिष्ठ मुसलमान था। मुहम्मद बिन
तुगलक के व्यक्तित्व को समझने के लिए उसकी नीतियों की विफलता के बारे में बरनी की टिप्पणी भी बहुत
महत्वपूर्ण है| उसका कहना है कि उसकी योजना की विफलताओं का कारण उसके द्वारा
इस्लाम में विश्वास की कमी नहीं था, बल्कि यह इसलिए हुआ क्योंकि लोग उसकी प्रगतिशील नीतियों के
कार्यान्वयन में सहयोग करने को तैयार नहीं थे | वह उसे
“इस्लाम के बौद्धिक अनुयायी के रूप में चित्रित करता है जो अपने द्वारा बनाये गये नये कानूनों और विनियमनों के माध्यम से
अपने लोगों को प्रगति के पथ पर ले जाने के लिए उत्सुक था' (सिद्दिकी
2014: 213)।
सुल्तान का दबीर-ए खास, इख्तिसान द्वारा उसको इस्लामिक कानून के बारे में उसके ज्ञान के लिए
नुमान-ए सानी (उस दौर का अबु हनीफा) कहा।
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