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पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य प्रेरणा संबंधी चर्चा को रेखांकित कीजिए।

पश्चिम में काव्य प्रेरणा ' पर विचार करने की एक दीर्घ परम्परा है। पश्चिमी साहित्य में होमर ने इस परम्परा का सूत्रषात किया और तब से यह परम्परा किसी न किसी रूप में मिलती है। होमर ने अपने दोनों प्रख्यात महाकाव्यों 'इलियड' और 'ओडसी ' के आरंभ में 'म्यूज ' अर्थात्‌ विद्या की देवी सरस्वती की स्तुति की है तथा उससे काव्य-सृजन-शक्ति की यांचना की है। होमर को विश्वास था कि काव्य का मूल झोत किसी ऐसी पारलौकिक शक्ति में है जिसपर कवि का कोई नियंत्रण नहीं है। हिसियाड ने स्पष्ट कहा कि म्यूज ने कृपापूर्वक काव्य-रचना की शक्ति उसे प्रदान की है। प्राचीन यहूदी सतों के वचन तथा बाइबिल के संकेत तथा प्रेरणा का ग्रहण एवं प्रकाशन करने वाला मनुष्य असाधारण होता है। काव्य प्रेरणा की प्रक्रिया पर प्लेटो के विचार न केवल ऐतिहासिक महत्व के हैं, बत्कि उनका तात्विक मुल्य भी कम करके नहीं आँका जा सकता। 'फैड्रस', इऑन' के संवादों में प्लेटो ने काव्य प्रेरणा पर बहुत कुछ कहा है।

सुकरात ने इऑन से कहा - 'जो शक्ति तुम्हें प्राप्त है वह कला नहीं है। किंतु जैसा कि मैने अभी बताया है. वह 'प्रेरणा' है। तुम्हे एक दैवी-शक्ति परिचालित कर रैही है, वह ऐसी शक्ति के समान है जो उस प्रस्तर-खण्ड मे निहित रहती है, जिसे यूरुपिडीज ने चुम्बक' की संज्ञा दी थी। किंतु जो सामान्यतः हेरेक्ली का प्रस्तर कहलाता है। यह प्रस्तर न केवल लोहे की अंगूठियो को स्वय आकृष्ट करता है अपितु उन्हे अन्य लोहे की अंगूठियों को आकृष्ट करने की शक्ति भी प्रदान करता है और कभी-कभी हम कई लोहे के खण्डों, अँगूठियों को आकर्षण के द्वारा एक श्रृंखला में सम्बद्ध पाते हैं। इस भाँति म्यूज (विद्या की देवी) सर्वप्रथम कतिपय व्यक्तियों को प्रेरित करती है और इन अनुप्रेरित व्यक्तियों से अन्य प्रेरणा प्राप्त जनों की श्रृंखला जुड़ी रहती है, जो म्यूज द्वारा प्रेरित जनों से निरन्तर प्रेरणा प्राप्त करते रहते हैं। क्योंकि सभी उत्कृष्ट कवि चाहे वे महाकाव्य प्रणेता हों या मुक्तक प्रणेता हो, अपने सुंदर कला की रचना कला द्वारा नहीं करते. बल्कि उस प्रेरणा द्वारा करते हैं जो उन्हें प्रेरित और अभिभूत करती है। और जैसे कोरिवेष्टियन आमोद-प्रमोद करने वालों के मन में नृत्य करते समय विक्षेप होता है वैसे ही मुक्तक रचने वाले कवियों के मन में विक्षेप होता है। कवि मनुष्यों के बारे में अनेक सुंदर बातें कहते हैं, किंतु जैसा तुमने स्वयं होमर के विषय में बताया है, वे उनके बारे में कला के नियमों द्वारा कथन नहीं करते, वरन वही बातें कहते हैं जिनके लिए म्यूज' उन्हें प्रेरित करती है।' प्लेटो ने कहा कि कवि में 'दिव्य पागलपन' (डिवाइन इनसेनिटी) होता है ईश्वर कवियों की चेतना को अपने वश में किए रहता है। प्लेटो के बाद भी परम्परा उन चिंतकों की कम नहीं रही है जो मानते रहे हैं कि प्रतिभावान व्यक्ति में विक्षेपयुक्त मन:स्थिति होती है। होरेस ने काव्य के लिए प्रेरणा को अनिवार्य माना। इसी परम्परा में मिल्टन ने कहा कि प्रेरणा में सृजनात्मक कल्पना की अग्नि होती है जिसे देवदूत ईश्वर के राज्य से लाकर भाग्यवान कवियों को प्रदान करते हैं।

ऐसे भी विद्वान हैं जो प्रेरणा को काव्य का सर्वस्व न मानकर सृजन में कवि के चेतन प्रयास की ही... सत्ता-महत्ता मानते हैं। लेकिन ये विचारक भी प्रेरणा को अस्वीकार करने का साहस नहीं रखते हैं। वर्जिल, दान्ते, टैसो, मिल्टन आदि महान सर्जक सृजन के किसी न किसी भाग में दैवी-शक्ति का आवाहन करते हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि ईसाई धर्म के प्रचारोपरान्त भी यूनानी देवी-देवताओं की आदर-पूजा का भाव कम न हुआ। उदाहरण के लिए, दान्ते ने अपोलो देवता का स्तवन किया है और कट्टर ईसाई होने पर भी मिल्टन यूरैनिया से शक्ति-याचना करते मिलते हैं।

आधुनिक काल में काव्य प्रेरणा से संबंधित धारणा में थोड़े-बहुत परिवर्तन हुए हैं। शेक्सपियर अनेक स्थलों पर कवि-प्रेरणा से उद्भूत सर्जनात्मकता की बात करते हैं। ड्राइडेन ने तो स्पष्ट कहा है कि शक्तिशाली प्रेरणा के बिना काव्य-सृजन संमव ही नहीं है। स्वच्छंदतावादी युग में ब्लेक का काव्य-सृजन काव्य प्रेरणा, विशेषकर दैवी-प्रेरणा का पर्याय रहा। कॉलरिज, वर्डसवर्थ, शैली - सभी न केवल काव्य प्रेरणा की चर्चा करते हैं, बत्कि काव्य प्रेरणा पर गंभीरता से विचार करते हैं। इतना ही नहीं, रेम्बू से मलार्मे तक ऐसा कौन प्रतीकवादी कवि है जो दैवी-प्रेरणा से आक्रान्त नहीं है। बादलेयर, वर्लन, वेलरी, रिल्‍्के, येट्स - समी दैवी प्रेरणा की पुकार मचाते हैं और कहते हैं कि प्रेरणा का क्षण छोटा पर तीव्र और भीतर तक प्रकाश पैदा करने वाला होता है। शक्तिशाली प्रेरणा क्षणों में रची गई कविताओं में अनुमूति की घनता लाजवाब होती है।

काव्य प्रेरणा पर विचार करने वाले एक तरह के वे विचारक भी हैं जो मानते हैं कि काव्य प्रेरणा कवि के अंतःकरण में जन्म लेती है। शैली ने कहा, 'कविता तर्क की भौति कोई शक्ति नहीं है जिसका व्यवहार इच्छापूर्वक किया जा सकता है। कोई आदमी नहीं कह सकता कि मैं कविता करूँगा। बड़ा से बड़ा कवि भी नहीं कह सकता क्योंकि सर्जनशील मन बुझते हुए अंगारे की माँति होता है जिसे कोई अदृश्य हवा अस्थिर झोंके के समान जागृत कर क्षण-भर के लिए प्रज्वलित कर देती है। यह शक्ति आंतरिक होती है जो पुष्प के उस रंग की भाँति होती है जो जिस प्रकार खिलता है वैसे ही परिवर्तित होता है और मुरझा जाता है। शैल्री के बाद सौंदर्यशास्त्री क्रोचे ने अंतःकरण में आविर्भूत प्रेरणा को 'सहजानुभूति ' (इन्ट्यूशन) के सिद्धांत से प्रस्तुत किया।

एडगर एलेन पो ने प्रेरणा के क्षणिक स्वरूप और विलय की बात उठाई है। उनका मत है कि सर्जनशील काव्य प्रेरणा अल्पजीवी होती है। अतः विशालकाय काव्य-कृतियों में उसका तीव्र सघन उत्कर्ष प्रकट नहीं हो पाता। इस प्रकार काव्य प्रेरणा सिद्धांत को मानने वाले कुछ विचारकों ने मुक्तक या प्रगीतों को प्रबंध काव्य से ज्यादा उत्कृष्ट काव्य माना है। प्रो.सी.एम.बाबरा ने माना कि काव्य प्रेरणा किसी भाव, घटना, भावना, स्मृति के साथ उत्पन्न होती है जिससे रचनाकार की अंतर्मानसिकता ही नहीं पूरा व्यक्तित्व आंदोलित होता है। यही 'दैवी उन्‍्माद ' (डिवाइन मैडनेस) है।

काव्य प्रेरणाजन्य मन में अनुपम एकाग्रता-तल्लीनता होती है। भारतीय काव्यशास्त्र में राजशेखर द्वारा वर्णित 'समाधि' यही अनुपम एकग्रता अथवा तल्लीनता है। काव्य प्रेरणा में प्रबल आवेग होता है, कवि की धमनियों में वह बिजली-सी कौंधती है। प्रेरणा की धारा में इतनी शक्ति होती है कि कोई उसे रोक नहीं सकता। तुलसीदास ने कहा 'कहे बिनु मन न रहत' अर्थात्‌ मन की विवशता यह है कि कहे बिना रहा नहीं जाता। स्वयं अरस्तु काव्य प्रेरणा को 'अनुकरण' तथा 'लय और संगीत का सामंजस्य ' दो रूपों में स्वीकार करते हैं।

दिलचस्प तथ्य यह है कि काव्य प्रेरणा का क्षण दीर्घजीवी न होने पर भी 'अनन्त' होता है, देश और काल को अनुभूति की एकाग्रता में बाँघ लेता है। वर्डसवर्थ तथा शैली दोनों 'अनन्त' की बात उठाकर 'इटरनल ', 'इटरनिटी ' आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह प्रेरणा 'आनन्द रूप' ही नहीं 'ज्ञान रूप' भी होती है। मूल बात यह भी है कि प्रेरणा का रूप 'कल्पना ', 'मावना', 'संवेदना ' से भिन्‍न होता है। प्रेरणा एक अंतर्दृष्टि होती है जो कविता के वर्ण्य विषय और रूप (फार्म) को स्वतः परिवर्तित करती रहती है। रिल्‍्के और टी:एस,एलियट मानते हैं काव्य प्रेरणा अपनी आवश्यकता के अनुकूल नये काव्य-रूपों, प्रयोगों की सृष्टि करती है।

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