साहित्य मे लक्षणा शब्द-शक्ति वहाँ होती है जहाँ लक्षक या लाक्षणिक शब्द का प्रयोग हो। मम्मट के अनुसार -
मुख्यार्थबाघे तद्योगेरुढ़ितो5थ प्रवोजनात।
अन्यो5र्थों लक्ष्यते यत सा लक्षणा
रोपिता क्रिया।॥। (काब्यप्रकाश 2:14)
अर्थात्
मुख्य अर्थ के बाधित होने पर रूढि अथवा प्रयोजन के कारण जिस शक्ति (क्रिया) के
द्वारा मुख्य अर्थ से संबंध रखने वाला अन्य अर्थ लक्षित हो, उसे लक्षणा-व्यापार
शक्ति कहते हैं: इस भाँति लक्षणा के लिए तीन बातें आवश्यक हैं - (4) मुख्यार्थ में बाधा, (2) मुख्यार्थ का अमुख्यार्थ
(लक्ष्यारथ) के साथ योग या आवश्यक संबंध; और (3) रूढि अथवा प्रयोजन का कारण रूप मे विद्यमान होना। यहाँ लक्षणा मूलतः अर्थ
का व्यापार है - शब्द में वह आरोपित है। रूद्वि अथवा प्रयोजन के आधार पर लक्षणा के
दो प्रमुख भेद हैं - रूढा और प्रयोजनवती लक्षणा। इन दोनो के क्रमश: उदाहरण हैं -
(क) कर्मणि कुशल: (ख) गंगायां घोषः।
1) रूढ़ा लक्षणा
कुशल शब्द का
अर्थ होता है - कुश (घास) को उखाड़कर लाने में चतुर। इस कार्य के लिए चतुस्ता जरूरी
है, अपने हाथ को क्षति-ग्रस्त किए बिना कुश को उखाड़ना या उखाड़ने की कला-विधि
में चतुर। जब हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति कार्य-कुशल है तो हमारा अमिप्राय होता है
कि वह कार्य करने में कुशल या दक्ष या प्रवीण है। व्यवहार में यही अर्थ प्रचलित हो
गया। किंतु, मुख्यार्थ से सम्बद्ध होने पर भी वह उससे भिन्न
है। रूढा लक्षणा का अर्थ है - जहाँ मुख्यार्थ से सम्बद्ध होने पर भी वह उससे मिन्न
है। जहाँ मुख्यार्थ रूढि के कारण लक्ष्यार्थ का बोध कराए वहाँ रूढ्ा लक्षणा मानी
जाती है। किसी भी भाषा के सभी मुहावरे और लोकोक्तियाँ रूढा लक्षणा के अंतर्गत आ
जाते हैं जैसे 'आँख का तारा' होना,
'आँख का काँटा' होना आदि।
2) प्रयोजनवती लक्षणा
जहाँ मुख्यार्थ
किसी प्रयोजन के कारण लट्ष्यार्थ का बोध कराए, वहाँ
प्रयोजनवती लक्षणा मानी जाती है।
'गंगायां घोष:' का अमिधा में अर्थ होगा - गंगा में अहीरों की बस्ती है। कहने वाले का
प्रयोजन है कि गंगा तट पर जहाँ अहीरों की बस्ती है
वहाँ वही शीतलता और पावनता है जो गंगा की धारा में है। यहाँ 'प्रयोजन
' व्यंजना का विषय है। इसी कारण, प्रयोजनवती लक्षणा को 'व्यंजनातओत ' स्वीकार किया
गया है और उसे नया नाम दिया गया है - 'सब्यंग्या
लक्षणा '। आधार्यों ने इस प्रश्न पर बहुत विवाद किया है कि लक्षण 'पद' में
होता है अथवा 'वाक्य' में। अधिकांश आचार्य उसे पद का ही व्यापार मानते हैं किंतु विश्वनाथ ने लक्षणा को
पद के अतिरिक्त वाक्य की शक्ति के रूप में भी माना है।
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