कुंतक-सम्मत वक्रोक्ति के छः प्रमुख भेद हैं - (1) वर्णविन्यासवक्रता; (2) पदपूर्वार्धवक्रता, (3) पदपरार्धवक्रता, (4) वाक्यवक्रता, (5) प्रकरणवक्रता, (6) प्रबंधवक्रता। फिर इनके कुल 38 उपभेद हैं। 'इन भेदोपभेदों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है :
1. वर्णविन्यासवक्रता
वर्णो
के विन्यास पर,
विशेषतः वर्णों की आवृत्ति पर आधारित वक्रता। सभी शबद्दालंकारों,
विशेषतः अनुप्रास और यमक, के भेदों का चमत्कार
इसी में अंतर्भूत है। उदाहरणार्थ :
एक वर्ण की आवृत्ति -
कनक कोमल केसर कलियाँ।
ज्ञान-गिरा गुण की गलियाँ॥ वैतालिक (मै.श.
गुप्त)
कुंतक ने वर्णो
के विन्यास को एक प्रकार की वक्रता (चमत्कार) स्वीकार करते हुए भी इनके विवेकशील
प्रयोग पर बल देने के उद्देश्य से निम्नोक्त प्रतिबंधों का निर्देश किया है -
वर्णविन्यास-वक्रता (1) विषयानुकूल होनी चाहिए (2) आग्रह-पूर्वक
विरचित न हो (3) न असुंदर वर्णों से युक्त हो (4) वैचित्र्य-पूर्ण हो, पूर्वावृत्त वर्ण यथासंभव पुनः
आवृत्त न हों (5) प्रसादगुण-सम्पन्न हो (6) श्रुति-सुखद हो।
2. पव-पूर्वार्धवक्रता
पद
के पूर्वार्द्ध (प्रकृति अथवा प्रातिपदिक) पर आधारित वक्रता। इसके निम्नोक्त 8 भेद हैं –
(क) सढ़िवैचित्रववक्रता : रूढ़ि (प्रसिद्धा) से किसी असंभव
अर्थ के आरोप द्वारा प्राप्त वक्ता
(ख) पर्याय वक्रता : किसी विशिष्ट पर्याय (समानार्थक शब्द) पर
आश्रित वक्रता।
(ग) उपचार-यक्रता : सर्वथा मिन्न स्वमाव याले भी 'प्रस्तुत' पर उस 'अप्रस्तुत' के आरोप
द्वाराप्राप्त वक्रता जिसके सामान्य धर्म का प्रस्तुत के साथ के संबंध मात्र ही
हो।
(घ). विशेषण-वक्रता : जहाँ विशेषणों के कारण वक्रता हो।
(ड.)संवृति-बक्रता : सर्वनाम के प्रयोग द्वारा संवृति (वस्तु-गोषन)
से प्राप्त वक्ता
(च) वृत्ति-बक्गनता : समास, तद्धित, कृत
आदि से युक्त वृत्तियों द्वारा प्राप्त वक्रता।
(छ) लिंगवैचित्रय-कक़ता : पुलिंग अथवा स्त्रीलिंग के प्रयोग
के कारण वक्ता,
(ज) क्रियावैचित्रय,-ककता : क्रिया की विचित्रता के कारण वक्रता।
3.
पदपरार्ध-वक्रता
पद
के परार्ध अर्थात् प्रत्यय से (उत्पन्न) वक्रता। इसके निम्नोक्त छः भेद हैं-
(क)
काल-वक्रता : वर्तमान, भूत अथवा भविष्यत् काल (के सूचक प्रत्यय) के कारण
वक्रता।
(ख)
कारक-वक्रता :
'झींगुर के स्वर का
प्रखर तीर केवल प्रशांत को रहा चीर।
- पन्त
'तीर के द्वारा' कारक का प्रयोग न करके 'तीर' कर्ता
कारक का प्रयोग किया गया है।
(ग)
संख्या (वचन) वक्रता : -
हमीं भेज देती है रण मे, क्षात्र धर्म के
नाते। यशोधरा (मै.श, गुप्त)
'मैं भेज देती '
के स्थान पर हमीं' का प्रयोग समस्त
क्षत्रिय-नारियों का सूचक है, जिससे यह वक्रता ज्ञात होती है
कि मैं भी उसी परंपरा का पालन अनिवार्यतः करती।
(घ)
पुरूष-वक्रता :
करके ध्यान आज इस जन का निश्चय वे
मुस्काये। -मै.श.गुप्त
यहाँ
'मेरा' (उत्तम पुरूष) के स्थान पर 'इस जन' (अन्य पुरूष) का प्रयोग किया गया है।
(ड.)
प्रत्यय-वक्रता : एक प्रत्यय में अन्य प्रत्यय लगाने के कारण वक्रता। यों तो इस प्रकार
के प्रयोग संस्कृत भाषा में संभव हैं, किंतु संदेश ' से 'संदेसड़ा ' जैसे हिंदी-प्रयोग
भी उदाहरण- स्वरूप लिये जा सकते हैं - '
पिय सो कहहु संदेसड़ा है भैंरा, हे काग। -जायसी
4.
वाक्य-वक्रता
वाक्य के
प्रयोग-कौशल के कारण वक्रता। इसे वाच्यवक्रता अथवा वस्तुवक्रता भी कहते हैं। यहाँ
वस्तु से तात्पर्य है वर्ण्य विषय। इसके दो' भेद हैं -
(क) सहजा
वस्तुवक्रता : पदार्थ की स्वाभाविक शोभा का वर्णन अथवा स्वभावोक्ति (देखिए 'ध्वनि- सिद्धांत'
के अंतर्गत 'अलंकास्-व्यंग्य ) कवि की सहज
प्रतिमा द्वारा प्रकृत वस्तुओं का सजीव चित्रण सहजा वाक्य (वाच््य) वक्रता कहलाता
है। कुंतक के अनुसार वयःसंधि, ऋतु-संधि, नारी .के अंगों का सौंदर्य, उषाकाल की उज्ज्वल आभा
आदि सहज-सुंदर विषयों का स्वाभाविक रूप में वर्णन इसी के अंतर्गत आता है।
(ख)
अर्थालंकारों के प्रयोग-कौशल से जन्य यक्रता : किसी भी अर्थालंकार का उदाहरण वाक्यवक्रता
के इस भेद के अंतर्गत गृहीत किया जा सकता है|
5.
प्रकरण-वक्रता
प्रकरण
से तात्पर्य है प्रबंध का एक देश या अंग अर्थात् कथा-प्रसंग। इसकी बक्रता
प्रकरण-वक्रता कहलाती है। यह वक्रता निम्नोक्त आठ प्रकारों से उत्पन्न की जा सकती
है -
(क)
पाक्र-प्रवृत्ति-वक्रता : अर्थात् पात्रों द्वारा भावपूर्ण स्थिति की
उद्भावना-जिससे पात्रों के चरित्र का उत्कर्ष हो।
(ख)
उत्पाद्यलावण्य : ऐतिहासिक कथावस्तु में कवि-कल्पना द्वारा नवीन काव्य-सौंदर्य की
उत्पत्ति। इसके दो रूप हैं -
(i) अविद्यमान की
कल्पना : अर्थात् नवीन, प्रसंग की उद्भावना- जैसे, कालिदास
ने अभिज्ञानशाकुंतल में दुर्वासा के शाप की कल्पना द्वारा दुष्यंत के चरित्र को
लांछित होने से बचा लिया।
(ii) विद्यमान का संशोधन : जैसे मायुराज
प्रणीत 'उदात्तराधव' सस्कृत-नाटक (अप्राप्य) में मारीच-वध के
लिए राम नहीं अपितु लक्ष्मण जाते हैं और सीता लक्ष्मण की प्राण- रक्षा के लिए राम
को भेजती है।
(ग) प्रमुख तथा और प्रासंगिक कथाओं में उपकार्योपकारक-माव : प्रासंगिक कथाएँ परस्पर एक- दूसरे का उपकार करती हुई अंततः प्रमुख कार्य (फलबंध) का उपकार करें! उदाहरणार्थ 'उत्तररामचरित ' नाटक के पहले अंक में राम ने जृम्भकास्त्रों की अद्भुत शक्ति का वर्णन किया और पाँचवें अंक में लव ने उन अस्त्रों का प्रयोग किया। इन दोनों प्रसंगों में से पहला दूसरे. का उपकारक है, क्योंकि दूसरे प्रसंग में पाठकों को इन अस्त्रों की अद्भुत क्षमता पूर्चज्ञात थी, अन्यथा वे इसे असंभव समझते। और फिर, ये दोंनो प्रसंग नाटक के अंत में 'राम'सीता मिलन ' इस प्रमुख कार्य (फलबंध) का उपकार करते हैं। कुंतक की यह मान्यता अरस्तू-सम्मत कार्यान्विति' के अधिकांशतः समीप है।
(घ) आवृत्ति-वक्रता : अर्थात् किसी
एक प्रकरण का अत्यंत मनोहारी वर्णन-कथा के किसी एक प्रकरण का, नवीन एवं मनोहारी
वर्णन प्रबंध काव्य को वक्रतापूर्ण बना देता है। उदाहरणार्थ 'कामायनी ' में लज्जा-वर्णन 'साकेत'
में उर्मिला-विरह-वर्णन, आदि!
(ड.) प्रकरण-रस-वक्रता
: अर्थात् रोचक प्रसंगों का विशेष विस्तार से वर्णन-जैसे षडऋतु, चन्द्रोदय, सूर्योदय, जलक्रीड़ा, मधुपान
आदि का। उदाहरणार्थ, 'रघुवंश ' में कुश
की जलक्रीड़ा का वर्णन, 'किरातार्जुनीय ' में बाहुयुद्ध-प्रसंग। इधर प्रियप्रवास में रास-क्रीड़ा आदि, 'जयद्रथ-वध ' में स्वर्ग- वर्णन आदि, 'साकेत ' में चित्रकूट वर्णन आदि।
(च) अप्रधान किंतु
सुंदर प्रसंग का उद्भावना द्वारा प्रधान कथावस्तु की सिद्धि : मुद्राराक्षस ' नाटक में चाणक्य
द्वारा नियुक्त पुरूष द्वारा आत्महत्या का प्रपंच करना, जिससे
चाणक्य राक्षस को जीवित बंदी बना सकने में सफल हुआ। इसी प्रकार मैथिलीशरण गुप्त के
'शकुंतला ' काव्य में वणिक द्वारा
डूबकर मर जाने के प्रसंग से दुष्यंत को अपनी वंशरक्षा की सुधि आ गयी, आदि।
(छ) गर्मांक : नाटक के अंक के अंतर्गत लघु अंक की रचना जिसमें
एक कुशल नट सामाजिक का रूप ग्रहण कर लेता है जैसे राजशेखर के 'बालरामायण ' नाटक के तीसरे अंक में 'सीता-स्वयंवर' नामक गर्भाक।
(ज) विभिन्न प्रकरणों
की परस्पर अन्विति : मुख, प्रतिमुख आदि पॉच नाट्यसंधियों
के माध्यम से विभिन्न प्रकरणों की परस्पर सम्बद्धता। संस्कृत और हिदीं के प्रायः
सभी प्रबंध-काव्य – रघुवंश कुमारसंभव, किरातार्जुनीय आदि,
तथा इधर हिंदी में 'कामायनी ', साकेत ', 'यशोधरा , 'नूरजहॉ',
'लोकायतन' आदि इसी अन्विति के कारण ही उपादेय
बन सके हैं।
6. प्रबंध-वक्रता
'प्रबंध से तात्पर्य
है महाकाव्य, खण्डकाव्य, एकार्थकाव्य
नाटक आदि। प्रंबध से सम्बद्ध कवि-कौशल प्रबंध-वक्रता कहलाता है। इसके छह भेद हैं -
(क) मूलरस में
परिवर्तन : आधार-कथा को ह्वदयहारी बनाने के उद्देश्य से उसके मूल रस के स्थान पर
किसी अन्य रस का निर्वहण। उदाहरणार्थ, शांतरस-प्रधान रामायण पर आधारित
'उत्तररामचरित ' को करूण रस प्रधान
अथवा विप्रलम्भशंगाररस-प्रधान नाटक के रूप में, और शांतरस-प्रधान
महाभारत पर आधारित 'वेणीसंहार' को
वीररस-प्रधान नाटक के रूप में प्रस्तुत करना। इसी प्रकार हिंदी में भी रामायण पर
आधारित 'रामचन्द्रिका' को वीरस्स-प्रधान
औरसाकेत को शुंगाररस-प्रधान काव्य के रूप में प्रस्तुत करना।
(ख). प्रकरण-विशेष पर
कथा-समाप्ति : कभी-कभी कवि नायक का उत्कर्ष दिखाने के
उद्देश्य से इतिहास-प्रसिद्ध कथा के किसी विशेष प्रकरण पर कथा की समाप्ति कर देता
है, विशेषतः उस स्थिति में जब कथा का परवर्ती भाग कोरा इतिवृत्तात्मक अतएव
नीरस होता है|
(ग) कथा के मध्य में
ही किसी अन्य कार्य द्वारा प्रधान कार्य की सिद्धि : उदाहरणार्थ, 'शिशुपाल वध'
में माघ ने शिशुपाल के वध के पश्चात् कथा की समाप्ति कर दी है,
यद्यपि कथा-स्रोत युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ तक आगे बढ़ना था।
(घ) नायक द्वारा अनेक
फलों की प्राप्ति : एक विशेष फल की सिद्धि के लिए तत्पर होने पर अन्य
फलों की भी प्राप्ति हो जाना। उदाहरणार्थ, नागानन्द' नाटक में उसका नायक जीमृतवाहन, मूलतः अपने पिता की
सेवा के लिए वन में गया था, किंतु वहाँ उसका गंधर्व- कन्या
मलयवती से प्रेम और विवाह हुआ तथ शंखचूड़ नामक नाग की रक्षा के लिए अपने प्राण-त्याग
द्वारा उसे नागवंश को नष्ट होने से बचा लिया। इस प्रकार वह पितृभक्त होने के साथ-साथ
एक सफल प्रेमी और लोकोपकारक भी बन गया।
(ड.) प्रधान कथा का
छयोतक नाम : प्रबंध-काव्य के नामकरण द्वारा कथा के मूल रहस्य को प्रकारांतर से
संकेतित करने के माध्यम से प्राप्त वक्रता। जैसे- अभिज्ञानशाकुंतल ', 'मेघदूत ' 'मुद्राराक्षस ', 'मृष्छकटिक ', और इधर 'साकेत ', 'रंगभूमि',
'कायाकल्प ', 'लोकायतन ' आदि नाम। किंतु इनके विपरीत 'शिशुपालक्ध', 'यशोचरा', 'जयद्रथक्ध ', प्रियप्रवास'
ओदि नाम अभिषात्मक हैं। अतः इनम॑ उक्त वक्रता का अभाव है।
(च) एक वियय से सम्बद्ध विलक्षण-प्रबंधत्व : एक मूल कथा पर
आधास्ति परस्पर-भिनन प्रबंधों की रचना, जैसे 'रामाथण'
पर आधारित 'वीरचरित ', 'बाल-रामायण
', प्रतिमा नाटक ', रघुवंश ' काव्य। इधर हिंदी में रामचरितमानस ', रामघन्द्रिका ',
साकेत', आदि। वस्तुतः प्रबंधवक्रता के इस भेद
का प्रयोजन यह है कि सह्ददय को तुलनात्मकता से भी एक प्रकार का सुख मिलता है।
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