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“बर्ड्सवर्थ' की काव्यभाषा विषयक अवधारणा पर चर्चा कीजिए।

नव्यशास्त्रवादी दौर की उक्त कृत्रिम और आडम्बरपूर्ण काव्यमाषा का वर्ड्सदर्श ने विरोध किया। उनका मानना था कि कविता में ऐसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए जो आम जनता की भाषा से ग्रहण की गई हो। अभिजात वर्ग की भाषा आज आम जनता की भाषा नहीं है, अतः उसे कविता की भाषा बनाए रखना उचित नहीं है। उनकी मान्यता थी कि अभिजात वर्ग के भाव बहुत छिछले होते हैं। गहराई से चीज़ों को देखने, उनका अनुमव करने, उनके प्रति अपने संवेदनाएँ प्रकट करने की क्षमता जितनी आम जनता में होती है, उतनी उच्च वर्गों में नहीं।' (रामविलास शर्मा, आस्था और सौंदर्य ' शीर्षक कृति में 'फ्रांसीसी राज्यक्रांति और मानव-जाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या ' शीर्षक आलेख (1990), वे कविता की भाषा ही नहीं कविता की विषय-वस्तु को भी सामान्य जनों तक, विशेष रूप से गाँव के किसानों तक ले जाना चाहते थे। 'जो कविता कुछ अपवादों को छोड़कर अभिजात वर्ग तक सीमित थी, उसे वे एक नए धरातल पर विकसित करना चाहते थे।'

"लिस्किल बैलेड्स' (1796) में वर्डसवर्थ बोलचाल की माषा के आधार पर महान काव्य की रचना करना चाहते थे। यह संग्रह एक प्रयोग के रूप में था और इस प्रयोग द्वारा वर्डसवर्थ यह पता लगाना चाहते थे कि 'मानव की यथार्थ भाषा को यदि तीव्र अनुभूति की दशा में छंद में ढाला जाए तो उससे क्‍या वैसा और उतना ही आनंद प्राप्त हो सकता है जैसा और जितना कोई कवि सोच-समझकर प्रदान करने की कोशिश करता है।' किंतु पर॑परावादी आलोचकों ने इन कविताओं की, माय और भाषा दोनों दृष्टियो से, कटु आलोचना की। इनकी भाषा को विशेष रूप से आलोचना का लक्ष्य बनाया गया। अतः जो मान्यताएँ प्रधम संस्करण (1796) में प्रयोग के रूप में थीं उन्होंने द्वितीय संस्करण (1800) तक आते- आते सुनिश्चित अवधारणाओं का रूप ग्रहण कर लिया। इस संस्करण के आमुख में उन्होंने इन कविताओं के सैद्वांतिक आधार के समर्थन में अपने विचार प्रकट किए। इन कविताओं में प्रस्तावित प्रमुख लक्ष्य यह था कि साधारण जीवन से घटनाओं और स्थितियों का चयन किया जाए और फिर आद्योपांत उनका वर्णन ऐसी भाषा में रहे जिसका प्रयोग हम यथार्थ जीवन में करते हैं, साथ ही उनपर कल्पना का ऐसा रंग चढ़ाया जाए जिससे साधारण चीज़ें मन में असाधारण रूप लेकर उतरें।' वर्डसर्क्थ की मान्यता है कि कविता में ऐसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए जो आम जनता की भाषा हो। अभिजाठवर्गीय भाषा को आज कविता की भाषा बनाएं रखना उपयुक्त नहीं है। 

कविता की भाषा कोही नहीं, कविता की विषय-वस्तु को भी वे साधारण जनों तक, विशेष रूप से गाव के किसानों तक ले जाना चाहते थे। साधारण और ग्रामीण जीवन को इन कविताओं का विषय क्यों बनाया गया. यह स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा - 'साधारण और देहात का जीवन आम तौर पर इसलिए चुना गया कि उस स्थिति में मानव-हृदय के मूल भावों को परिपक्व होने के लिए अधिक अच्छी ज़मीन मिलती है, वहाँ उनके ऊपर उतना प्रतिबंध नहीं होता और वे (ग्रामीण जन) अधिक ज़ोरदार और अधिक साफ़ भाषा बोल सकते हैं, जीवन की उस दशा में हमारे मुल भाव एकदम साधारण या प्रकृत स्थिति मे रहते हैं. अतः उनका ठीक-ठीक चितन-मनन संभव है और उन्हें ज़्यादा कारगर ढंग से सम्प्रेषित किया जा सकता है; ग्रामीण जीवन के आचार-व्यवहार ऐसे मूल भावों से और ग्रामीण पेशों की ऐसी आधारमूत विशेषताओं से उत्पन्न होते हैं जो सहज संवेद्य बन सकते हैं और स्थायी रूप ग्रहण कर सकते हैं, और अंत में उस दशा में मानवीय भावों का प्रकृति के रमणीय और स्थायी रूपों के साथ सामंजस्य हो सकता है।' वर्डसवर्थ की मान्यता थी कि ग्रामीण जन अपने अनुभूति के आधार पर बोलते हैं, अतः उनकी ऐसी माषा 'बार-बार के अनुभव और नियमित मावदशाओं से उत्पन्न होती है, अतः यह अधिक स्थायी और कहीं अधिक दार्शनिक गंभीरता लिए हुए होती है: इसलिए उनकी वाणी में जो सच्चाई, जो ईमानदारी और जो स्वामाविकता होती है वह उन कवियों की कृत्रिम माषा में कहाँ जो यह सोचते हैं कि जिस अनुपात में वे मानवीय सहानुभूति से अपने-आपको दूर रखेंगे और अभिव्यक्ति की मनमानी पद्धति का अनुसरण करेंगे उतना ही अपने-आपको और अपनी कला को महिमान्वित करेंगे।'

ज़ाहिर है कि द्वितीय संस्करण के आमुख का केंद्रीय विषय काव्य-भाषा ही है। कविता के स्वरूप और कवि के चरित्र पर जो विचार व्यक्त किए गए हैं दे प्रासंगिक रूप में। कवि के चरित्र के बारे में संपूर्ण सामग्री (लगभग दस पैराग्राफ़) 1802 के संस्करण में जोड़ी गई थी। छंद के बारे में जहाँ विचार किया गया है वहाँ भी संदर्भ काव्यभाषा का ही है। वहाँ यह बताने का प्रयास किया गया है कि जब एक कृत्रिमता (काव्यमाषा) का विरोध किया गया है तो दूसरी कृत्रिमता (छंद) का फक्षपोषण क्‍यों किया जा रहा है।

वर्डसवर्थ की घारणा थी कि शब्द अपने आप में काव्यात्मक या अकाव्यात्मक नहीं होते, माषा में प्रयोग के आधार पर वे अपना स्वरूय अर्जित करते हैं। अपने युग की 'तड़क-मड़कपूर्ण निर्जीव शब्धावली' के बरक्स 'लिरिकिल बैलेड्स' की कविताओं का वैशिष्ट्य रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा – पाठक यह देखेंगे कि इन कविताओं में अमूर्त विचारों का मानवीकरण कभी-कभार ही किया गया है – और शैली को भव्य बनाने तथा उसे गद्य के स्तर से ऊँचा उठाने की एक सामान्य युक्ति के रूप में तो इसका प्रयोग एकदम नहीं मिलेगा। मेरा उद्देश्य तो मानव की यथार्थ माषबा का अनुकरण करना और यथासंभव उसे प्रयोग में लाना था; और निश्चय ही ऐसे मानवीकरण को उस भाषा का स्वाभाविक अंग नहीं माना जा सकता।' वास्तव में 'शैली की यांत्रिक युक्ति' के रूप में जो मानवीकरण आया है वह उन्हें ग्राहय नहीं है किंतु यही यदि भाषा का स्वाभाविक अंग बनकर आए तो वह उन्हें सहज-प्राह्य है - "वह (मानवीकरण) तो वस्तुतः ऐसा आलंकार है जो आवेग की दशा में आप-से-आप रूप ग्रहण कर लेता है और इसी रूप में मैंने इनका उपयोग किया है। कितु शैली की एक यांत्रिक युक्ति के रूप में, या फिर ऐसी पारिवारिक भाजा के रूप में जिसे छंदोबद्ध रचना के लेखक अपनाने का दावा करते हैं, मैंने इसका पूर्ण बहिष्कार किया है।' इसी प्रकार काव्वभाषा (पोइटिक डिक्शन) का परंपरागत रूप भी इन कविताओं में नहीं है - सामान्यतः जो कुछ काव्यभाषा के रूप में जाना-समझा जाता है वह भी इन कविताओं में नहीं मिलेगा। आम तौर पर इसे आकार देने के लिए जितना प्रयास किया जाता है उतना ही प्रयास मैंने उसे बचाने के लिए किया है।......ऐसा इसलिए किया गया है कि मैं अपनी भाषा को मानवीय भाषा के नज़दीक लाना चाहता हूँ।' काव्यभाषा के अंतर्गत वर्डसवर्थ रूपक के ऐसे 'पदबंधों और अलंकारों ' को शामिल करते हैं 'जो पिता से लेकर पुत्र तक कवियों की सामान्य सम्पत्ति माने जाते रहे हैं।' अतः उन्होंने अपने-आपको ऐसी अनेक अभिव्यक्तियों के प्रयोग से दूर रखा 'जो अपने आप में उचित और सुंदर हैं कितु घटिया कवि जिन्हें बड़े मूर्खतापूर्ण ढंग से दुहराते चले आ रहे हैं। इसीलिए उनके साथ ऐसी घृणा की भावना बद्धमूल हो गई है कि किसी भी कला की मदद से उसपर काबू नहीं पाया जा सकता।'

काव्यभाषा के बारे में अपने उक्त विचारों के आधार पर वर्डसवर्थ ने यह निष्कर्ष निकाला कि गद्य और कविता की भाषा में कोई अंतर नहीं है। नव्यशास्त्रीय दौर में इन दोनों के अंतर को मान्यता दी गई थी और इसी अंतर के आधार पर कृत्रिम आडम्बरपूर्ण काव्यमाषा को उचित ठहराया गया था। लेकिन वर्दक्वर्थ ने लिखा - 'हर अच्छी कविता के अधिकांश की भाषा, चाहे उसका स्वर कितना भी उदात्त क्यों न हो, अच्छे गद्य की भाषा से भिन्‍न नहीं होती। यही नहीं, सबसे अच्छी कविताओं के सबसे मार्मिक अंश गद्य की भाषा के एकदम समरूप होंगे - ऐसे गद्य की जो सुरक्षित हो।' वर्डसवर्थ के अनुसार संपूर्ण काव्य से अनगिनत उदाहरण देकर' इस दावे को सिद्ध किया जा सकता है। उन्होंने ग्रे की एक सॉनेट ('ऑन दी डेथ ऑफ़ रिचर्ड वेस्ट')) को उदाहरणस्वरूप उद्धत करके यह दिखाया कि उसमें जहॉ-जहाँ मार्मिकता या कवित्व है उन अंशों की भाषा अच्छे गद्य की माषा से भिन्‍न नहीं है जबकि ग्रे का ऐसे कवियों में प्रमुख स्थान है 'जिन्होंने गद्य और छंदोबद्ध रचना में अंतर की दूरी को और अधिक बढ़ाने की कोशिश की है।' अतः उन्होंने घोषणा की - 'गद्य और छंदोबद्ध रचना की माषा में मूलतः न तो कोई अंतर है और न हो सकता है।' सामान्य बुद्धि के स्तर पर उतरकर उन्होंने कहा - 'उनके बोलने और सुनने के अंग एक ही हैं। उन दोनों के परिधान एक ही तत्व के बने होते हैं। दोनों की शिराओं में एक ही मानवीय रक्त प्रवाहित होता है।'

गद्य और कविता में प्रायः छंद के आधार पर भेद किया जाता है और इस आधार पर काव्यभाषा – जैसे अन्य भेदों की भी मान्यता मिलनी चाहिए - इस संभावना के निराकरण के लिए वर्डसवर्थ ने कहा - 'जिस काव्यमाया की यहाँ सिफ़ारिश की गई है उसका चयन यथासंभव ऐसी भाषा से किया जाता है जिसका हम वस्तुतः बोलचाल में प्रयोग करते हैं। वह चयन यदि सच्ची अभिरुचि और मावना के आधार पर किया गया तो जितना हम सौोधते हैं उससे कहीं ज़्यादा अंतर आप-से-आप उत्पन्न हो जाएगा और साथ ही वह रचना साधारण जीवन की तुच्छता और अश्लीलता से भी मुक्त हो जाएगी। यदि इसमें ऊपर से छंद का समावेश और कर दिवा गया ठो मैं समझता हूँ कि ऐसा अंतर पैदा हो जाएगा जो एक विवेकशील व्यक्ति को सहज स्वीकार्य होगा।' वदि विषय का चुनाव ठीक हुआ तो माषा अपने-आप ही अवसर के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेगी - 'यदि कवि ने अपने विषय का चुनाव समझदारी से किया है तो उपयुक्त अवसर आने पर....भाषा अनिवार्य रूप से भव्य या चित्र-विचित्र हो जाएगी और रूपक तथा अलंकारों से जीवंत हो उठेगी। भाव की स्वाभाविक माँग के प्रतिकुल कवि ने यदि अपनी ओर से भव्यता का संयोग करने की कोशिश की तो उसमें एक प्रकार की असंगति आ जाएगी।' हर हालत में मव्यता वा अलंकरण का अलग से संयोग करने की ज़रूरत नहीं है - 'जिन अंशों में पक और अलंकार उचित शैति से आए हैं उनका पाठक के मन पर अपेक्षित असर पड़ेगा। अन्यत्र जहाँ भाव हल्के किस्म के हुए वहाँ शैली भी मंद-मंथर हो जाएगी।'

काव्यमाषा में कृत्रिमता का समावेश कैसे हुआ, मनुष्य की यथार्थ माषा से उसके अलगाव की क्या प्रक्रिया रही, इस बारे में मी वर्डसक्थ ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। 'लिस्किल बैलेड्स '(के, तृतीय संस्करण (1802) में काव्यभाषा के बारे में जोड़े गए 'परिशिष्ट' में वर्डसवर्थ ने लिखा - सभी देशों के आरंभिक कवियों ने सामान्यतः यथार्थ घटनाओं से प्रेस्ति होकर काव्य-रचना की थी। उन्होंने जो कुछ लिखा वह साधारण मनुष्यों के रूप में और एकदम स्वामाविक ढंग से। चूँकि उनकी अनुभूति और भाव . प्रबल थे, अतः: उनकी भाषा मी प्रमावपूर्ण और अलंकृत हो गई। इस माषा का प्रमाव देखकर परपतती कवियों और यशलोलुप जनों ने, वैसे भाव से अनुप्राणित हुए बिभा ही, वही प्रभाव उत्पन्न करना चाहा। फल यह हुआ कि उन अलंकारों का यांत्रिक प्रयोग ही हो पावा। कभी-कभी तो यह प्रवोग उचित भी हुआ किंतु प्रायः ऐसे भावों और विचारें के लिए उनका प्रयोग किया गया जिनसे उनका कोई सहज संबंध नहीं था। इस प्रकार अनजाने ही एक ऐसी भाषा निर्मित हो गई जो हर हालत में मनुष्यों की. यथार्थ भाषा से तत्वतः भिन्‍न थी।' इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीठी यह कृत्रिम काव्यमाथा बोझिल और आडम्बस्पूर्ण होती गई। कह सहज-सरल न रही और उसकी भावोशीपन-क्षमता एकदम समाप्त हो गई। वर्डसवर्थ इस नव-आभिजात्थवादी काव्यभाषा का त्याग कर प्राचीन कवियों की भाषायी परंपरा को फिर से अपनाने का आग्रह करते हैं।

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