भारत के सांविधानिक इतिहास में 1833 का अधिनियम एक बड़ा प्रतीक चिन्ह बन गया था । इस अधिनियम के द्वारा चीन के साथ चाय व्यापार की इजारेदारी को खत्म कर दिया गया | कंपनी की भूमिका अब केवल राजनीतिक रह गई थी | भारत में कंपनी के ऋण चुकाने थे। इसके साझेदारों के लिए 10.5 प्रतिशत प्रति वर्ष अंशदेय सुनिश्चित कर दिया गया। व्यापारियों तथा संप्रभुओं की एकता अंततः समाप्त कर दी गई। कंपनी को भारत स्थित संपत्ति को ब्रिटिश सम्राट् के ट्रस्ट में रखा जाता था। बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसिंडेट को भारतीय मामलों के सचिव का पद मिला। बोर्ड ऑफ कंट्रोल को भारतीय क्षेत्र के प्रशासन एवं राजस्व से संबंधित कंपनी के मामलों की देखरेख, निर्देशन एवं नियंत्रण का अधिकार प्राप्त था।
बंगाल के गवर्नर जनरल
को समूचे भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। गवर्नर जनरल का कार्य कौंसिल के अन्तर्गत
कंपनी के नागरिक एवं सैनिक मामलों का नियंत्रण, देखरेख एवं
निर्देशन करना था। बंबई, बंगाल, म्रदास
तथा अन्य क्षेत्रों को कौसिल गवर्नर जनरल के पूर्ण नियन्त्रण के अधीन ला दिया गया
था। प्रांतीय सरकारों के व्यय, नये पदों का गठन और बंबई,
मद्रास सरकार के सभी सदस्यों का अनुशासन केन्द्रीय सरकार के पूर्ण
नियंत्रण के अधीन थे ।
1833 के अधिनियम द्वारा
कौंसिल गवर्नर जनरल को भारत के सभी ब्रिटेन अधिकृत क्षेत्रों के लिए कानून बनाने
का अधिकार प्राप्त था। ये कानून अंग्रेज अथवा भारतीय विदेशी अथवा अन्य सभी
व्यक्तियों तथा कंपनी कर्मचारियों पर लागू होते थे। भारत के सभी न्यायालयों में उन
पर अमल किया जाना आवश्यक था।
इस अधिनियम द्वारा
गवर्नर जनरल की कार्यकारी कौंसिल में कानून बनाने वाले सदस्यों की संख्या एक और
बढ़ा दी गई जिसका कार्य पूर्णतः वैध 1निक था। उसे कौंसिल में कोई मताधिकार प्राप्त
नहीं था और बुलाए जाने पर ही उसे मीटिंग में उपस्थित होना पड़ता था। प्रेसिडेंसी
कौंसिलों में सदस्यों की संख्या बढ़ाकर दो हो गई थी। बंबई और मद्रास को
कमांडर-इन-चीफ के अधीन अलग सेनाएं रखनी होती थीं, किन्तु
उन्हें केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में रहना होता था।
इस अधिनियम द्वारा
गवर्नर जनरल को भारत में प्रचलित विविध नियमों, निर्देशों के
अध्ययन, संचयन एवं संहिता निर्माण के प्रयासों से भारतीय दंड
संहिता, नागरिक एवं अपराध विधियों संबंधी संहिताओं को लागू
करने का अधिकार दिया गया ।
इस अधिनियम के उपभाग 87
में घोषणा की गई कि कोई भी स्वदेशी अथवा भारत में निवास कर रहा ब्रिटिश साम्राज्य
का अधीनस्थ व्यक्ति अपने ही धमं, जन्म स्थान, वंशमूल अथवा रंग से संबन्धित नहीं माना जाएगा अथवा इनमें से किसी को भी
कंपनी की सेवा के लिए अयोग्य नहीं माना जाएगा। अर्थात् अब भारतीयों को भी उच्च पदों
पर नियुक्त किया जा सकता था, किन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं
था। अभी भी भारतीयों को नागरिक एवं सैन्य सेवाओं में उच्च पदों से वंचित किया जाता
था। किन्तु फिर भी किसी प्रकार की विभेद न रखने की घोषणा संबंधी अनुच्छेद अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण था, क्योंक सदी के अंतिम वर्षों में यह भारत
में राजनीतिक आंदोलन का आधार-बिन्दु बन गया था।
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