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तुलसीदास की भक्ति की विशिस्टताओं का वर्णन अपने शब्दों में कीजिये |

भक्ति ईश्वर के प्रति परम अनुरक्ति का भाव है। वैसी भक्ति जो शास्त्रोक्त विधि से की जाती है उसे वैधी भक्ति तथा जिसमें भक्त ईश्वर के प्रति वात्सल्य, सख्य, दांपत्य अथवा दास्य आदि भाव निवेदित अथवा वर्णित कर अपना भाव अर्पित करता है उसे रागानुगा भक्ति कहते हैं। भागवत' तथा आध्यात्म रामायण' में किंचित अंतर के साथ भक्ति के नौ साधन बताए गए हैं, इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं। तुलसीदास की भक्ति-पद्धति में भक्ति के इन सारे साधनों अथवा रूपों की झलक किसी न किसी रूप में मौजूद है। हालाँकि जहाँ वे स्वयं अपनी निजी अनुरक्ति प्रभु के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं वहाँ वे मुख्य रूप से दैन्य भाव ही प्रदर्शित करते हैं। वात्सल्य कौशल्या, दशरथ आदि के माध्यम से; दांपत्य की सीमित और मर्यादित अभिव्यक्ति शिव-पार्वती, राम-सीता आदि के विवाह के अनंतर तथा सख्य भाव निषादराज, सुग्रीव, विभीषण आदि के बहाने व्यक्त हुई है। भक्ति के इन रूपों-साधनों के अतिरिक्त उसकी दार्शनिकता, उसके प्रधान भेद सगुण-निर्गुण तथा सगुण मत के अंदर शैव-वैष्णव मत के विभेद तथा इनके बीच समन्वय के बिंदु आदि अनेक पक्ष तुलसीदास के भक्ति निरूपण के अंतर्गत विचारणीय हैं। तुलसीदास की भक्ति में कुछ चीजें आधार रूप में हैं। वे स्मार्त वैष्णव हैं। उदयभानु सिंह के अनुसार, “स्मार्त धर्म की दो महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं- वर्णाश्रमधर्म-निष्ठा और गणेश, सूर्य, शिव, दुर्गा तथा विष्णु; इन पाँच देवों की उपासना। पहली विशेषता तुलसी की सभी प्रमुख कृतियों में सम्यक रूप से अभिव्यक्त हुई हैं, किंतु पंचदेवों का योजनाबद्ध स्तवन 'विनय-पत्रिका में ही मिलता है।” हालाँकि योजनाबद्धता से इतर देखें तो इन देवों की अपने इष्ट देव के रूप में तो नहीं पर प्रसंगवश जगह-जगह अर्चना की गई है।

आधार रूप में तुलसीदास की भक्ति की निजी विशिष्टताओं में प्रमुख हैं- अवतारवाद की स्वीकृति और ईश्वर के सगुण रूप के प्रति आग्रह, सगुण और निर्गुण में पार्थक्य की अस्वीकृति, राम की सर्वोच्चता तथा दिव्यता के प्रति सचेत भाव, निज भक्ति में गहन रूप से शरणागति और दास्य का भाव तथा (कलियुग में) नाम जप को भक्ति की केंद्रीय प्रविधि का प्रस्ताव ।

तुलसीदास विष्णु के अवतार राम के भक्त हैं। यद्यपि वे निपुण कवि भी हैं पर निरंतर कवि व्यक्तित्व की जगह भक्त व्यक्तित्व को प्राथमिक बनाने की व्यग्रता उनमें दिखाई देती है। वे ऐसी कविता जिसमें कवित्व के गुण हों पर राम की मौजूदगी नहीं हो, उसे वरेण्य नहीं मानते । कविता का कार्य उनके लिए संसार के मंगल की साधना है। वह राम की मौजूदगी से ही संभव है :

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह ने सोऊ।।

भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।

तुलसीदास से पूर्व हिंदी साहित्य में वीरगाथात्मक काव्य लिखने वाले चारण कवि हो चुके थे। उनके आसपास ही दरबारी मनोवृत्ति वाले केशवदास हुए। लेकिन तुलसीदास ने काव्य- कर्म की इस मनोवृत्ति से अपने को अलग ही नहीं रखा बल्कि ऐसे कृत्य को विद्या का अपमान माना, कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर ध्रुनि गिरा लगत पछिताना। प्राकृत जन के अपने आग्रह-दुराग्रह हो सकते हैं इसलिए तुलसीदास उस ईश्वर का गुणगान करते हैं जो समदर्शी है, जो सबका कल्याण करता है।

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा।।

ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।।

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी।।

जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू।।

तुलसीदास की भक्ति में एक विशेष प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह है अपनी मान्यताओं के प्रति दृढ़ रवैया। चूँकि उनमें भक्ति से संबंधित कई संदर्भो में द्विआयामिता है, समन्वय की चेष्टा है- जैसे सगुण और निर्गुण में, शिव और राम (विष्णु) में; बावजूद इसके उनकी मान्यता और आराधना के जो केंद्रीय तत्व हैं उसके प्रति वे खासा आग्रही हैं। अपने समस्त काव्य में उसे वे बार-बार दुहराते हैं। वनवास से लौटने के पश्चात जब राम का राज्याभिषेक होता है, उस समय भाटों का वेश धारण करके आए चारों वेद उनके सगुण रूप का गुणगान करते हुए उसे ही वरेण्य मानते हैं :

 

जे ब्रहम अजमद्ठैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं।

ते कहहूँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।

करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।

मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।

 

अर्थात जो ब्रहम को अजन्मा और अद्ठवैत मानते हुए ऐसा कहते हैं कि ब्रह्म मन से परे हैं जिन्हें अनुभव से ही जाना जा सकता है, वे ऐसा कहें; पर हम तो आपके सगुण रूप को गाते हैं। हे करुणामय, सदगुण देव मैं तो आपसे यही वरदान माँगता हूँ कि अपने मन, वचन, कर्म से दोषों को त्यागकर आपके चरणों में मेरा अनुराग हो।

ईश्वर के अवतार के जो कारण तुलसीदास ने बताए हैं उनमें भक्तों का प्रेम तथा धर्म की रक्षा प्रमुख हैं। जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, असुरों का उत्पात बढ़ता है, वेद की मर्यादा प्रभावित होती है, तब इसके समाधान के लिए ईश्वर अवतार लेते हैं।

 

राम के अवतारी रूप को लेकर तुलसीदास जितने आग्रही हैं उतना ही इस बात को रेखांकित करने में सचेत हैं कि उनका जो नर रूप है वह भक्तवत्सल प्रभु की लीला है। तुलसीदास लीला का वर्णन करते हुए बार-बार याद दिलाते हैं कि अपने मूल में वे इच्छा रहित, अजन्मा, निर्गुण हैं; वे भक्तों के लिए विभिन्‍न प्रकार के अलौकिक रूपों को धारण करते हैं :

 

ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुण नाम न रूप।

भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप ।।

 

सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की स्वीकृति तुलसीदास को इनके समन्वय की ओर अग्रसर करती है। समन्वय उनकी भक्ति का एक प्रमुख पक्ष है। उनका मानना है कि पानी और बर्फ में तत्वतः कोई भेद नहीं है वैसे ही सगुण और निर्गुण में कोई भेद नहीं है, 'जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें,/ जलु हिम उपल बिलग नहों जैसें।

रामचरितमानस' के बालकांड में भी तुलसीदास नामजप की महिमा का बखान करने के क्रम में सगुण और निर्गुण ब्रहम में अमेद को दर्शाते हैं, 'एकु दारुणत देखिअ एकू।,”पावक सम जुग ब्रहम बिबेकू।।' अर्थात ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण ब्रहम उस अप्रकट अग्नि के समान है जो काठ के अंदर है पर सामान्य नजर से दिखाई नहीं देता। सगुण ब्रह्म काठ से निकलने वाली अग्नि के समान है। इसी तरह 'दोहावलीं' में सगुण और निर्गुण में जो मूलतः साम्यता है उसे समझाते हुए वे कहते हैं, 'अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उमय प्रकार।' अंक में लिखे जाने से किसी संख्या का बोघ होता है. उसी संख्या को अक्षर में भी लिखा जा सकता है और इससे कोई अंतर नहीं आता। इसी तरह ब्रहम को सगुण या निर्गुण कहने से कोई अंतर नहीं आता।

 

सगुण और निर्गुण के समन्चय की तरह ही वे शिव और विष्णु (राम) की भक्ति का भी समच्चय करते हैं। मध्यकाल में सनातन धर्म विभिन्‍न पंथों- शैव, वैष्णव आदि- में बैँटा हुआ था. तुलसीदास इस विभेद को दूर करना चाहते थे। तुलसीदास के साहित्य में राम के बाद शिव को सर्वाधिक महत्व दिया गया डै। 'रामचरितमानस की कथा उमा-शंभु संवाद के रूप में कही गई हडै। शिव निरंतर राम के चरण में अपनी रति (प्रेम) प्रकट करते हैं। सीता के हरण के बाद राम व्याकुल होकर सीता को खोजते फिर रहे हैं। नर रूप में राम की व्याकुलता देखकर शिव की पत्नी सती को राम के देवत्व के प्रति मोह यानि संशय उत्पन्न होता है लेकिन सती पाती हैं कि जो शिव संसार भर के ईश्वर हैं: देवता, मनुष्य, मुनि जिनके आगे सिर नवाते हैं। उन्होंने एक राजा के बेटे को सच्चिदानंद कड उसको प्रणाम किया। उसकी छवि को देखकर इलने प्रेममग्न हो गए कि हृदय का प्रेम रोके नहीं रूकता। सती के संशय को जान शिव उन्हें संदेह न रखने की सलाह देते हैं और उनके नर रूप को भक्तों के हित में लिया गया अवतार बताते हैं :

 

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेंहि ध्यावहीं।

कह्डि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं।।

सोदइ रामु ब्यापक ब्रहम भुवन निकाय पति माया घनी।

अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रथुकुलमनी।।

अर्थात (शिव कहते हैं) मुनि. योगी, सिद्ध और संत निर्मल मन से जिसका ध्यान करते हैं। वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिसका यश गाते हैं. उसी माया के धनी व्यापक ब्रहम ने अपने भक्तों के हित में रघुकुल में अवतार लिया डै।

 

सती का संशय दूर नहीं होता तो शिव उनसे मर्यादा में रहते हुए परीक्षा लेने की बात करते हैं। सती मर्यादा नहीं मानती हैं और सीता के रूप में राम के सामने प्रकट डोती हैं इसे जान कर शिव दुखी होते हैं। राम भी विभिन्‍न प्रकरणों में शिव की किसी अवमानना को सहन नहीं करने का भाव रखते हैं। 'रामचरितमानस' में पार्वती-विवाह की कथा भारद्दाज को सुनाने के बाद याज्ञवलक्य कहते हैं कि जिनका अनुराग शिव जी के चरण-कमल में नहीं है उसे राम स्वप्न में भी पसंद नहीं करते, 'सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामद्धि ते सपनेहुँ न सोहाडीं।।' उत्तरकांड में स्वयं राम कहते हैं कि शंकर की भक्ति के बिना मेरी भक्ति संभव नहीं है, औरउ एक गुपुत मत सबहि कहऊँ कर जोरी।,“संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।' लेकिन तुलसीदास की भक्ति के संदर्भ में एक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि वे भले ही शिव और राम की सह-भक्ति में कोई विरोध नहीं मानते; यथास्थान गणेश, सरस्वती आदि विभिन्‍न देवी-देवताओं की वंदना भी करते हैं पर राम की निज भक्ति और सर्वोच्चता के प्रति वे अत्यंत आग्रडी हैं। 'विनय-पतश्चिका' में वे गणेश. सूर्य. शिव, उमा. गंगा, यमुना, इनुमान आदि की जो स्तुति करते हैं. उनमें ये इन देवी देवताओं से रघुवीर के पद में प्रीति का ही वरदान माँगते हैं। यद्यपि राम अंशायतार हैं (अंसन्ह सहित देह धरि ताता। // करिहऊँ चरित भगत सुखदाता). लेकिन तुलसीदास जब राम फे ब्रहममत्व, दिव्यता और महिमा का बखान करते हैं तो ब्रहम का सर्वोच्च आसन उन्हें प्रदान करते हैं :

 

सारद सेस मडेस बिधि आगम निगम पुरान।

नेति नेति कष्टि जासु गुन कर॒िं निरंतर गान।।

 

अर्थात सरस्यती, शेष, शिव, ब्रह्मा, शास्त्र, वेद और पुराण उनकी महिमा का गुणगान नेति- नेति' (यड् भी नहीं, वह भी नहीं) कडकर करते हैं। अच्यत्न एक जगह वे दर्शाते हैं कि शिव, ब्रह्मा और विष्णु उन्हीं के अंश से उत्पन्न होते हैं, 'संभु बिरंचि विष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना।' दरअसल तुलसीदास के राम परम विष्णु अथवा परम ब्रहम हैं! उदयमभानु सिंह के अनुसार “उपनिषदकारों और वेदांतियों ने जिसे ब्रहम कहा है, शैयों ने जिसे परमशिव माना है, वैष्णवों की दृष्टि में जो परमदिष्णु हैं, उसी परमार्थ तत्व को तुलसी राम कहते हैं।"

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