सरल समझ में, अवसर की समानता का अर्थ है उन सभी अवरोधों को दूर करना जो व्यक्तिगत आत्म-विकास में बाधा डालते हैं। इसका अर्थ है कि पेशे या व्यवसाय प्रतिभावान व्यक्ति के लिए ही खुले होने चाहिए और तरक्कियाँ योग्यताओं पर आधारित होनी चाहिए। हैसियत, पारिवारिक संबंधों, सामाजिक पृष्ठभूमि व ऐसे ही अन्य कारकों का हस्तक्षेप नहीं होने देना चाहिए।
अवसर की समानता एक अत्यन्त
आकर्षक धारणा है, जो उस बात से संबंधित है जिसका न्याय जीवन के आरम्भ बिन्दु के रूप में वर्णन
किया जाता है। निहितार्थ यह है कि समानता यह अपेक्षा रखती है कि सभी व्यक्ति एक
समान बिंदु से जीवन शुरू करें। तथापि, यह ज़रूरी नहीं कि
इसके परिणाम बिल्कुल भी समतावादी हों। यथार्थतः चूँकि हर व्यक्ति ने समान रूप से
शुरुआत की, असमान परिणाम स्वीकार्य एवं वैध हैं। इस असमानता
को तब भिन्न-भिन्न नैसर्गिक प्रतिभाओं, परिश्रम करने की
क्षमता तथा भाग्य के भी शब्दों में स्पष्ट किया जाएगा।
यह लगता है कि इस तरह से बनी
अवसर की समानता एक ऐसी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करने का समान अवसर प्रदान करती
है जो अनुक्रम आधारित रही है। अगर ऐसा है तो यह तत्त्वतः कोई समतावादी सिद्धांत
प्रतीत नहीं होता। अवसर की समानता, इस प्रकार, एक असमतावादी समाज की ओर इशारा करती है, यद्यपि वह
योग्यता के उच्च आदर्श पर आधारित, है। यह धारणा स्वयं को
प्रकृति और परम्परा के बीच भिन्नता पर आधारित करती है। तर्क यह है कि वे भिन्नताएँ
जो प्रतिभाओं, कौशलों, कठोर श्रम
इत्यादि जैसे विभिन्न प्राकृतिक गुणों के आधार पर प्रकट होती हैं, नैतिक रूप से समर्थनीय हैं। तथापि, वे भिन्नताएँ जो
परम्पराओं अथवा गरीबी, आश्रयहीनता जैसे सामाजिक रूप से बने
भेदों से पैदा होती हैं, समर्थनीय नहीं हैं। सच्चाई, हालाँकि, यह है कि यह एक विशिष्ट सामाजिक पक्षपात है
जो समाज में भेदों को स्पष्ट करने के लिए सुन्दरता अथवा बुद्धिमत्ता जैसी किसी प्राकृतिक
भिन्नता को एक प्रासंगिक आधार बना देती है। तदनुसार, हम
देखते हैं कि प्रकृति व परम्परा के बीच भेद इतना सुस्पष्ट नहीं है जैसा कि
समतावादी बतलाते हैं।
अवसर की समानता को प्रतिभाशाली
व्यक्तियों के लिए पेशे या व्यवसाय खुले रखना, निष्पक्ष समान
अवसर उपलब्ध कराना और सकारात्मक-भेदभाव सिद्धांत में बदलाव के माध्यम से संस्थापित
किया जाता है। ये सब इस प्रकार काम करते हैं कि असमानता की व्यवस्था तर्कसंगत और
स्वीकार्य लगे। निहित धारणा यह है कि जब से प्रतिस्पर्धा निष्पक्ष हुई है, लाभ अपने आप आलोचना से परे हो गया है। इस बात में कोई शक नहीं कि इस प्रकार
की व्यवस्था ऐसे लोगों को जन्म देगी जो सिर्फ अपनी प्रतिभाओं एवं वैयक्तिक सहजगुणों
पर ध्यान देंगे। यह बात उन्हें अपने लोगों के साथ किसी भी सामुदायिक अनुभूति से
वंचित करती है, क्योंकि वे सिर्फ प्रतिस्पर्धा की भाषा में
ही सोच सकते हैं। शायद, यह सिर्फ एक ऐसे समुदाय को जन्म दें
सकती है जो एक ओर तो सफल व्यक्तियों का समुदाय होगा, और
दूसरी ओर असफल व्यक्तियों का ऐसा समुदाय जो अपनी तथाकथित विफलता के लिए स्वयं को
ही दोष देगा। अवसर की समानता के साथ एक और समस्या यह है कि वह एक पीढ़ी व दूसरी
पीढ़ी की सफलताओं व विफलताओं के बीच एक बनावटी वियोजन पैदा करने का प्रयास करती
है।
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