प्रकृति वर्णन के संदर्भ में नजीर की कविताओं पर नजर डालने से यद्ठ तथ्य सामने आता है कि प्रकृति को देखने की उनकी दृष्टि विशिष्टि डै। प्रकृति की विविधताओं और उसके विभिन्न रूपों का वे वर्णन तत्कालीन जीवन-पद्धति से जोड़कर करते हैं। प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए वे उसमें डूब नहीं जाते डैं। वे प्रकृति के किसी खास आयाम का वर्णन करते द्दुए उस समय के जीवन के विभिन्न रुपों को उससे संबद्ध कर देते हैं। 'रात'. चौँदनी. चाौँदनी रात” आदि कविताओं में उन्होंने प्रकृति के आकर्षक, उद्दाम रूप के वर्णन के साथ तत्कालीन सामंती जीवन के चित्र को भी प्रस्तुत किया है। चांदनी शीर्षक कविता में नजीर की इस विशिष्टता को देखा जा सकता है :
वाह हुई थी
रात क्या चांदनी की उजालियां।
झूम रहीं
बाग में सुम्बुल व गुल की डालियां।
शोंख बगल
में नाज से खोले था जुल्फें कलिया।
खुश हो गले
लिपट लिपट देता था मीठी गालियां।
हम भी नशे
में मस्त थे साकी की पीके प्यालियाँ।
जल के फलक
ने इसमें दा आफतें ला यह डालिया।
सुबह हुई
गजर बजा फूल खिले इवा चली।
यार बगल से
उठ गया. जी टी की जी में रह गई।
सामंती जीवन के चित्रण के साथ ही सामाजिक-आर्थिक जीवन के विविध
पहलुओं मी नजीर अपन प्रकृति संबंधी संवेदना में संबद्ध कर प्रस्तुत करते हैं। इस
दृष्टि उनकी बरसात्त से संबंधित कविताओं की विविध्यता रेखांकित करने योग्य है।
जब
वे बरसात का वर्णन करते हैं तो एक ओर उनमें उल्लास की भावनाएँ दिखाई देती हैं तो
दुसरी ओर संसाघ्चनन विद्िन लोगों का कष्टप्रद जीवन भी। उनमें सूक्ष्म अवलोकन
क्षमत्ता है और जब वे प्रकृति के किसी एक आयाम का वर्णन करते हैं तो उससे संबंधी प्रकृति
की इर क्रीड़ा को समेटते-वर्णन करते चलते डै। बारिश अथवा बरसात के विभिन्न आयामों
का नजीर की कविताओं में प्रमुखता से वर्णन हुआ है। इस विषय पर उन्होंने 'शबे ऐश (झडी). “बरसात की फिसलन', 'बरसात का तमाशा,
'बरसात की बहारे, बरसात की उमस” आदि कई
कविताएँ लिखी हँ। नजीर की एक विशेषता उनकी अभिव्यक्ति की सडजता है। उनके वर्णन सडज
संप्रशणीय डै। सावन में बादलों की घटा छा गई है. बादलों के देवता (शाद) मस्ती में
गरज रहे हैं. कोयल की कूक सुनाई दे रही है :
सावन के
बादलों से फिर आ घटा जो छाई।
बिजली ने
अपनी सूरत, फिर आन कर दिखाई।
हो मस्त
राद गरजा,
कोयल की कूक आई।
बदली ने क्या
मजे की रिमझिम झड़ी लगाई
आ यार!
चटके देखें बरसात का तमाशा।।
बरसात
के अंधेरे में जुगनू की रोशनी आकाश के तारों सी प्रतीत होती है :
सावन की
काली रातें और बर्क के इशारे।
जुगनू
चमकते फिरते हैं जूं आसमां पे तारे।
बादल
हवा के सहारे चारों ओर ठा गए हैं। जंगल के तन पर इरियाली सज गई है। बादल गरज रहे
हैं. झीगुर अपने सुर में गा रहे है; मोर अपनी अवजो से
वर्षा की फहारों को बुला रहा है। पपीडे पी-पी कर रहे हैं तथा मेढ़क मानो मल्डार गा
रहे हैं :
बादल लगा
टकोरें नौबत को गत लगावें।
झींगर
झंगार अपनी सुरनाइयां बजावें।
कर शोर मोर
बगले,
झाड़ियों का मुंड बुलावें।
पी पी
करें. पपीछे, मेढ़क मल्हारे गावें।
क्या-क्या
बची है. यारो बरसात की बढटारें।
दरअसल नजीर की दृष्टि की सूक्ष्मता प्रकृति विविधता के अनेकानेक
आयाम को देखने वर्णन करने की प्रवृति में है। वे इस सूक्ष्मता का उपयोग किसी किस्म
की दार्शनिकता अथवा अमूर्तता के लिए नहीं करते है। उनक प्रकृति संबंधी वर्णन
मानवीय अवलोकन की सडज प्रस्तुति है।
नजीर की कविताओं में मानवीय जीवन के विभिन्न क्रिया-कलापों बनी रहती है। यह प्रवृत्ति उनकी प्रकृति संबंधी कविताओं में भी गड्न रूप से विद्यमान है। मोहम्मद इसन इस विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं. “प्रकृति के प्रत्येक परिवर्तन में उन्हें जीवन के बदलते क्षणों की धुनें मिलत्ती है; डरे मरे खेत और घास से मरा खूबसूरत मैदान उन्हें जीवन की आनंदपूर्ण और मखमली बिछावन लगते हैं जो मालिक के द्वारा मनुष्य को दी गई है। ... लेकिन बरसात सबके लिए सुखद नहीं होती. बल्कि वड्ड निर्धन लोगों के अस्तित्व पर प्रश्न बनकर भी आती है। कवि इससे अनमभिज्ञ नहीं है, और सामाजिक विषमता का नागदंष उसे झकझोरता डै”। प्रकृति का एक डी रूप का साघन-संपन्न तथा सारानीय व्यक्तियों के लिए कैसे अलग-अलग मायने है उसे नजीर ने बहुत डी अच्छे ढंग से अभिव्यक्त किया है :
जो इस हवा
में यारो दौलत में कुछ बड़े हैं।
है उनके सर
पर छतरी,
हाथी ऊपर चढ़े हैं।
हमसे गरीब
गुरबा कीचड़ में गिर पड़े हैं।
द्वाथों
में जूतियां हैं और पांयचे चढ़े हैं।
क्या-क्या
गयी डै यारो बरसात की बढटारें।
प्रकृति
के बढाने सामाजिक-आर्थिक जीवन की समीक्षा के साथ ही सामाजिक जीवन के डास- परिष्ठास
के क्षण भी नजीर के प्रकृति वर्णन के साथ संबद्ध है। बरसात में लोगों का फिसलना तथा
इस स्थिति को देखकर लोगों अनायास ईस पड़ने को भी उन्होंने अपनी कविता में अभिव्यक्त
किया है :
आगे दुकां
ने नाला डै मौज मार चलता।
आलम तरह
त्तरह का आगे से है निकलता ।
कोई छपकता
पानी और कोई है फिसलता।
ठट्ठा है
और मजा है आबे अनब है ढलता।
आ यार!
चलके देखें बरसात का तमाशा।।
प्रकृति
के मोहक रूप को जन-जीवन के आर्थिक पक्ष के जोड़ने के साथ ही नजीर ने प्रकृति के
ऐसे पक्ष का भी वर्णन किया है जो सम्मोडक नहीं है। बरसात की उमस' में वे बरसात के दिनों के उमस का संजीव चित्रण करते हैं :
क्या अब्र
की गर्मी में घड़ी पडर है उमस।
गर्मी के
बढ़ाने की अजब लहर है उमस।
पानी से
पसीनों की बड़ी नहर है उमस।
हर ब्वाग
में डर दश्त में इर शहर है उमस।
बरसात के
मौसम में निपट जहर है उमस।
सब चीज तो
अच्छी है पर कहर है उमस।।
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