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दविवेदीयुगीन काव्य के अभिव्यंजना शिल्प का विवेचन कीजिये।

 1) काव्य रूपों की विविधता

काव्य रुपों की दृष्टि से द्विवेदी युग को प्रमुख रूप से प्रबंध कविता का युग कहा जा सकता है। परंपरागत प्रबंध काव्य के स्वरूप में इन कवियों ने थोड़े-बहुत परिवर्तन किए। डरा परिवर्तन के पीछे युग परिवेश का प्रगाव-दबाव राक्रिय था प्रबंध काव्यों गें अधिकांश देशभक्तिपूर्ण चरित्र प्रस्तुत किए गए जिनका मूल ढाँचा आदर्श पर केंद्रित था। इस युग में प्रंबध काव्यों के तीन रूप मिलते हैं - (1) महाकाव्य (2) खंडकाव्य (3) लघु पद्य प्रबंध । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने खड़ी बोली हिंदी के प्रथम महाकाव्य “प्रियप्रवास” की रचना इस युग में की। उन्होने लिखा “मैं खड़ी बोली हिंदी में एक महाकाव्य लिखने के लिए लालायित था।” इस युग में मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली हिंदी के गौरव ग्रंथ- साकेत” की रचना की जो अपनी नवीन उद्भावनाओं और दृष्टि की आधुनिकता के कारण इस युग की प्रबंध परंपरा की मुकुट मणि है। श्याम नारायण पांडेय ने “हल्दी घाटी” और “जौहर”, रामचरित उपाध्याय ने “साकेत संत” जैसे महाकाव्यों की रचना की किंतु इन महाकाव्यों से अधिक प्रबंध-योजना ही सक्रिय रही।

     यह युग प्रबंध-परंपरा में खंड काव्यों की सृष्टि का स्वर्ण युग है। एक ओर तो ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं पर आधारित “जयद्रथ वध", “पंचवटी”, “नहुश”, "द्वापर', “सिद्धराज”, “विष्णुप्रिया” जैसे खंडकाव्य लिखे गए दूसरी ओर कल्पित कथानकों पर आधारित स्वच्छंद प्रवृत्तियों से युक्त मार्मिक खंड काव्यों की सृष्टि इसी युग में हुई पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने “पथिक”, “मिलन” और स्वप्न तीनों खंड काव्यों में काल्पनिक कथानकों का ढाँचा खड़ा करके नयी कवि प्रतिभा का परिचय दिया।

     यशोधरा” जैसे गद्य-पद्य मिश्रित चंपू काव्यों की भी सृष्टि हुई। कुछ लघु पद्य प्रबंध भी लिखे गए, मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखित- “कीचक की नीचता”, “कुंती और कर्ण” आदि। धीरे-धीरे इन पद्य प्रबंधों ने लघु गीत प्रबंध का रूप ले लिया जैसे लाला भगवानदीनकृत “वीर पंचरत्न"।

2) द्विवेदी युगीन काव्य भाषा: खड़ी बोली

द्विवेदी जी खड़ी बोली पद्य के प्रवर्तक थे। उन्होंने ब्रज भाषा को युगधर्म के निर्वाह के अयोग्य घोषित किया और उसके स्थान पर खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया।

     हिंदी खड़ी बोली का सफल प्रयोग भारतेन्दु युग में ही गद्य-विद्याओं में होने लगा था। पद्म में यह कार्य करना अभी आवश्यक था। यह काम महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया। यह पहले कहा जा चुका है। स्वयं अच्छे पद्यकार न होते हुए भी महावीर प्रसाद द्विवेदी को इस कार्य में सफलता मिली, इसका एक प्रमख कारण यह है कि भाषा पर उनका विशेष ध्यान था, अधिकार था और वे एक स्वयं सशक्त: शैलीकार थे। वे स्वयं अच्छी तरह जानते थे कि काव्य की भाषा कैसी होनी चाहिए। वे मानते थे कि कविता बोलचाल की भाषा में होनी चाहिए अर्थात वे पाठक की उपस्थिति का महत्व स्वीकार करते थे और मानते थे कि कविता, कवि और पाठक के बीच का रांवाव है ड्रो कहृदयंगग करने के लिए राहज होना चाहिए | उन्हें किसी परायी भाषा के शब्द के व्यवहार से परहेज नहीं था बशर्ते कि लेखन अपनी स्वाभाविकता को न छोड़े। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के निम्नांकित शब्द महावीर प्रसाद द्विवेदी के शैलीकार रूप को यथोचित व्यक्त करते हैं: “द्विवेदी जी की भाषा में न तो संस्कृत का सामासिक जंगल है और न उर्दू की कलाबाजियां। उनकी भाषा हिंदी का ठेठ प्रकृत रूप लिए हुए है। केवल शब्दों का प्रयोग ही भाषा नही है। वाक्यों की बनावट ही भाषा का असली रूप है। हिंदी में नई-नई उद्भावनाएँ कर के द्विवेदी जी ने हिंदी की व्यापकता को सर्वमान्य बना दिया है। जो लोग हिंदी की स्वच्छंदता के कायल नहीं हैं, उन्हे बड़े दिल से द्विवेदी जी और पंडित रामचंद्र शुक्ल की भाषा का मनन करना चाहिए। द्विवेजी जी की भाषा वैसे अनलंकृत लघुता का गुण धारण करने वाली, आडंबरहीन, प्रवाहपूर्ण, सरल भाषा है। कभी विषय के अनुसार वह गंभीर तत्सम शब्दों में संयुक्त भी बन जाती है तो कभी व्यंग्यात्मक तेवर में हल्की फुल्की, बतरस का मजा देने वाली थी। काव्य भाषा के संबंध में भी महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की यही मान्यता था कि कवि को ऐसी भाषा लिखनी चाहिए जिसे सब कोइ सहज में समझ ले और अर्थ का हृदयंगम कर सके”। वह काव्य में संस्कृत कृत्तों को अपनाने के पक्ष में थे उन्होने कवियों को समझाया है: “दोहा, चौपाई, सोरठा, घनाक्षरी, छप्पय, सवैया, आदि का प्रयोग हिंदी में बहुत हो चुका।

3) प्रतीक एवं बिंब विधान

राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण के इस युग में कविता का बाहय विधान ही नहीं उसका आतंरिक रचना संसार भी बदल गया। कवियों ने ऐतिहासिक पौराणिक प्रतीकों को नया अर्थ संदर्भ दिया “प्रिय प्रयास” के राधा और कृष्ण लोक जागरण की सुधार चेतना के प्रतीक बन गए। “हल्दी घाटी” और “जौहर” के राणा प्रताप और पद्मावती अपने ऐतिहासिक अर्थ के साथ स्वतंत्रता की क्रांतिकारी चेतना के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किए  गए। पात्र प्रतीकों के साथ स्थान प्रतीकों को भी इस कविता के महत्व के साथ ग्रहण  किया। हल्दी घाटी, पाटलिपुत्र, चित्तौड़, पानीपत के मैदान, बुंदेलखड के अनेक प्रसिद्ध स्थान इस युग की कविता में प्रतीक बनकर आए। उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित पंक्तियाँ देखिए-

मुझे न जाना गंगासागर

मुझे न रामेश्वर काशी

तीर्थराज चित्तौड़ देखने

को मेरी आँखें प्यासी।।

           - श्यामनारायण पांडेय

4) उपमान योजना (अलंकार)

इस युग की कविता यद्यपि बाहरी सजधज के रीति युगीन संस्कारों में विश्वास नहीं करती फिर भी काव्यगत अनुभूति को तीव्र और मूर्त बनाने के लिए अलंकार पिधान का उपयोग किया गया है। अलंकार यहाँ वाणी की सजावट के लिए न होकर भावों की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं। अलंकारों का कृत्रिम और चमत्कारपूर्ण प्रयोग इन कवियों ने नहीं किया बल्कि भाव के सौंदर्य को स्पष्ट करने वाले नए उपमानों के प्रति उनका आकर्षण रहा। इन कवियों की अलंकार योजना सामान्य और परिचित अलंकारो की सीमा से बाहर कम गई किन्तु प्रकृति की सत्ता आलंबन रूप में मानने के कारण जहाँ-तहाँ मानवीकरण अलंकार की विशिष्ट योजना हुई। इनकी कल्पनाशक्ति पर परंपरागत उपमानों का बोझ नहीं है। इसलिए रूपक, उपमा और उपेक्षा जैसे अलंकारों में ये नए ढंग का भाव चित्र उपस्थित करते हैं जैसे -

नाक का मोती अधर की कांति से

बीज दाड़िम का समझ कर श्रांति से

देखकर सहसा हुआ शुक मौन है

सोचता है अन्य शुक यह कौन है

              -मैथिलीशरण गुप्त

5) छंद विधान

भारतेन्दु युग के कवियों ने छंदो के क्षेत्र में नए प्रयोगों की शुरूआत की थी। द्विवेदी युग में इस प्रवृत्ति की ओर तेजी से विस्तार हुआ | अन्य क्षेत्रों की भांति इस क्षेत्र में भी आचार्य द्विवेदी ने प्रेरणा दी। परंपरागत छंदों-दोहा, चौपाई, सोरठा, धनाक्षरी, छष्पय और सवैया के अतिरिक्त अन्य छंदो में कविता करने की सलाह भी दी | उन्होंने कवियों को प्रेरित किया। साथ ही उर्दू के छंदो का समुचित अनुकरण करने की सलाह भी दी। संस्कृत के वृत्तों के उपयोग की ओर भी ध्यान दिलाया। इतना ही नहीं उन्होंने अतुकांत कविता के लिए भी आंदोलन किया। वे मानते थे कि जरूरी नहीं कविता तुकांत ही लिखी जाए। उनके मत से अतुकांत कविता इसलिए कम अच्छी लगती है कि कानों को तुक वाली कविता का अभ्यास हो गया है। उन्होने संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी आदि भाषाओं का उदाहरण देते हुए हिंदी में भी इस ढंग की शुरूआत की सलाह दी। वे इस बात को समझ रहे थे कि आधुनिक युग की बदलती हुई संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए पुराने छांद पर्याप्त नहीं हो सकते। दूसरी ओर यह बात भी स्पष्ट थी कि ब्रज भाषा कविता के छंद खड़ी बोली की प्रवृत्ति पूर्णतया अनुकूल नहीं है। छठ द्विवेदी जी की सलाह को न केवल द्विवेदी युगीन कवियों ने बल्कि छायावादियों ने भी किसी न किसी रूप में अपनाया। अयोध्या सिंह उपाध्याय उरिऔध ने संस्कृत के मंदक्रांता, शिखरिणी, वंशस्थ आदि छंदो का “प्रियप्रवास” में प्रयोग किया साथ ही अतुकांत छंद को भी मुक्त हृदय से अपनाया।

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