घनानंद प्रेम मार्ग के धीर पथिक' हैं। भारतीय शास्त्रीय-सामाजिक परंपरा में एकतरफा प्रेम को स्वीकृति नहीं मिली है जबकि फारसी काव्य परंपरा में सूफी प्रभाव में प्रेम की इस पद्धति को प्रशंसित किया गया है। घनानंद का प्रेम एकतरफा ही है। सुजान के प्रति उनके प्रेम में विरह की उदात्त छवि है। घनानंद के प्रेम निरूपण में फारसी साहित्य का अत्यधिक प्रभाव है। उनका प्रेम जो स्वच्छंद है. शास्त्रीय रुढ़ियों का प्रतिरोध करता दिखाई देता है। प्रेम में विरह्ठ की दशा को घनानंद ने एक नया उदात्त माव लोक प्रदान किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल घनानंद की प्रेमदृष्टि की प्रशंसा करते हुए हिंदी साहित्य का इतिहास' में लिखते हैं. “विशुद्धता के साथ प्रौढता और माधुर्य मी अपूर्व डी डै। ये वियोग श्रृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। प्रेम का पीर लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्माव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबादानी का ऐसा दावा रखने वाला व्रजमावा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”
घनानंद के स्वच्छंद प्रेम काव्य में अनुभूतिपरकता और मावुकता की
प्रधानता है। घनानंद का प्रेम विरह्ठ परक डै। उनकी कविता में उनकी प्रेमिका सुजान
केंद्र में है। रीतिकालीन बासनापरक प्रेम से अलग प्रेम की प्रगाढता और साधनामाव
घनानंद के प्रेम का विषय है। उनके अनुसार प्रेम का मार्ग सीधा और सरल है उसमें कपट
और चतुराई की जगह नहीं है। सयानेपन की जरूरत नहीं है :
अति सूधो
सनेह को मारग है. जहाँ नेक् सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे
चलें तजि आपनपौ झझकें कपटी जे निसाँक नहीं।
घनआनंद
प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक तें दूसरो ऑक नहीं।
तुम कौन
धाँ पाटी पढ़े हो लला. मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।।
रीतिकाल में ह्टी नहीं समूची हिंदी कविता में प्रेम निरुपण की
जैसी संवेदना घनानंद की कविता में है वष्ठ विरल है। प्रिय की निष्ठुरता को जानते
और पद्दचानते हुए भी उसके प्रति उन्होनें एकनिष्ठ प्रेम भाव बनाए रखा तथा प्रेम को
जीवन का मुख्य विषय मान लिया। प्रिय के प्रति घोर आसक्ति और तन्मयता इस प्रेम की
संवेदना है। प्रिय की उपेक्षा और उससे उपजी पीड़ा को खुद सह्ना. प्रिय को दोषी न
मानना बल्कि इस विरडठ को सह्देजकर रखना. प्रिय की सदैव मंगल कामना करना, यद्ट घनानंद के प्रेम की उदात्तता ही है :
इत बाँट
परी सुधि,
रावरे मूलनि कैंसे उराइनों दीजिये जू।
अब तौ सब
सीस चढ़ाय लई, जु कह्दू मन भाई सु कीजिये जू।।
घनआनँद
जीवन-प्रान सुजान तिहारियै बातनि जीजिये जू।
नित नीके
रहो तुम्हें चाड कहा पै असीस हमारियाँ लीजिये जू।।
घनानंद का प्रेम वासना रहित और निष्काम-प्रेम का अप्रतिम उदाहरण
है। यह प्रेम का ऐसा मार्ग है जिसमें फकीराना अंदाज में बेलौस होकर ही चला जा सकता
है। जैसे कि घनानंद चलते हैं। यह्ट प्रेम की चरम दशा है जहाँ प्रेमी-प्रेमिका में
फर्क नहीं रह्ठ गया है| वह्द दोनों एक हो गए हैं. अद्टैत हो
गए हैं। आलोचक लल्लन राय घनानंद पुस्तक में घनानंद के इस प्रेम तत्व का विवेचन
करते हुए लिखते हैं. “विषम होकर भी इनके प्रेम में अंततः: एक समता की स्थिति मिलती
है जो प्रेमी को बहुत बड़ा बना देती है। वस्तुत: यह सूफी प्रेमादर्श है जिसमें
फारसी प्रेम की एकनिष्ठता और एकांतिकता सूफियों की पीड़ा. भारतीयता का आदर्श और
भक्ति-भावना का सुंदर पुट मिलता है।” प्रेम के इस स्वरुप पर घनानंद ने लिखा है :
प्रेम को
मष्ठोदधि अपार हरि कै, ब्िचार.
बापुरो
दृष्टरि वार ही तें फिरि आयौ है।
ताही एक रस
इवे बिबस अवगाहँं दोऊ.
नेहि इरि
राधा जिन्हें देखे सरसायौ है।
ताकी कोऊ
तरल तरंग-संग छूट्यौ कन,
पूरि लोक
लोकनि उमंगि उफनायौ है।
सोई घनआनंद
सुजान लगि छेत होत,
ऐसें मथि
मन पै सरूप ठहटरायों है।।
घनानंद ने अपने लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम को रूपायित कर दिया है। सुजान के प्रति उनका प्रेम भौतिक प्रेम से दृश्वरीय प्रेम में बदल गया। घनानंद के इस प्रेम में मध्यकालीन भक्ति की चेतना का तत्व भी निष्ठित हैं।
घनानंद की कविता में सौंदर्य का सूक्ष्म अंकन हुआ है। उनका
सौंदर्य चित्रण अपने युगीन कवियों से मिन्न और अनूठा है। आत्मानुमूति के ठोस
घरातल पर वष् सौंदर्य का पुनर्सुजन करते हैं। घनानंद की सौंदर्य दृष्टि से बाइय
सौंदर्य के साथ आंतरिक सौंदर्य की हवा मी उतनी ही गष्राई से चित्रित हुई है।
घनानंद के प्रशंसक ब्रजनाथ ने लिखा है :
नेष्टि
मष्ठा ब्रजभाषा-प्रवीन औ सुंदरतानि के भेद कों जाने।
जोग बियोग
की रीति मैं कोबिद भावना भेद सरूप को ठानै।।
अर्थात घनानंद की कविता में व्यक्त सौंदर्य की स्ठी परख वह्ठी कर
सकता है जो खुद प्रेमी हो, ग्रजमाषा के मर्म को जानता हो,
सुंदरता के मेदों की उसे परख डो। आत्मानुभूति और भावना के भेदों की
सूक्ष्मता को जानता हो। घनानंद के सौंदर्य चित्रण में स्वानुमूति की संबेदना है।
घनानंद का प्रेमी आलंबन के रूप सौंदर्य में इस कदर घुल-मिल गया है कि दोनों एकमएक
हो गए हैं। रूप सौंदर्य की आंतरिकता का चित्रण करते हुए नायिका के प्रति उनका
भावुक प्रेमी मन तन्मय होकर अंतर सौंदर्य का उद्घाटन करता है :
राबरे रूप
की रीति अनूप, नयो-नयो लागत ज्यों ज्याँ नि्ारियै।
त्याँ इन
आँखिन बानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिद्ठारियै।
घनानंद नायिका के सौंदर्य का वायवीय चित्रण नहीं करते। मोक््ता
के रूप में अंकन करते हैं। बाहय सौंदर्य के साथ मानसिक सौंदर्य का चित्रण करते हुए
वष्ड नई मावना और कल्पना को रुपायित करते हैं| रूप सौंदर्य का एक
अनूठा उदाइरण :
झलके अति
सुंदर आनन गौर. छके दृग राजत काननि छवै।
ईंसि बोलन
मैं छवि फूलन की बरषा. उर ऊपर जाति है द॒वे।
लट लोल
कपोल कलोल करे. कल कंठ बनी जलजायलि है।
अंग अंग
तरंग उठे दुति की. परिष्टे मनौ रूप अबै घर च्वै।।
यहाँ सौंदर्य का पारंपरिक रीतिकालीन सौंदर्य चित्रण नहीं है। कवि
मुखमंडल,
आँख. वाणी लट, ग्रीवा के आकार-प्रकार का
चित्रण करते हुए इनके सौंदर्य में निड्ठित कांति और तेज का डृदय पर पड़ने वाले
मनोह्ारी प्रभाव का अंकन करता है। अंतिम चरण का अंतिम पदक्षंघ - 'परिष्टे मनौ रूप अबै धर च्वै' के आलोक में ऊपर के
तीनों पंक्तियों के अंग सौंदर्य और हाव- भावों को देखने पर इस गतिशील सौंदर्य को
समझा जा सकता है। सौंदर्य चित्रण में घनानंद रीतिकालीन अलंकारिक मार्ग से कुछ न
कूछ ग्रह्चण करते हैं लेकिन उसे अपनी मौलिक प्रतिमा से अंगो की आंतरिक संवेदना के
प्रमाव को अधिक लक्षित करते हैं। इसी रूप में वष् अपने युगीन कवियों से अलग और
विरल पह्चान बनाते हैं।
घनानंद
का काव्य विरष् प्रधान प्रेम काव्य है। उनके काव्य में संयोग चित्रण कम. विरद्ठ का
चित्र अधिक है। घनानंद के संयोग श्रृंगार में प्रिय से मिलन की. दर्शन की उत्कट
अमिलाषा है। प्रेम की गहराई की अधिकता के कारण घनानंद के संयोग और वियोग में बहुत
अंतर नहीं हो पाता। यहाँ संयोग में भी वियोग-सा भाव दना रहता है। वियोग मिश्रित
संयोग का यह चित्रण विरल है :
“पष्ठिले
घनआनंद सींचि सुजान. कष्टीं ब्रतियाँ अति प्यार पगी।
अब लाप
वियोग की लाय बलाय बरढ़ाय, बिसास दगानि दगी।।”
(प्रिय जो आनंद सरीखा है संयोग के क्षण में प्ले आनंद की वर्षा
करके. प्यार भरी ब्वातों से मुझे भाव-विभोर कर दिया। अब वियोग में संयोग का वष्ठ
आनंददायी क्षण स्मरण कर अधिक कष्ट हो रहा है। इस तरह मेरे प्रियतम ने वियोग की
अग्नि में जलनें के लिए छोड़ दिया।)
घनानंद को मूलत. 'प्रेम के पीर का कवि कष्ठा गया है। उनकी कथनी करनी में फर्क नहीं है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल घनानंद के वियोग चित्रण की गंभीरता का विवेचन करते हुए लिखते हैं, “यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों को लिया है पर वियोग की अंतर्दशाओं की ओर ही दृष्टि अधिक है। इसी से अनेक वियोग संबंधी पद ही प्रसिद्ध है। वियोग वर्णन भी अधिक अंतर्वुि निरुपक है, वाहयार्थ निरुपक नहीं। घनानंद ने न तो बिहारी की तर विरह्ठताप को बाइरी ताप से मापा है, न बाहरी उछलकूद दिखाई है। जो कुछ हलचल है वष् भीतर की है। बाष्टर से यह वियोग प्रशांत और गंभीर है. न उसमें करवटें बदलना है न सेज का आग की तर से तपना, न उछल-उछल कर भागना।” घनानंद का प्रेम एकनिष्ठ और एकपक्षीय है। विरष्ठ की विलक्षण संवेदना। प्रेमी की पीड़ा अनिर्यधनीय है। खुद इस संवेदना को घनानंद ने 'मौन मधि पुकार कहा है। विरष्ट का मर्मस्पर्शी चित्रण उनके काय्य की पहचान है।
अंतर
उदेग-दाष्ट, आँखिन प्रवाष्ट-ऑँसू
देखी अटपटी
चाष्ट भीजनि दष्ठनि है।
सोइबों न
जागिवब्ो हो हँसिवों न रोइवों हू.
खोय-खोय आप
ही में चेटक लट्नि है।
जान प्यारे
प्राननि बसत पै अनैंदघन,
बिरह-विषम-दसा
मूक लॉ कष्टनि है।
जीवन मरन, जीव मीच ब्विना ढन्यों आयि
डाय कौन
विधि रची नेड्टी की रहनि है।।'
घनानंद विरह को उदात्त भावभूमि पर प्रतिब्रेंबित करते हैं।
आत्ममर्ल्सना है परंतु प्रिय की अमंगल कामना नहीं है। जीवन के उत्तरार्ड में तो
उन्होंने प्रेम साधना को इश्वरीय बना दिया। इसलिए उनके यहाँ प्रेम की जाग्रत
स्थिति बनी रहती है। रामचन्द्र शुक्ल घनानंद की विर्ट संवेदना की उदात्तता का
चित्रण करते हुए सष्ठी लिखते हैं. “घनानंद के श्रृंगार काव्य में विरह्ानुमूति के
चित्र संयोग चित्रों की अपेक्षा कई गुना अधिक हैं। घनानंद के विरष्ट वर्णन में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण बात यह है कि यष्ट कवि विरष्ठ तीव्रता का चाड्टे जितना अनुमव करता और
कराता हो "निराशा और 'विषाद' को यट्ट
पास फटकने नहीं देता। जिसकी दुष्टाई 'आलोचक प्रवर दिया करते
हैं।”
शास्त्रों में विर्ठ की दस अंतर दशाओं का वर्णन किया गया है- अमिलाषा. थिंता. स्मृति. गुणकथन, उद्देग, प्रलाप, उन्याद, व्याधि जड़ता और मरण।
घनानंद के इस शास्त्रीय विरष्ट दशा वर्णन में भी स्वामाविकता है।
उसमें कृत्रिमता रंच मात्र नहीं है क्योंकि उनका श्रृंगार वर्णन स्वच्छद प्रेम की
घनीमूत अभिव्यक्ति का ही प्रतिरुप है। शास्त्र का वष्ठ अनुकरण नहीं करते बल्कि
वष्टठ उनकी स्वच्छंद प्रेम योजना का अंग है। श्रृंगार की स्वच्छंद अभिव्यक्ति में
शास्त्रीय अभिव्यक्तियाँ फूटती है, व्यक्त होती है।
घनानंद अपने प्रिय को सुजान, जानराय, ढरकों
डी बानिवाले नाम से पुकारते हैं। वष्ठ प्रिय की निष्ठुरता पर खीजते नहीं, दुखी नहीं होते, विरष्ट में जीवन का रस दूँढ़ते हैं।
विरष्ठ की मनोदशा उनके लिए प्रेम की कोमल स्थिति है। तमी तो बड लौकिक से आरंम होकर
अलौकिक प्रेम में तब्दील डो जाता है। अलौकिक प्रेम की यड्ट संवेदना उन्हें सूफी
काव्य के प्रेम चेतना से जोड़ता है, जिसमें प्रेमिका को
इश्वर का दर्जा दे दिया जाता है।
Subcribe on Youtube - IGNOU SERVICE
For PDF copy of Solved Assignment
WhatsApp Us - 9113311883(Paid)
0 Comments
Please do not enter any Spam link in the comment box