निराला काव्य में शुरू से ही प्रयोगों की जो विविधता है, उसमें जितना निराला की प्रतिभा का योगद्रान है, उतना ही योगदान उस दौर की वैचारिक बौद्धिक सामाजिक चेतना का भी है। भारत में ही नहीं, विश्वभर में जहाँ कहीं भी पुरानी शोषणपरक व्यवस्था से मुक्ति की चेतना बलवती होती है, वहाँ की कविता में हमें कल्पना का मुक्त आचरण देखने को मिलता है। पुराने घिसे-पिटे काव्यरूप, बिंब और प्रतीक, छंद और अलंकरण के तमाम सारे उपकरण तब बासी और उबाऊ लगने लगते हैं। ऐसे दौर के कवि अपनी मुक्त कल्पना से पुराने रूपों को भी नयेपन से भर कर नयी चेतना के अनुरूप रचनाकर्म कस्ते हैं। इसी दौर में कई बार नये प्रयोग इस उच्च स्तर के होते हैं कि उन्हें नयी विधा के रूप में नया नाम देना पड़ता है। पश्चिम में उभरते पूंजीवाद ने जब पुरानी सामंती शोषण व्यवस्था से मुक्ति की चेतना समाज में फैलायी तो उसकी गुणात्मक परिणति 1789 की फ्रांस की क्रांति में हुई। इस क्रांति के समय तीन नये नारे दिये गये ; स्वाघीनता, समता, बंघुत्व। इन तीन शब्दों ने विचारों और मूल्यों के क्षेत्र में नये परिवर्तन कर दिये, साहित्य में इनका प्रतिफलन नये बिंबों, प्रतीकों, काव्यरूपों आदि में तो हुआ ही, “उपन्यास” नामक नयी विधा का भी जन्म इन्हीं विचारों और मूल्यों के कारण हुआ। इससे पहले महाकाव्य नामक विघा में काव्यनायक के लिए किसी राजा, महाराजा या राजकुमार को ही चुनना अनिवार्य था, काव्यशास्त्री “धीरोदात्त नायक” की शर्त लगाते थे, (देखिए, निराला की ही कविता, “राजे ने अपनी रखवाली की।”) इस शर्त से मनुष्य और मनुष्य के बीच “समता” का मानवमूल्य खंडित होता था, तब साधारण जन को नायक के रूप में चित्रित करने के लिए नयी विधा की ज़रूरत महसूस हुई और इस तरह “नावेल” जिसका अंग्रेज़ी में अर्थ ही है “नया”, अस्तित्व में आया। इसीलिए गुजराती भाषा में इस नयी विधा को “नवलकथा” नाम दिया गया।
जिस
तरह फ्रांस के उदीयमान पुूंजीपतिवर्ग ने नये विचारों, नये मानवमूल्यों से
चेतना में परिवर्तन ला दिये, जिनसे रचनाकारों में
प्रयोगशीलता की नयी धारा प्रवाहित हुई, उसी तरह हमारे यहाँ
के उदीयमान पूंजीपतिवर्ग ने भी अपने लिए भास्तीय उपमहाद्वीप के बाज़ार को ब्रिटिश
पूंजीपतियों के शिकंजे से मुक्त कराने के लिए कुछ नये मानवमूल्यों को समाज में
पैदा किया। पहले “राष्ट्र” का बोध (जिसे हम भारतेंदु
हरिश्चंद्र के समय में “भारत दुर्दशा” आदि में देखते हैं, फिर
मैथिलीशरण गुप्त की “आरत भारती” में पाते हैं) चेतना में जाग्रत
किया। पश्चिम में यह काम वहाँ के व्यापारिक पूंजीवाद ने फ्रांस की क्रांति से बहुत
पहले कर दिया था जिसके लिए धर्म को मोहरा बनाया गया था और सेम के कैथलिक चर्च के
खिलाफ राष्ट्रीय भावनाएं पैदा करके “राष्ट्रीय चर्च” की स्थापना करवायी थी। सामंती
शोषण व्यवस्था वाले तत्व रोम के चर्च के पक्षधर रहे जबकि व्यापारिक पूंजीवादी तत्व
“राष्ट्रीय चर्च” के साथ हुए, इस मुद्दे को लेकर वहाँ
“राष्ट्रवाद” की भावना अस्तित्व में आयी। हमारे यहाँ यह बोध सामंतवाद के खिलाफ
संघर्ष करके पैदा नहीं हुआ, यहाँ के उदीयमान पूंजीवाद ने ब्रिटिश
साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में “राष्ट्रवाद” की भावना और उसके कुछ ही दिनों बाद
“स्वाधीनता हमाश जन्मसिद्ध अधिकार है” के माध्यम से मुक्ति की भावना समाज में पैदा
की। इसी सामाजिक चेतना ने कवियों की कल्पना को मुक्त किया और उन्होंने “राष्ट्रीय”
गौरव को बढ़ाने के महान उद्देश्य से प्रेरित होकर साहित्य में नयी प्रयोगशीलता
अपनायी जिससे कि वे अपने साहित्य के भंडार को बेहतर से बेहतर कृतियों से भर सकें।
हमारे यहाँ भी उपन्यास विधा का जन्म हुआ, कहानी विधा का
विश्व स्तरीय माध्यम अस्तित्व में आया। कविता में नये-नये प्रयोग हुए। नाटकों की
स्तरीय रचनाएँ हुईं। इन सभी रचनात्मक कार्यों के पीछे प्रेरक शक्ति हमारी आज़ादी
की लड़ाई ही थी जिसका नेतृत्व यहाँ का नवोदित पूंजीपतिवर्ग कर रहा था।
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