महादेवी ने एक दिव्य सत्ता के
दर्शन हर कहीं, हरेक उपादान में किए हैं। उस अलौकिक प्रिय से
मिलन की इच्छा ने उन्हें उद्वेलित किया। रहस्य के आवरण में ही इसकी अभिव्यक्ति
हुई। यहाँ हम उनके काव्य में विद्यमान रहस्यानुभूति का अनुशीलन करेंगे। हम यह कह
सकते हैं कि महादेवी वर्मा का काव्य’ प्रासाद इन चार स्तम्भों पर अवस्थित है –
वेदनानुभूति, रहस्य-भावना, प्रणय भाव,
और सौंदर्यानुभूति। यदि हम यह कहें कि महादेवी वर्मा के काव्य का
मूल भाव प्रणय है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं में उदात्त प्रेम का
व्यापक चित्रण मिलता है। अलौकिक प्रिय के प्रति प्रणय की भावना, नारी-सुलभ संकोच और व्यक्तिगत तथा आध्यात्मिक विरह की अनुभूति उनके प्रणय
के विविध आयाम हैं।
महादेवी की कविता में सौंदर्य के विविध रूपों का मनोहर चित्रण हुआ
है। उनकी सौंदर्यानुभूति विलक्षण है। वह, छायावाद के अन्य
कवियों के समान ही, सौंदर्य-भावना को अपने युग की एक प्रमुख
प्रवृत्ति के रूप में अंगीकार करती हैं। वह भी अपनी कविताओं में सौंदर्य के
सूक्ष्म रूप को ही प्रतिष्ठित और चित्रित करती है। महादेवी वर्मा सौंदर्य को
प्राप्ति सत्य प्राप्ति का साधन हैं मानती हैं और उनकी सौंदर्यानुभूति प्रकृति और
मानव जीवन दोनों की ओर आत्मक होती है।
जहाँ
वह प्रकृति के विभिन्न रूपों में विराट सौंदर्य के दर्शन करती हैं वहीं नारी के
विविध रूपों का भी उन्होंने चित्रण किया है। छायावादी कवि चतुष्ठय में महादेवी
वर्मा का महत्वपूर्ण स्थान है।
छायावादी काव्य एक नई
संवेदनशीलता का काव्य था। इस युग के कवि विशिष्ट अर्थ में संवेदनशील थे। महादेवी
वर्मा के संदर्भ में उनका व्यक्तित्व अपनी इंद्रधनुषी आभा लिए उनके काव्य-लोक में
उपस्थित होता है। इस प्रसंग में उनका नारी होना उनके पक्ष में जाता है। उन्होंने
काव्य रचना को अत्यंत गंभीरता से लिया है। उनकी जीवन-दृष्टि मानवीय गुणों से
सम्पृक्त और संवेदनाओं से अनुप्राणित है। उसमें उदात्त और गौरवमय भाव मिलते हैं और
समस्त प्राणि-जगत के प्रति उनकी करुणा उमड़ी पड़ती है।
छायावादी युग भारतीय नवजागरण
का काल था, जहाँ सभी स्तरों पर मुक्ति के लिए संघर्ष सक्रिय
था। नारी भी अपनी मुक्ति की खोज में रत थी। महादेवी में मुक्ति की उड़ान स्पष्ट,
असीम और अनंत है। उनमें नारी के अभिमानी रूप की अभिव्यंजना हुई है।
मुक्ति की आकांक्षा भाषा के स्तर पर भी प्रकट होती है और शिल्प के स्तर पर भी।
छायावादी भाव-बोध के लिए गीत आदर्श विधा बनकर आई। महादेवी ने अपने काव्य के लिए
गीत विधा को ही चुना। वस्तुतः अपने गीत काव्य में महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना
का सहज प्रत्यक्षीकरण हुआ है। अपने युग का अध्यात्म और भौतिकता का द्वंद्व उन्हें
रहस्य का आवरण लेने को बाध्य करता है और वह अभिव्यक्ति के स्तर पर प्रायः प्रतीक
का सहारा लेती हैं।
महादेवी की काव्य संवेदना की
निर्मिति और विकास में उनके व्यक्तिगत एकाकीपन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है,
जिसकी वेदना विभिन्न आयामों में उनके काव्य में प्रकट हुई है। वेदना
के विविध रूपों की उपस्थिति उनके काव्य जगत की विशिष्टता है।
प्रणय एक जीवन-दृष्टि के रूप
में महादेवी के रचना-लोक में विद्यमान रहा है। उनका प्रियतम से नाता अत्यंत गूढ़,
अत्यंत अज्ञेय है। इसे समझने के लिए कभी-कभी तो आत्मा-परमात्मा के
संबंध का सहारा लेना पड़ता है। जीवन को ‘विरह का जलजात’ मानने वाली महादेवी प्रणय
के संयोग पक्ष का भी चित्रण करती है। प्रेम अपने समग्र रूप मे महादेवी की कविता
में प्रधानता से विद्यमान है।
महादेवी ने अखिल ब्रह्मांड
में सौंदर्य के दर्शन किए हैं और उसे अपने गीतों में प्रमुख स्थान दिया है। स्थूल
में सूक्ष्म के दर्शन उनकी सौंदर्य-दृष्टि की विशिष्टता है। सौंदर्य की अभिव्यंजना
उनके काव्य में विभिन्न रूपों में हुई है और आनंद की सृष्टि करने में वह सफल रही
है। व्यथा-वेदना से आनंद की ओर यह प्रस्थान उनकी काव्य-यात्रा का सार है। सम्यक्
वेदनानुभूति का प्रस्फुटन आनंद में होता है। महादेवी के सौंदर्य चित्रण में
सूक्ष्मता है। वहाँ स्थूल सौंदर्य के लिए स्थान नहीं है। ऐसे में प्रकृति अपने
समग्र सौंदर्य में उनके काव्य में उपस्थित होती है।
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